इतिहास के रोशनी का चले जाना
जावेद अनीस
शीर्ष इतिहासकार प्रोफेसर विपिन चंद्रा का 86 साल की उम्र में निधन हो गया है । उनके पहुँच का दायरा केवल
इतिहास के विद्यार्थियों और अकादमिक जगत तक ही नहीं था बल्कि उन आम लोगों तक भी था
जिनका इतिहास के क्षेत्र से सीधा सम्बन्ध भी नहीं है। उनके इतिहास की किताबों को
पढ़ कर देश की कई पीढियों ने इतिहास की समझ पायी है। उनका इतिहास सिर्फ किताबी नहीं
था बल्कि इसका जुडाव वर्तमान से भी होता था। सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ लड़ाई में
उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने न केवल इसे वैचारिक मजबूती प्रदान की बल्कि
जरूरत पड़ने पर इसके खिलाफ डट कर खड़े भी हुए। पद्म
भूषण प्रो.चंद्रा जैसे तर्कशील,प्रगतिशील इतिहासकार का चले जाने एक बड़ी क्षति
है।
एक ऐसे समय में जब इतिहास निशाने पर है, एक संकीर्ण विचारधारा के एजेंडे को स्थापित करने के
लिए इतिहास के पुनर्लेखन की तैयारियां चल रही हैं, भारत के धर्मनिरपेक्ष और
बहुलतावादी संस्कृति को झूठा साबित किया जा रहा है, उस वक्त प्रो.विपिन चंद्रा का जाना
एक ऐसी रिक्तता है जिसका भरा जाना बहुत मुश्किल है। जब हमें बार-बार रटाया जा रहा
है कि भारत एक “हिन्दू राष्ट्र” है और यहाँ रहने वाले सभी लोग हिन्दू हैं, ऐसे में
वह आवाज खामोश हो गयी है जो अपने जीवन भर हमें बताती रही कि भारत स्वभाविक रूप से
केवल “धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र” ही हो सकता है क्योंकि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने
जिस देश के लिए लड़ाई लड़ी उसमें हिंदू राष्ट्र की कोई जगह नहीं थी ।
इतिहास को अलग-अलग दृष्टिकोण और विचारों से समझा जा सकता है, लेकिन अगर कोई विचारधारा इतिहास-लेखन के स्थापित
मानदंडो से परे जाकर इतिहास लिखने की कोशिश करती है तो यह खतरनाक है क्योंकि इतिहास-लेखन
में मानदंडों का पालन किया जाना इसकी पहली शर्त है।
दुर्भाग्य से इस पहली शर्त की अवहेलना की जा रही है। दशकों से दीनानाथ बत्रा इतिहास को एक संकुचित
विचारधारा के चश्मे से दोबारा लिख रहे हैं,जिनका मुख्य आधार “आस्था” और “विश्वास” है,
अब उनकी किताबें गुजरात के सरकारी स्कूलों में पढाई जाने लगी है, इन किताबों में
इतिहास के नाम पर “भ्रामक” जानकारियाँ हैं।
देश के शीर्ष इतिहासकार इसे इतिहास
के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण मानते हैं।
यह महज इतिहास और आस्था का टकराव नहीं है बल्कि यह तो धर्म और आस्था के आवरण में
छुपे एक खास तरह की राजनीति का इतिहास के साथ टकराव है और यह इतिहास के साथ खिलवाड़ है।
प्रोफेसर विपिन चंद्रा इतिहास के साथ किये गये
हर खिलवाड़ के खिलाफ हमेशा खड़े रहे। एन.डी.ए.
की पिछली सरकार द्वारा जब एनसीआरटी की क़िताबों को निशाना बनाया गया था, उस दौरान वे सामने आये और इसका खुलकर विरोध किया और इसके खिलाफ देश के
शीर्ष इतिहासकारों को संगठित कर एक मंच पर लाये, इस समूह ने एनडीए सरकार द्वारा
इतिहास से छेड़-छाड़ का जमकर प्रतिकार किया। इसी तरह से खालिस्तान आंदोलन के खिलाफ सबसे बड़ी आवाज विपिन चंद्र ने ही उठाई थी और
उन्होंने खालिस्तान का विरोध करते हुए इसे सांप्रदायिक करार दिया था।
प्रो. विपिन चंद्रा आधुनिक
भारत के राजनीतिक और आर्थिक इतिहास के विशेषज्ञ थे। उनका आधुनिक भारत के इतिहास को लेकर बहुत बड़ा योगदान
है। उनकी राष्ट्रीय आंदोलन और महात्मा गांधी पर भी विशेष पकड़ थी। उन्हें महात्मा गांधी के दर्शन के मामले में देश के
सबसे बड़े जानकारों में एक माना जाता है। उन्होंने भगत सिंह
पर भी काम किया है। 'इंडिया आफ़्टर इंडिपेंडेंस' और 'इंडियाज़ स्ट्रगल फ़ॉर इंडिपेंडेंस', ‘द राइज एंड ग्रोथ ऑफ इकनॉमिक नेशनलिज्म’
जैसी किताबें उनकी महत्वपूर्ण
कृतियाँ हैं।
प्रो. विपिन चंद्रा की विरासत एक प्रगितिशील और धर्मनिरपेक्ष
भारत की विरासत है। पिछले कुछ महीनों से इस पर हमला और तेज हुआ है। इतिहास पर आस्था भारी पड़ रही है जो
कि अच्छा संकेत नहीं हैं। ऐसे समय में प्रो. विपिन चंद्रा का योगदान और उनका
इतिहासबोध हमें रास्ता दिखाने का काम करेगा।
---------------------
No comments: