बालश्रम का कानूनीकरण
जावेद अनीस
भारत ने अभी तक संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार
समझौते की धारा 32 पर
सहमति नहीं दी है जिसमें बाल मजदूरी को जड़ से खत्म
करने
की बाध्यता
है।1992 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ में यह जरूर कहा था कि अपनी आर्थिक व्यवस्था को देखते
हुए हम बाल मजदूरी को खत्म करने का काम रुक-रुक कर करेंगे क्योंकि इसे एकदम
से नहीं रोका जा सकता है, आज 22 साल बीत जाने के बाद हम बाल मजदूरी तो खत्म नहीं कर पाए हैं उलटे केंद्रीय कैबिनेट ने बाल
श्रम पर रोक लगाने वाले कानून को नरम बनाने की मंजूरी
से दी है,इस पर अंतिम मुहर संसद में संशोधित बिल पास होने के बाद लगेगी।
इसमें
सबसे विवादास्पद
संशोधन पारिवारिक कारोबार या उद्यमों, एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री और स्पोर्ट्स एक्टिविटी में संलग्न 14 साल से कम उम्र के बच्चों
को बाल श्रम के दायरे से बाहर रखने का है। यह संशोधन
एक तरह से ‘बाल श्रम को आंशिक रूप से कानूनी मान्यता देता है, हालांकि इसमें यह पुछल्ला भी जोड़ दिया गया है कि ऐसा करते हुए अभिभावकों को यह ध्यान रखना होगा कि बच्चे की पढ़ाई प्रभावित न हो और उसकी सेहत पर कोई विपरीत असर न पड़े। इसके अलावा संशोधन में
माता-पिता के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई के प्रावधान में ढील और
खतरनाक उद्योगों में 14 से 18 साल की उम्र तक के किशोरों के काम पर भी रोक लगाने जैसे
प्रावधान शामिल हैं। इस संशोधन को लेकर विशेषज्ञों और बाल अधिकार संगठनों की चिंता है कि इससे बच्चों के लिए स्थितियां और बद्तर हो जायेगी क्योंकि व्यवहारिक रूप से यह साबित करना मुश्किल होगा कि कौन
सा उद्यम पारिवारिक है और कौन-सा नहीं।इसके आड़ में घरों की चारदीवारी के भीतर चलने
वाले उद्यमों में 14 वर्ष
से कम उम्र के बच्चों को बाल
मजदूर के तौर पर झोके जाने की संभावना बढ़ जायेगी लेकिन इस दिशा में मोदी सरकार का यह पहला
कदम नहीं है, इसी साल जून में सरकार द्वारा फैक्टरी अधिनियम और न्यूनतम मजदूरी
अधिनियम में संशोधन की घोषणा की गयी है, जो नियोक्ता को बाल मजदूरों की भर्ती करने
में समर्थ बनाता है और ऐसे मामले में सजा नियोक्ता को नहीं माता-पिता को देने
की वकालत करता है।
तमाम सरकारी-गैर
सरकारी प्रयासों के बावजूद हमारे देश में बाल मजदूरी की चुनौती बनी हुई है, सावर्जनिक जीवन में होटलों, मैकेनिक की दूकानों और एवं सार्वजनिक संस्थानों में बच्चों को काम करते
हुए
देखना
बहुत
आम
है
जो
हमारे
समाज
में
इसकी
व्यापक स्वीकारता को
दर्शाता है,समाज में कानून का कोई डर भी नहीं है। सरकारी मशीनरी भी इसे नजरअंदाज करती हुई नजर आती है,2011 की जनगणना
के अनुसार भारत
में 5 से
14 साल के बच्चों की कुल
आबादी 25.96 करोड़ है. इनमें से 1.01 करोड़
बच्चे मजदूरी करते हैं इसमें 5 से 9 साल की उम्र के 25.33 लाख
बच्चे और 10 से
14 वर्ष
की उम्र के 75.95 लाख
बच्चे शामिल हैं । राज्यों की बात करें तो सबसे ज्यादा बाल मजदूर उत्तरप्रदेश (21.76 लाख) में हैं जबकि दूसरे नम्बर पर बिहार है जहाँ 10.88 लाख बाल मजदूर है, राजस्थान में 8.48 लाख, महाराष्ट्र में 7.28 लाख तथा, मध्यप्रदेश में 7 लाख बाल मजदूर है । यह सरकारी
आंकड़े है और यह स्थिति तब है जब 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे बाल श्रम
