क्या कांग्रेस के “अल्फ्रेड द ग्रेट” बन पायेंगें राहुल गाँधी ?
जावेद अनीस
यह राजनीति में ब्रांडिंग और “निवेश”
का युग है, जहाँ ब्रांड ही विचार है और विज्ञापन ही सबसे बड़ा साधन है, मोदी ने 2014 की
गर्मियों में इस बात को साबित किया था और अब राहुल गाँधी इसे दोहराने के लिए कमर कस
रहे हैं. लेकिन समस्या यह है कि आभासी दुनिया के बल पर गढ़ी गयी छवियों के बनने और बिगड़ने में ज्यादा वक्त
नहीं लगता है अब नये मतदाता को लम्बे समय तक वफादार भी नहीं बनाये रखा जा सकता है,
उसे तो अपने वोट (निवेश) का कम समय-सीमा में रिटर्न चाहिए या कम से कम इसकी फीलिंग
होती रहनी चाहिए. अकेले मोदी के चेहरे और उनकी “निजी टीम” के बल पर धमाकेदार जीत
के साथ पूर्ण बहुमत में आई मोदी सरकार अपने एक साल पूरे करने को है और ऐसा प्रतीत
होता है कि इसी के साथ मोदी को मिला वॉकओवर भी खत्म होने को है, जनता अच्छे दिनों के इन्तेजार से
उकताने लगी है, पूर्व में सभी सरकारों की कमियों को दूर कर देने और जन आकांक्षाओं
को एक ही झटके में पूरे कर देने के चुनावी डायलाग अब कसौटी पर है. बेजान और
पस्त पड़े विपक्ष में भी हरकत दिखाई पड़ने लगी है ।
पिछले कुछ सालों के दौरान देश
की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है, सेंटर और एक के बाद एक सूबों में अपनी सरकारें गवाने के बाद उसके भविष्य पर ही सवालिया निशान
लग गया था, इसके साथ ही नेहरु
खानदान और पार्टी के वारिस राहुल गाँधी के नेतृत्व पर भी सवाल उठने
लगे थे. देश व जनता की बात तो दूर खुद उनकी ही पार्टी के नेता ही खुलेआम उन्हें
सियासत के लिए अनफिट करार देने लगे थे और उनके अंडर काम करने की अनिच्छा जताने लगे
थे. इसकी ठोस वजहें भी रही हैं, अपने ग्यारह साल के पॉलिटिकल कैरियर में राहुल
ज्यादातर समय अनिच्छुक और थोपे हुए गैर-राजनीतिक प्राणी लगे,वे भारतीय राजनीति की
शैली, व्याकरण और तौर-तरीकों के लिहाज से अनफिट नजर आये. उनकी छवि एक “कमजोर” 'संकोची' और 'यदाकदा' नेता की बन गयी जो अनमनेपन से सियासत में है।
ताजा विवाद राहुल गांधी के लम्बी छुट्टी पर चले जाने की टाइमिंग को लेकर ही हुआ था। अब अपनी इस 59 दिनों के बहुचर्चित आत्मचिंतन के बाद वे वापस आ गये हैं,
बीते 19 अप्रैल को हुई किसान रैली को उनकी री-लांचिंग बताया गया। इसीलिए सबकी निगाहें भी उन पर थी । रैली में वे बदले हुए, सधे और आक्रामक नज़र आये, एक साल के दौरान पहली
बार उन्होंने मोदी सरकार पर सीधा हमला करते हुए इसे सरमायेदारों की सरकार बताया. कांग्रेस की इस किसान रैली को कई विश्लेषक पार्टी के पुनर्जन्म और राहुल गांधी के नए अवतार का उदय बता रहे हैं.रैली के अगले दिन संसद में राहुल गाँधी ने अपना अब तक का सबसे अच्छा भाषण दिया, निशाने पर एक बार
फिर मोदी और उनकी सरकार थी,उन्होंने सरकार को 'सूट-बूट की सरकार बताते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह सुझाव भी दिया कि वे किसानों से जाकर उनका हाल लें और उद्योगपतियों से किए वादे तोड़ कर किसानों से किये गये वायदे
को निभायें. इसके अगले ही दिन संसद में राहुल गाँधी “नेट न्यूट्रेलिटी” के मुद्दे
को उठाते हुए सरकार पर हमला बोलते हुए नजर आये, उन्होंने आरोप लगाया कि,
"प्रत्येक युवा के पास नेट का अधिकार होना चाहिए। लेकिन सरकार इसे कुछ
कॉरपोरट को सौंपने की कोशिश कर रही है।" इस दौरान उनका नरेन्द्र मोदी पर हमला भी जारी रहा, टाइम
पत्रिका में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की
तारीफ किये जाने का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि, “ओबामा द्वारा नरेन्द्र मोदी
की प्रशंसा करना तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति की ओर से पूर्ववर्ती सोवियत संघ के
राष्ट्रपति मिखाइल गार्वाचेव की प्रशंसा करने के समान है जिनके शासनकाल में सोवियत
संघ का विघटन हो गया था ।“ राहुल गाँधी के इस नए रूप को देख कर कांग्रेस और
कांग्रेसी बहुत गद–गद हैं और हों भी क्यूँ ना करीब एक साल बाद नेपथ्य और विपक्ष के रूप में तकरीबन निष्क्रिय
रहने के बाद उसे अपने “भावी नेता” में कुछ हलचल और प्रतिरोध की उम्मीद जो जगी है।
इधर हर बीते दिन के साथ सरकार
अपने ही वायदों और जनता के उम्मीदों के बोझ तले दबी जा रही है,अच्छे दिन,सब का साथ
