बच्चों को क्या सिखा रहे है स्कूल?



-          चन्दन यादव


गर किसी बच्चे ने मध्य प्रदेश  के सरकारी स्कूल से पांचवी पास की है तो उसे साहसी, देशभक्त, जुझारु, आत्मविष्वासी, न्यायप्रिय, संवेदनशील  और सबके साथ बराबरी से पेश आने वाला होना चाहिये। मैं यह बात इसलिये कह रहा हूं कि कक्षा पांच तक की भाषा  भारती में हर पाठ के नीचे बने छोटे बाक्स में आइये सीखे शीर्षक  के अर्न्तगत पांच छह बातें लिखी होती है, मानवीय गुणों की यह सूची वहीं से ली गई है। जब से मैंने इसे पढ़ा है मैं बहुत से अगर-मगर और प्रशनों से घिर गया हूं।

मैंने शिक्षा का उद्देष्य चरित्र निर्माण होना चाहिये जैसी सुक्तियां पढी है और बच्चों को नीतिगत उपदेश देते शिक्षक भी देखे है। पर स्कूल में बच्चों के व्यक्तित्व विकास की कोइ भी व्यवहारिक कोशिश  होते हुए नहीं देखी। दरअसल यह शिक्षा का एजेण्डा ही नहीं है। अगर होता तो बच्चे के व्यक्तित्व विकास का मापन परीक्षा की विषयवस्तु में जरूर शामिल  रहता। इसके उलट स्कूल में किया जाने वाला व्यवहार और उनके साथ पेश  आने वाले तौर तरीके समझते हुए मुझे लगता है कि स्कूल उन सभी मानवीय गुणों दमन करने वाली संस्था है जिनके उल्लेख से हमने यह बात शुरू की है। पालकों के मन में भी शायद  ही कभी यह आता होगा कि वे बच्चों को साहसी, देशभक्त और न्यायप्रिय वगैरा बनाने के लिए शाला  भेज रहे है।

दरअसल विचारणीय मुद्दा भी यह है कि समाज के लोग स्कूल से ऐसी कोई अपेक्षा नहीं रखते कि बच्चों के व्यक्तित्व के बनने में स्कूल की भी कोई भूमिका है, या हो सकती है। यह सोच बहुत खतरनाक और आत्मघाती है क्योंकि कोई चाहे या ना चाहे स्कूलों में बच्चों का व्यक्तित्व लगातार एक खास सांचे में ढल रहा होता है। छुपे तौर पर सरकारें जरूर अपनी राजनीति के अनुकूल किताबें बनाने का काम लगातार करती रहती हैं।

देश और दुनिया के ज्यादातर शिक्षाविद इस बात पर लगभग एकमत है कि स्कूल बच्चों को एक खास तरह से अनुशासित करते हैं। अनुशासन अगर संगीतकारों की टोली की तरह का हो उससे मधुर संगीत की रचना होती है, मगर स्कूल का अनुशासन नकारात्मक होता है बच्चे के अनुठेपन और उनके बीच की विविधता को नष्ट करके उनको एक जैसा बनाने की कोशिश करता है। ठीक वैसे ही जैसे कि किसी खास के ब्रांड सभी साबुन आकार, गंध और गुण में एक जैसे होते हैं।

स्कूल विभिन्न परिवेश और पृष्ठभूमि से आये विविध बच्चों को एक जैसे कपड़े पहनाकर , एक जैसी किताबें, एक जैसे प्रष्न और उनके एक जैसे और तयशुदा  उत्तर रटवाकर भीड़ का हिस्सा होने का अभ्यस्त बनाते हैं। एक ऐसी भीड़ जो लाइन से चलती है। लाइन में बैठती है। भुख हो या ना हो, एक ही समय पर खाना खाती है। स्कूल में सीखना घंटो में बंटा होता है। घंटी बजी, गणित सीखों। घंटी बजी, पर्यावरण सीखों। घंटी बजी, खेल खेलो। घंटी बजी, घर जाओ ताकि कल भी यही सब कर्मकाण्ड करने के लिये स्कूल वापिस आ सको। भला कोई इंसान, वह भी बच्चा 5-6 घंटों में इतना बॅट सकता है।