की परिभाषा के दायरे में शामिल थे, वैश्विक स्तर पर देखें तो सभी गरीब और विकासशील देशों में बाल मजदूरी की समस्या है।इसकी मुख्य वजह यही है कि मालिक सस्ता मजदूर चाहता है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने पूरे विश्व के 130 ऐसे चीजों की सूची बनाई गई है जिन्हें
बनाने के लिए बच्चों से काम करवाया जाता है,इस सूची में सबसे ज्यादा बीस उत्पाद भारत में बनाए जाते हैं। इनमें बीड़ी, पटाखे,
माचिस, ईंटें, जूते,
कांच की चूड़ियां, ताले, इत्र कालीन कढ़ाई, रेशम के कपड़े और फुटबॉल बनाने जैसे
काम
शामिल हैं।
भारत के बाद बांग्लादेश का नंबर है जिसके
14 ऐसे उत्पादों का जिक्र किया गया है जिनमें बच्चों से
काम
कराया
जाता
है।
घरेलू स्तर पर काम को सुरक्षित मान लेना गलत होगा। उदारीकरण
के बाद असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र में काफी बदलाव आया है, काम का साधारणीकरण हुआ है। अब बहुत सारे ऐसे काम घरेलू के दायरे में आ गये हैं जो वास्तव में इन्डस्ट्रीअल हैं, आज
हमारे देश में बड़े अस्तर पर छोटे घरेलू धंधे और उत्पादक
उद्योग असंगठित क्षेत्र में चल रहे हैं जो संगठित
क्षेत्र के लिए उत्पादन कर रहे हैं।
जैसे बीड़ी उद्योग में
बड़ी संख्या में बच्चे काम कर रहे हैं, लगातार तंबाकू के
संपर्क में रहने से उन्हें इसकी लत और फेफड़े संबंधी रोगों का खतरा बना रहता है। बड़े पैमाने पर अवैध रूप से चल रहे पटाखों और माचिस के कारखानों लगभग 5० प्रतिशत बच्चे
होते हैं,जिन्हें दुर्घटना के
साथ-साथ सांस की बीमारी के खतरे बने रहते है। इसी तरह से चूड़ियों के निर्माण में बाल मजदूरों का पसीना होता है जहाँ 1०००-18०० डिग्री सेल्सियस
के तापमान वाली भट्टियों के सामने बिना सुरक्षा इंतजामों के बच्चे काम करते हैं।
देश
के कालीन उद्योग में भी लाखों बच्चे काम करते हैं। आंकड़े बताते है कि उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के कालीन उद्योग में
जितने मजदूर काम करते हैं उनमें तकरीबन 4० प्रतिशत बाल
श्रमिक होते हैं। वस्त्र और हथकरघा खिलौना उद्योग में भी, भारी संख्या में बच्चे खप रहे हैं।पश्चिम बंगाल और असम के चाय बागानों में लाखों की संख्या में बाल मजदूर
काम करते हैं। इनमें से अधिकांश का तो कहीं कोई रिकॉर्ड ही नहीं होता। कुछ बारीक काम जैसे रेशम के कपड़े बच्चों के नन्हें हाथों बनवाए जाते हैं
।
विडम्बना देखिये अभी पिछले साल ही बाल मजदूरी के खिलाफ उल्लेखनीय काम करने के लिए कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था जिनका कहना है कि “बच्चों से उनके सपने छीन लेने से और ज़्यादा गम्भीर अपराध क्या हो सकता है और जब बच्चों को उनके माता-पिता से जुदा कर दिया जाता है, उन्हें स्कूल से हटा दिया जाता है या उन्हें तालीम हासिल करने के लिए स्कूल जाने की इजाज़त ना देकर कहीं मज़दूरी करने के लिए मजबूर किया जाता है या सड़कों पर भीख माँगने के लिए मजबूर किया जाता है, ये सब तो पूरी इंसानियत के माथे पर धब्बा है।” लेकिन ऐसा लगता है कैलाश सत्यार्थी की यह आवाजें अभी भी हमारे नीति– निर्माताओं के कानों तक नहीं पहुची है। बालश्रम निषेध और नियमन कानून में यह संसोधन बाल श्रम और शोषण को परिसीमित करने के बजाय उसे बढ़ावा ही देगा।
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