रेहाना जेब्बारी :- फांसी से पहले एक बेटी की चिठ्ठी अपने मां के नाम
मौत से जिन्दगी खत्म नहीं हुआ करती
Courtesy -behance.net |
--------------------
ईरान की एक युवा
इंटीरियर डिज़ाइनर रेहाना जेब्बारी के हाथों 2007 में ईरान के एक खुफिया अफसर का
कत्ल हो गया । इस अफसर ने उनसे बलात्कार करने को कोशिश की थी ।वह तभी से जेल में थी । पिछले दिनों उसे फांसी पर चढ़ा दिया गया ।
छब्बीस साल की रेहाना जेब्बारी के पक्ष कहीं नहीं सुना गया । दुनिया भर के मानवअधिकार
संगठनों ने उसके लिए आवाज उठाई, लकिन सब बेकार साबित हुए । मौत से कुछ अरसा पहले
रेहाना ने अपने मां को एक चिट्ठी लिखी थी । यह चिट्ठी उस लड़की हे हौसले की मिसाल
है – इस बात की भी की कैसे एक अनमोल जिन्दगी खत्म कर दी गयी । यह पूरी यह चिट्ठी
यहाँ प्रस्तुत है ।
----------------------------------------------------------------------
प्यारी शोलेह, आज मुझे पता चला कि अब ‘क़िसास’
(ईरानी
न्यायतंत्र में प्रतिकार का कानून) का सामना करने की बारी मेरी है। मुझे इस बात से
चोट पहुंची है कि तुमने ख़ुद मुझे क्यों नहीं बताया कि मैं अपनी ज़िंदगी की किताब
के आख़िरी पन्ने पर पहुंच चुकी हूं। तुम्हें नहीं लगता कि मुझे जानना चाहिए था?
तुम्हें पता है
कि मैं इस बात से कितनी शर्मिंदा हूं कि तुम उदास हो। तुमने मेरे लिए ये मौक़ा
क्यों नहीं निकाला कि मैं तुम्हारे और अब्बा के हाथ चूम सकूं?
दुनिया ने मुझे 19 साल जीने की मोहलत दी। उस बदक़िस्मत रात, यह मैं थी जिसे मारा जाना चाहिए था। मेरा जिस्म शहर के किसी कोने में फेंक दिया गया होता, और कुछ दिन बाद, पुलिस तुम्हें कोरोनर के ऑफिस ले जाकर मेरे जिस्म की शिनाख्त करवा रही होती और वहां तुम्हें यह भी पता चलता कि मेरे साथ बलात्कार भी हुआ था। क़ातिल का कभी पता नहीं चलता क्योंकि हमारे पास उतनी दौलत और ताक़त नहीं है। फिर तुम अपनी ज़िंदगी यातना और शर्मिंदगी के बीच जारी रखती और कुछ साल बाद उसी यातना से मर गई होती और यह सब निबट गया होता।
बहरहाल, उस नामुराद वार के साथ कहानी बदल गई। मेरा जिस्म किसी किनारे नहीं, बल्कि ईविन क़ैदख़ाने और उसकी तनहा कोठरियों में फेंक दिया गया और अब शहरे राय की क़ब्र जैसी क़ैद में है। मगर नसीब को क़बूल करो और शिकायत न करो। तुम बेहतर जानती हो कि मौत से ज़िंदगी खत्म नहीं हुआ करती।
तुमने मुझे सिखाया था कि इस दुनिया में हम एक तजुर्बा हासिल करने और एक सबक सीखने आते हैं और हर जन्म के साथ हमारे कंधों पर एक ज़िम्मेदारी जुड़ जाती है। मैंने जाना कि कभी-कभी हमें लड़ना पड़ता है। मुझे अच्छी तरह याद है जब तुमने कहा था कि एक गाड़ीवान ने उस शख़्स का विरोध किया जो मुझ पर कोड़े बरसा रहा था, लेकिन कोड़े मारने वाले ने उसके सिर और मुंह पर अपना चाबुक बरसाया और आख़िरकार उसकी मौत हो गई। तुमने मुझे बताया कि उसूल के लिए डटे रहना चाहिए भले ही इसके लिए मरना पड़े।
