परंपरा और आधुनिकता के बीच महिला

             




         साइकिल/स्कूटर/कार चलाती, काम पर जाती, बस पकड़ती, बच्चों को स्कूल छोड़ती महिलाएं बनाम करवाचौथ करती, पर्दे में कैद, गर्भ में मरती, दहेज के लिए जलती, इज्जत की बलि चढ़ती, घर में मार खाती महिलाएं। ये दो परस्पर विरोधी दृश्य  हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति को बयान करते है। एक तरफ तो आज महिलाओं को सीमित अधिकार एवं स्वतन्त्रता मिली है वहीं दूसरी ओर व्यापक स्तर पर वे आज भी परंपरागत बेड़ियों में कैद हैं साथ ही पूंजीवाद  ने उनके उत्पीड़न में नए आयाम जोड़े हैं।

              बहुतों का मानना है कि महिलाओं को जो आजादी मिली है वो सिर्फ़ पूंजीवाद  के कारण है, पर ऐसा नहीं है। आज महिलाओं को जो स्वतंत्रा मिली है वो दशको  से चले आ रहे महिला आदोंलनों का ही परिणाम है जिन्होंनें आधी आबादी को पीड़ित महिला से सबल महिला की ओर अग्रसर करने में र्निणायक भूमिका निभायी है। वैसे ये स्वंत्रता भी कुछ हद तक ही प्राप्त हुई है और मुक्ति का यह संघर्ष आज भी अनवरत् जारी है।

पूंजीवाद  ने अपने स्वार्थों के अधीन महिलाओं को एक हद तक आजादी दी है। पूंजीवादी  व्यवस्था को महिलाओं के सस्ते श्रम की आवष्यकता थी। आज इस व्यवस्था ने महिला को नुमाईष की वस्तु बना दिया है। जिसमें उनका शरीर, शरीर ना हो कर वस्तु में बदल गया है। इस दौर में महिलाओं का एक वर्ग चमक-दमक में खो गया है और महिलाओं का शरीर  बाजार में सामानों को बेचने के माध्यम के रुप में तब्दील हो गया है जिसको हम विज्ञापनों में देख सकते है। चाहे उस उत्पादन का महिलाओं से दूर-दूर तक का कोई लेना-देना ना हो। बाजार ब्यूटी उत्पादनों से पटा पड़ा है। इस दौर में महिलाओं के शोषण के तरह-तरह के नए रास्ते खुल गये हैं। 

                    पूंजीवाद ने सौंदर्य के जो प्रतिमान गढ़े हैं वे रंगभेद तथा नस्लभेद पर आधारित हैं। बडे जोर शोर  से प्रचार किया जा रहा है कि महिलाओं के लिए खूबसूरत(गोरा) होना अनिर्वाय है और महिलाओं के सफल होने के लिए इनके द्धारा बनाये गए मापदण्डों पर खरा उतरना जरुरी है। जो इनके अनुसार खूबसूरत है वही आज सफल है। उसके लिए पूरी दुनिया खुली है वो जो चाहे कर सकती है। जो महिला सौन्दर्य  के इस मापदण्ड में फिट नहीं बैठती वो तरह-तरह के सौन्दर्य  प्रसाधनों का उपयोग कर इस मापदण्ड पर खरा उतरने का प्रयास करती है और जो किसी भी तरह से इस मापदण्ड पर खरी नही उतर पाती है तो उनके मन में निराशा और कुंठा घर कर जाती हैं। आम आदमी के मन में ये बात कम्पनीयॉ भर रही है कि असुन्दरता आज के दौर का सबसे बड़ा अभिषाप है। 

    जैसे कि पहले भी कहा गया है किपूंजीवादी व्यवस्था ने अपनी आवश्यकता के चलते महिलाओं को एक सीमा तक आजादी दी। इस व्यवस्था में सेवा क्षेत्र का बहुत विस्तार हुआ जिसमें महिलाओं की जरुरत थी क्योकि महिलाओं की पंरपरागत छवि कुशल सेविका के रुप में स्थापित हुई है। इसी कारण हम देखते है कि सेवा क्षेत्र में महिलाओं की संख्या अन्य क्षेत्रों से ज्यादा है उदाहरण के लिए नर्स, रिसेप्नीस्ट,एयर होस्टेज जैसे आदि सेवा क्षेत्र में ज्यादातर महिलाऐं ही काम करती है। जिसमें महिला को शो पीस के बतौर उपयोग किया जाता है।

         दूसरी ओर स्त्रीयों का एक वर्ग वो भी है जो बस में लटककर, पुरुषों की हिंसक नजरों का सामना करते हुए रोज अपने कार्यक्षेत्र में जाती है और दिनभर वहॉ खटने के बाद उसी तरह घर वापस आती है। रस्ते में हॉट/बाजार भी करती है। घर आते ही चुल्हे चौके में जूट जाती है। आज उनसे एक ओर यह उम्मीद की जाती है कि वे घर में कमा कर भी लाये और घर आकर कुशल  ग्रहणी और सेविका की भूमिका भी निभाये। आज की महिला जहां एक ओर पूंजीवादी शोषण का शिकार  है वहीं दूसरी ओर वह उत्पीडन के परंपरागत रुपों को ढोने के लिए विवश है जिनकी जड़े हमारे समाज और संस्कृति में गहरे रुप में मौजूद हैं।

        पूंजीवाद  का उत्पीड़न के इन परंपरागत मूल्यों से कोई विरोध नहीं दिखायी देता। अपने मुनाफे व शोषण को बढ़ाने के लिए वह इन मूल्यों को नए रुप रंग में ढ़ालकर उपयोग व पुर्नस्थापित कर रहा है। जिसकी बानगी हम मीडिया के विभिन्न माध्यमों में देख सकते है, चाहे वो धारावाहिक, सिनेमा, विज्ञापन हो या पूंजीवाद का पुरजोर वकालत करने वाली पत्र-पत्रिकाएं।    

   आज धारावाहिकों में महिलाओं की छवि को इस तरह से प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसमें महिलाओं को या तो खलनायिका के रुप में दिखाया जा रहा है या कुशल ग्रहणी व सेविका के रुप में। हर चैनल पर ऐसे धारावाहिकों की बाढ़ आ गई है। ऐसा लगता है कि अगर महिलाओं को इस तरह से प्रस्तुत नही करेंगे तो सीरीयल बन ही नहीं सकेगा। आज ज्यादातर ऐसे ही सीरियल सफल हैं। यह सभी चैनल पूँजीपतियों द्धारा मुनाफा कमाने के लिए चलाये जाते हैं और इन पर दिखायें जाने वाले विज्ञापनों में अपना सामान बेचने के लिए वे तमाम पुरातन मूल्यों जैसे-करवाचौथ, रक्षाबंधन तथा तमाम त्यौहारों आदि का इस्तेमाल करते हैं। 

       महिलाओं की इस तरह की छवि गढ़ने का प्रमुख कारण यह है कि महिलाओं की आपस में एकता ना बन सके। पितृसत्ता के खिलाफ उनके विद्रोह में कमी हो। महिला आदोंलनकारी जब महिलाओं के शोषण के खिलाफ बोलती है व आजादी की मांग करती हैं तो उन्हें आमतौर पर परिवार तोड़ने वाली खलनायिका के रुप में पेश किया जाता है। आज महिलाओं को अपनी समानता व बराबरी हासिल करने के लिए हमारे समाज संस्कृति में मौजूद रूढीवादी परंपरागत मूल्यों से लड़ने की जरुरत है वहीं मुकम्मल मुक्ति हासिल करने के लिए पूंजीवादी  व्यवस्था का खात्मा भी जरुरी है। अंत में एक बात ओर, महिलाओं की मुक्ति की लड़ाई केवल महिलाओं का मसला नहीं है यह पूरे समाज की मुक्ति का प्रश्न  है।




 - उपासना बेहार

3 comments:

  1. सही विश्लेषण......
    उदाहरणार्थ स्पार्टाकस (फिल्म) में जब सूली पर लटके स्पार्टाकस से उसके साथी पूछते हैं कि क्या हुआ कहाँ गलती हुई...स्पार्टाकस चुप रह जाता है....
    "हम ज़रूरत से बहुत बहुत कम बागी थे".... किन्तु स्त्रियों के तमाम विद्रोह में क्या बागीपन की कमी दिखाई पड़ती है...शायद नहीं...मगर पित्र्सत्तात्मकता के खिलाफ एकजुटता जो बौद्धिक एवं व्यावहारिक दोनों पहलुओं में होनी चाहिए...उनमें सामंजस्य का सवाल है..? यह केवल मेरी प्रतिक्रिया है, जिसे उपासना ने "महिलाओं की आपस में एकता न बन सकना" के तौर पर पहले रेखांकित किया है...

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  2. उपासना जी बहुत ही सारगर्भित आलेख पढने को मिला बहुत अच्छा लगा.... यदि आप नारी ब्लॉग पढ़ती हूँ तो ऐसे आलेख वहां पोस्ट करें तो बहुत अच्छा रहेगा ..बाकी आपको जैसा उचित लगे ......हार्दिक शुभकामनाएं

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  3. शुक्रिया कविता जी मैं नारी ब्लॉग में अपना लेख भेज रही हूँ , ब्लॉग बहुत अच्छा है सभी साथियों को बधाई

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