सब का विकास, गुड गवर्नेंस, काला धन वापस लाने जैसे वायदे महज चुनावी लफ्फाजी
साबित हुए हैं, सरकार की उसकी छवि भी कारपोरेट हितेषी बनती जा रही है, इधर भूमि
अधिग्रहण पर मोदी सरकार के ‘अड़ियल रुख’ ने उस पर किसान विरोधी होने
का ठप्पा भी लगा दिया है. इन सब के बीच विपक्ष को एक
बार फिर अपनी ताकत जुटाने और एकजुट होने का मौका मिल गया है, एक तरफ जहाँ जनता
परिवार एकजुट हो रहा है तो वहीँ सीताराम येचुरी के मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी
के महासचिव चुने जाने के बाद लेफ्ट भी चर्चा में आ गया है। कांग्रेस पार्टी ने मोदी सरकार के जिद “भूमि अधिग्रहण विधेयक” और किसानों के मुद्दों को अपनी राजनीतिक वापसी के लिए चुना है, यह ऐसे मुद्दे है जो देश की 67 प्रतिशत जनता पर सीधे असर करते है, पार्टी
19 अप्रैल को हुई अपने किसान रैली और संसद में राहुल के बहुचर्चित भाषण के बल पर यह सन्देश
देने में काफी हद तक कामयाब हुई
है कि मोदी सरकार किसान विरोधी और उद्योग जगत की हितेषी है. इसका असर किसानों और आम जनता के बीच कितना होगा इसके बारे में कुछ कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन इससे
पहली बार मोदी सरककर बैकफुट पर नजर आ रही है, हडबडाहट में वेंकैया नायडू जैसे सीनियर नेता राहुल
गांधी के बयान को
शैतान का प्रवचन बताते हुए नज़र आ रहे हैं। दूसरी तरफ राहुल गाँधी “नेट
न्यूट्रेलिटी” जैसे मुद्दे को उठाकर पहली बार सीधे तौर पर युवाओं से जुड़ने की
कोशिश कर रहे हैं. जाहिर तौर पर जहाँ एक तरफ किसानों को साधने की कोशिश में हैं तो
वहीँ दूसरी तरफ वे युवाओं के बीच भी अपनी
पैठ बनाना चाहते हैं ।
मोदी सरकार के सामने चुनौती
है कि उन्होंने पिछले साल मई में जो हासिल किया था उसे बचाये रखना है, जबकि राहुल
और उनकी पार्टी पहले से ही काफी-कुछ हार चुके है अब उनके पास खोने के लिए ज्यादा
कुछ बचा नहीं है, अब उनके पास तो बस एक बार फिर से वापसी करने या विलुप्त हो जाने
का ही विकल्प बचताहै। ऐसा पहली बार लगा है कि राहुल
गाँधी ने सत्ता के इस खेल में वापसी करने विकल्प चुना है, इधर आम आदमी पार्टी भी अपनी साख को लगातार कमजोर करती
जा रही है,अंदरूनी विवाद से उनकी छवि को काफी नुक्सान हुआ है ,इन सबके बीच राहुल
गाँधी पार्टी को बदलने से पहले खुद को बदलते हुए नज़र आ रहे है, छुट्टी से वापसी के
बाद राहुल गांधी का नया अवतार सामने आया है, इन सबसे उत्साहित कांग्रेस पार्टी विपक्ष की भूमिका में फिट होते हुए दिखाई दे
रही है, जो कि भाजपा के लिए चिंता
का सबब हो सकता
है ।
राहुल की उनकी नयी शुरुआत
कांग्रेस के लिए उम्मीद जगाने वाला है लेकिन यह है तो एक आगाज ही, कांग्रेस की इस
उम्मीद को अपना अंजाम पाने लिए अभी लम्बा सफर तय करना है और कई कसौटियों पर खरा
उतरना है। राहुल को अभी भी पार्ट टाइम,
अनिच्छुक नेता की छवि से बाहर निकलने के लिए और प्रयास करने होंगें। वे “नेट न्यूट्रेलिटी” का मुद्दा तो उठा रहे हैं लेकिन अभी
भी सोशल मीडिया से दूरी बनाये हुए है, युवाओं से जुड़ने के लिए उन्हें सोशल मीडिया
का इस्तेमाल करना भी सीखना होगा। इसी तरह से पिछले कई वर्षों
से वे पार्टी को बदल डालने की हड़बड़ी में दिखाई दे रहे थे, अपनी इस हड़बड़ी को पीछे
छोड़ते हुए सबसे पहले उन्हें जनता के बीच अपने आप को एक नेता स्थापित करना होगा और
पार्टी को सियासी सफलता भी दिलानी होगी. ऐसा करके ही वे अपने आप को देश की जनता के
बीच और खुद की पार्टी के अन्दर एक लीडर के तौर पर स्थापित कर सकते हैं, इसके बाद
ही वे पार्टी को अपने हिसाब से बदल और चला सकते है।
राहुल
गांधी जब अपनी
बहुचर्चित छुट्टी पर गये थे तो मेघालय के सीएम मुकुल संगमा ने उनकी तुलना “अल्फ्रेड द ग्रेट” से कर रहे थे, 1100 साल पहले इंग्लैंड का एक राजा जो जंग हारने के बाद रहस्यमय तरीके से गायब हो गया था
लेकिन जब वापस आया तो उसने हर मोर्चे पर जीत
हासिल की। “अल्फ्रेड द ग्रेट” बनना तो दूर की कौड़ी है फिलहाल
तो यही देखना बाकी है कि कैसे राहुल गाँधी अपने आप को एक थोपे गये नेता के छवि से बाहर
निकाल पाने में कामयाब होंगें और कबतक अपने इस नए तेवर को बरकरार रख पाते हैं ।
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