तुमने हमें सिखाया था कि जैसे हम स्कूल जाते हैं, हमें तमाम झगड़ों और शिकायतों के बीच औरत बने रहना चाहिए। क्या तुम्हें याद है कि तुम हमारे तौर-तरीक़ों पर कितना ज़ोर देती थी? तुम्हारा तज़ुर्बा ग़लत था। जब ये हादसा हुआ, तब मेरे सबक मेरे काम नहीं आए। अदालत में मेरी पेशी इस तरह हुई जैसे मैं कोई बेरहम मुजरिम और सख़्तदिल क़ातिल होऊं। मैंने एक भी आंसू नहीं बहाया। मैं गिड़गिड़ाई नहीं। मैं सिर पीट कर रोई नहीं, क्योंकि मैं क़ानून पर यक़ीन करती थी।
लेकिन मुझ पर एक जुर्म को लेकर बेपरवाह रहने का इल्ज़ाम लगा। तुम याद करो, मैं कभी मच्छर भी नहीं मारती थी और तिलचट्टों को उनके सिरे पकड़ कर बाहर फेंक आती थी। अब मैं एक शातिर क़ातिल हो चुकी हूं। जानवरों के साथ मेरे सलूक की व्याख्या इस तरह की गई कि मुझमें लड़कों जैसा होने की चाहत के चिह्न हैं और जज ने इस बात पर भी ध्यान देने की जहमत नहीं मोल ली कि हादसे के वक़्त मेरे लंबे और तराशे हुए नाख़ून थे।
इन जजों से इंसाफ़ की उम्मीद रखने वाला कितना आशावादी था? उसने कभी इस तथ्य पर सवाल नहीं खड़ा किया कि मेरे हाथ खिलाड़ियों जैसे- ख़ासकर किसी मुक्केबाज़ जैसे- सख़्त नहीं हैं। और इस मुल्क ने, जिसके प्रति एक मोहब्बत तुमने मेरे भीतर बोई, मुझे कभी नहीं चाहा और किसी ने मेरी मदद नहीं की जब मैं पूछताछ करने वालों की चोट से रो रही थी और बेहद अश्लील अल्फ़ाज़ सुन रही थी। जब मैंने अपने बाल काट कर अपने-आप से अपनी सुंदरता की आख़िरी निशानी भी हटा दी तो मुझे इनाम मिलाः 11 दिन की तनहाई।
प्यारी शोलेह, जो तुम सुन रही हो, उस पर रोना मत। जब पुलिस के दफ़्तर में पहले दिन, एक गैरशादीशुदा बूढ़े पुलिसवाले ने मेरे नाख़ूनों के लिए मुझे चोट पहुंचाई, तब मैं समझ गई कि इस ज़माने में ख़ूबसूरती की कोई क़दर नहीं है- चेहरे की, ख़यालों और चाहतों की खूबसूरती की, ख़ूबसूरत हर्फ़ों की, आंखों और नज़र की ख़ूबसरती और एक अच्छी आवाज़ की भी ख़ूबसूरती की भी।
मेरी प्यारी अम्मी, मेरे ख़यालात बदल गए हैं और तुम इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं हो। मेरे लफ़्ज़ बेइंतिहा हैं और ये सब मैंने किसी को दे दिया है ताकि जब मुझे तुम्हारी गैरमौजूदगी और गैरजानकारी में फांसी दे दी जाए, तो इन्हें तुम्हें सौंप दिया जाए। मैंने अपनी विरासत के तौर पर तुम्हारे लिए हाथ से लिखी बहुत सामग्री छोड़ी है।
बहरहाल, अपनी मौत से पहले मैं तुमसे कुछ चाहती हूं, कि तुम्हें ये मुझे किसी भी तरह, अपनी पूरी ताक़त से देना है। दरअसल ये इकलौती चीज़ है जो मैं इस दुनिया से, इस मुल्क से और तुमसे चाहती हूं। मुझे मालूम है, तुम्हें इसके लिए वक़्त चाहिए।