स्कूल की सत्ता अध्यापक के हाथ में होती है। वे ही तय करते है कि अच्छा बच्चा कैसा होना चाहिये ? उनकी कक्षा में अच्छा बच्चा कौन है ? अध्यापक ही तय करते है कि बच्चों को कब चुप रहना है और कब बोलना है। वे परीक्षा की विषय वस्तु तय करते हैं और परीक्षा लेते हैं। विविधता से भरे हुए बच्चों की एक जैसी परीक्षा। वे पास और फेल करते हैं। बच्चे स्कूल में अध्यापक के आदेश  और निणर्य के लिए उनका मुंह  ताकते हैं। जैसे बच्चे ना होकर चाबी के खिलौने हों, सभी एक जैसे और एक ही चाबी से चाबी से चलने वाले खिलौने।

स्कूल में कहां जाता है कि अपने से बड़ों का आदर करो। यह छुपा ही रह जाता है कि किसी का भी आदर क्यों किया जाना चाहिये। यह भी नहीं कहां जाता कि सभी का आदर करो और सबके साथ बराबरी से पेष आओ।

इस प्रक्रिया से गुजरकर सत्ता के सामने नतमस्तक रहने वाले नागरिक बनते हैं। हर बात में दूसरों का मुंह ताकने वाले नागरिक बनते हैं। ऐसे नागरिक बनते हैं जो यह मानते हैं कि मैं कैसा हूँ  ? गलत हूँ या सही, यह कोई और बतायेगा ?

हमारे स्कूल ऐसी पीढी बना रहे हैं जो सोचती कम हैं, अनुसरण ज्यादा करती है। वे ऐसे लोग बना रहे हैं जो तुरन्त ही दूसरों के हिसाब से अपने आप को अनुकूलित कर लेते हैं। ऐसे लोग जो हर तरह की सत्ता से दबकर रहना ही अच्छा समझते हैं। ये आफिस में बॉस से दबते हैं। घर में अपने बड़ों से दबते हैं और पीठ पीछे उनको गाली देते हैं। वैसे ही जैसे स्कूल में दिया करते थे। कुण्ठित और आत्मविष्वास से हीन ऐसे नागरिक मौका मिलते ही धर्म बचाने के लिए गुजरात में मोदी के पीछे ऑख बन्द करके चल पडते हैं। और कभी संस्कृति बचाने के लिए किसी ग्रीटिंग कार्ड की दुकान में आग लगा आते हैं।

दरअसल हमारे आधुनिक स्कूल हमारे गैर आधुनिक समाज का उत्पाद हैं। हमारे परिवारों की प्रेरक शक्ति भी सामंती एंव अलोकतांत्रिक मूल्य हैं। जिनमें जाति एंव लिंग के आधार पर भेदभाव सहित कई ऐसी बातें हैं जो इंसान की निजी स्वतंत्रता का दमन करती हैं। तर्क करना और सवाल करना स्कूल और घर दोनों जगह पर मना है। इसलिए स्कूल जैसे हैं वैसे ही बने रहे तो यह जड़ता भी बनी रहेगी। आतको तय करना है कि कैसा समाज चाहते हैं ? अगर समाज को वैसे ही बनाये रखना चाहते हैं जैसा कि वह  अभी है तो इसके लिए आज के स्कूल आदर्श  हैं, अगर बदलना है तो स्कूलों को भी बदलना पड़ेगा।

1 comment:

  1. आप का बलाँग मूझे पढ कर अच्छा लगा , मैं भी एक बलाँग खोली हू
    लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/


    आपको मेरी हार्दिक शुभकामनायें.

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