इसलिए मैं अपनी वसीयत का एक हिस्सा तुमसे पहले कह रही हूं। रोना मत और सुनो। मैं चाहती हूं कि तुम अदालत जाओ और उनके सामने मेरी अर्ज़ी रखो। मैं जेल के भीतर से ऐसी चिट्ठी नहीं लिख सकती क्योंकि इसे जेल के प्रमुख की मंज़ूरी की दरकार होती है। इसलिए तुम्हें एक बार और मेरी ख़ातिर, यातना झेलनी होगी। यह इकलौती चीज़ है और अगर इसके लिए तुम्हें गिड़गिड़ाना भी पड़े तो मैं इसका बुरा नहीं मानूंगी, हालांकि मैंने तुम्हें कई बार कहा है कि मुझे मौत से बचाने के लिए किसी के आगे गिड़गिड़ाने की ज़रूरत नहीं।
मेरी रहमदिल अम्मी, प्यारी शोलेह, मेरी अपनी ज़िंदगी से भी प्यारी, मैं मिट्टी में मिलकर सड़ना नहीं चाहती। मैं नहीं चाहती कि मेरी आंखें और मेरा जवान दिल धूल में मिल जाए। तो ये इंतज़ाम करने की इजाज़त मांगो कि जैसे ही मुझे फांसी पर लटकाया जाता है, मेरा दिल, मेरी आंखें, किडनी, हड्डियां और जो कुछ भी किसी को दिया जा सकता है, मेरे जिस्म से निकाल लिया जाए और उसे तोहफ़े के तौर पर दे दिया जाए जिसे इसकी ज़रूरत हो। मैं नहीं चाहती कि ये हासिल करने वाले को मेरा नाम मालूम हो, वह मेरे लिए गुलदस्ते ख़रीदे या दुआ भी करे।
मैं तुम्हें तहे दिल से यह कह रही हूं कि मैं नहीं चाहती कि मेरी कोई क़ब्र बने और तुम वहां आकर मेरा मातम मनाओ, यातना पाओ। मैं नहीं चाहती कि तुम मेरे लिए काले कपड़े पहनो। मेरे मुश्किल दिनों को भूलने के लिए जो भी हो सकता है, करो। मुझे हवाओं को दे दो ताकि वे मुझे बहा ले जाएं।
दुनिया हमें प्यार नहीं करती थी। यह हमारी क़िस्मत नहीं चाहती थी। और अब मैं इसके आगे हथियार डाल रही हूं और मौत को गले लगा रही हूं। क्योंकि अल्लाह की अदालत में मैं इंस्पेक्टरों पर इल्ज़ाम लाऊंगी, मैं इंस्पेक्टर शामलोऊ पर इल्ज़ाम लाऊंगी, मैं जज पर और मुल्क की सबसे बड़ी अदालत के जज पर इल्ज़ाम लाऊंगी, जिसने जब मैं जागी हुई थी, तब मुझे तोड़ दिया और मुझे तंग करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
अल्ला ताला की अदालत में मैं डॉ फरवंदी पर इल्ज़ाम लाऊंगी। मैं क़ासिम शबनी और उन सब पर इल्ज़ाम लाऊंगी जिन्होंने अपने झूठ या अपनी बेख़बरी में मेरे साथ ग़लत किया, मेरे हक़ कुचले और इस बात की परवाह नहीं की कि कभी-कभी हक़ीक़त उससे अलग होती है जो दिखाई पड़ता है।
प्यारी नरमदिल शोहेल, उस दूसरी दुनिया में, मैं और तुम होंगे जो इल्ज़ाम लगाएंगे और दूसरे होंगे जो कठघरे में होंगे। देखें, ख़ुदा क्या चाहता है। मैं मरने तक तम्हें गले लगाना चाहती थी। मैं तुमसे प्यार करती हूं।
अनुवाद - प्रियदर्शन
साभार - जनसत्ता
No comments: