राज्यों के नतीजे और भारतीय राजनीति का मौजूदा पैटर्न
जावेद अनीस
जन्संदेश टाइम्स |
केंद्र में भारी
बहुमत से दोबारा सत्ता में आने के करीब पांच महीनों के भीतर भाजपा दो राज्यों के विधानसभा
चुनाव में हांफती नजर आयी. हालांकि इन दोनों राज्यों में भाजपा किसी तरह से सरकार
बनाने में कामयाब हो गयी है लेकिन इस जीत को लेकर काफी किन्तु–परन्तु हैं. अगर इसे फीकी जीत
कहा जा रहा है तो इसके पीछे ठोस कारण भी हैं. अभी चार महीने पहले ही नरेंद्र मोदी
की सरकार 2014 से अधिक प्रभावशाली जीत दर्ज कराने में कामयाब हुई थी और उसके बाद
तीन तलाक, एनआरसी और धारा 370 हटाने जैसे फैसलों, अमरीका में ‘हाउडी मोदी’ नुमा मसल प्रदर्शनों और मतदान से
ठीक पहले सेना द्वारा सीमा पर पाकिस्तान के खिलाफ “मिनी स्ट्राइक” जैसी ख़बरों से भाजपा चुनौतीहीन दिख रही थी. ऊपर से हताश, दिशाहीन और
अपने ही नाकारापन के बोझ तले दबा विपक्ष खासकर कांग्रेस इस मुकाबले में लड़ने के
मूड में ही नजर नहीं आ रही थी. महाराष्ट्र में कांग्रेस ने
बिना नेतृत्व के चुनाव लड़ा जबकि हरियाणा में आखरी मौके पर करीब सवा महीने पहले भूपेंद्र
सिंह हुड्डा को आधी– अधूरी कमान दी गयी. इससे पता चलता है कि अगर कांग्रेस अपने नाकारेपन
और उदासीनता पर थोड़ा भी काबू पा लेती तो नतीजे पूरी तरह से भाजपा के खिलाफ भी हो
सकते थे.
हार या जीत
भाजपा ने महाराष्ट्र में '220 पार' और हरियाणा में '75 पार' का नारा दिया था लेकिन इन दोनों ही
राज्यों में उसका नारा फुस्स हो गया है. महाराष्ट्र में उसे पिछली बार से सत्रह
सीटें कम, 98 सीटें मिली हैं जबकि हरियाणा में तो उसे “बेहोश” कांग्रेस की तरफ से
बराबरी की टक्कर मिली है और वो बड़ी मुश्किल से 40 सीटों तक पंहुच पाई है. यहां तक
कि इन दोनों राज्यों में उसके अधिकतर मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा है. इसी
के साथ ही 17 राज्यों में 51 विधानसभा सीटों पर हुये उपचुनावों की भी कमोबेश यही
स्थिति है जहां भाजपा को अपनी चार सीटें गवानी पड़ी हैं. कांग्रेस ने अपने शासन
वाले वाले राज्यों \मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पंजाब और राजस्थान के उपचुनावों में
भी अच्छा प्रदर्शन किया है.
तमाम संसाधनों, जेबी मीडियान और एकपक्षीय माहौल के बावजूद अगर इस तरह के नतीजे
आये हैं तो इससे एक बार फिर यह बात साबित हुई है कि चुनाव केवल मैनेजमेंट और पैसे
के बल पर नहीं जीता जा सकता है. भाजपा के मुकाबले समूचा विपक्ष चुनावी लड़ने के
मामले में बहुत पीछे हैं. भाजपा के मुकाबले विपक्ष चुनावी तैयारियों, संसाधन, करिश्माई नेतृत्व, एजेंडा सेटिंग, उम्मीदवार, प्रचार-प्रसार किसी मामले में भी
कहीं टिक नहीं पाता है. इतने अचूक हथियारों और अनुकूल माहौल के बावजूद अगर इन
दोनों राज्यों में भाजपा को नाकों चने चबाने पड़े हैं तो इसका क्या सन्देश निकलता
है ?
भारतीय राजनीति का
मौजूदा पैटर्न
इससे हम भारतीय राजनीति के वर्तमान पैटर्न को परिभाषित कर सकते हैं. दरअसल पिछले
पांच-छ: सालों में देश की राजनीति और इसके तौर तरीकों में बहुत बदलाव आया है. इस
बदलाव का असर देश के राजनीतिक मिजाज पर भी पड़ा है. अगर हम ध्यान से देखें तो इन नतीजों
ने भारतीय राजनीति के मौजूदा पैटर्न को बेनकाब कर दिया है. इसने जहां एक तरफ भाजपा
की कमजोरियों और सीमाओं को सामने ला दिया है, वहीं विपक्ष को अपने आप को बचाये रखने
का फार्मूला भी दे दिया है. हालांकि की ऐसा पहली बार नहीं हुआ है मोदी सरकार के पिछले
कार्यकाल में भी धुंधले तौर पर ही सही लेकिन यह पैटर्न दिखाई पड़ रहा था लेकिन उनके
दूसरे कार्यकाल के पहले छमाही में यह पैटर्न पूरी तरह से उभर कर सामने आ गया है.
पीछे मुड़ कर देखें
तो 2014 में नरेंद्र मोदी के अगुवाई में लोकसभा चुनाव जीतने के बाद इस पैटर्न की
शुरुआत हमें दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनाव के दौरान देखने को मिली थी. हालांकि 2014 का लोकसभा चुनाव जीतने के तुरंत बाद
भाजपा ने तीन राज्यों, अक्टूबर 2014 में महाराष्ट्र, हरियाणा व दिसम्बर 2014 में झारखण्ड में विधानसभा चुनाव
जीता था परन्तु महाराष्ट्र,
हरियाणा में दस या
उससे ज्यादा सालों से दूसरी पार्टियों की सरकारें थीं जबकि झारखण्ड लम्बे समय से
राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा था. लेकिन 2015 में इस स्थिति
में बदलाव देखने को मिला, पहले दिल्ली और फिर बिहार के विधानसभा चुनाव में. दिल्ली में आम आदमी
पार्टी और बिहार में महागठबंधन ने नरेंद्र मोदी के
विजयरथ को आगे नहीं बढ़ने दिया था. इन दोनों राज्यों में भाजपा के
शीर्ष नेतृत्व ने अपनी पूरी ताकत झोक दी थी. दिल्ली में अंधाधुंध विज्ञापन, चुनावी
मैनेजमेंट,
संघ, भाजपा
व केंद्र सरकार की पूरी ताकत और सब से बढ़ कर मोदी का जादू नाकाम साबित हुआ था और
उसे कुल सत्तर सीटों में से मात्र तीन सीटें ही हासिल हो सकी थीं. इसी प्रकार से
बिहार में महागठबंधन के संयुक्त ताकत के आगे भगवा खेमे की सारी कवायद फेल हो गयी
थी.
इसके बाद 2017 में पंजाब विधानसभा चुनाव में कैप्टेन
अमरिंदर सिंह के अगुवाई में कांग्रेस की जीत हुई थी फिर दिसम्बर 2018 में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़
में कांग्रेस की वापसी होती है. इन सभी जीतों और अभी के दो विधानसभा चुनाव के
नतीजों में दो पैटर्न साफ़ तौर पर निकल कर सामने आते हैं, विपक्षी खेमे द्वारा इन
चुनावों को स्थानीय मुद्दों और प्रादेशिक क्षत्रपों के बूते लड़ा गया था या फिर
भाजपा के खिलाफ एकजुट होकर लड़ा गया.
ट्रेंड और सबक
मौजूदा दौर में
भारतीय राजनीति का नया ट्रेंड यह है कि मतदाताओं के लिये राष्ट्रीय और प्रादेशिक
चुनावों के लिये मुद्दे अलग हैं, क़हने को तो यह सामान्य सी बात है लेकिन इसमें
भारतीय राजनीति के समूचे विपक्ष के लिये सन्देश छिपा हुआ है. मतदाताओं के लिये हिन्दुतत्व देशभक्ति, राष्ट्रवाद, पाकिस्तान, मंदिर
जैसे भावनात्मक मुद्दे लोकसभा चुनावों के लिये है और नरेंद्र मोदी
राष्ट्रीय नेता हैं, केंद्र के स्तर पर अभी पूरे विपक्ष के पास भाजपा और नरेंद्र
मोदी का कोई तोड़ नहीं है, शायद यही स्थिति लम्बे समय तक रहने वाली है. जबकि राज्यों के चुनाव
में मतदाताओं का जोर काफी हद तक आम जीवन से जुड़े स्थानीय मुद्दों और नेताओं पर
रहता है. इस ट्रेंड का एक और उदाहरण मध्यप्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ का हैं, दिसंबर 2018 के विधानसभा चुनाव में इन तीनों
राज्यों में कांग्रेस भाजपा की सरकारों को उखाड़ने में कामयाब हुई थी परन्तु इसके
करीब पांच महीनों के भीतर होने वाले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस इन तीनों राज्यों
के कुल 65 लोकसभा सीटों में से मात्र 3 सीटें ही जीतने में कामयाब हो पाती हैं.
इन नतीजों और
ट्रेंड से विपक्ष के लिये पहला सन्देश यह है कि भाजपा अजेय नहीं है. फिलहाल केंद्र
में न सही लेकिन राज्यों के चुनाव में उससे लड़कर जीता जा सकता है. इसके लिये उन्हें
अपना पूरा जोर प्रादेशिक और आम जीवन से जुड़े
मुद्दों पर लगाना होगा साथ ही उन्हें इस बात का पूरा ख्याल रखना होगा कि वे अपनी
तरफ से भाजपा को राष्ट्रवाद, हिन्दुतत्व से जुड़े मुद्दों को एजेंडा बनाने का मौका
न दें. शायद इस बात को अरविंद केजरीवाल अच्छी तरह से समझ चुके है इसलिए पिछले कुछ
समय उन्होंने खुद को स्थानीय मुद्दों तक सीमित कर लिया है साथ ही दिल्ली के
राजनीति में वे नरेंद्र मोदी या केंद्र सरकार को निशाना बनाने के बजाये दिल्ली
भाजपा और उसके स्थानीय नेताओं को टारगेट कर रहे हैं.
विपक्ष खासकर कांग्रेस
के लिये दूसरा बड़ा सन्देश यह है कि राज्यों की कमान स्थानीय और जमीन से जुड़े क्षत्रपों
को देना होगा. पिछले पांच- छह सालों में कांग्रेस को लोकसभा चुनावों में भले ही दो
बार मुंह की खानी पड़ी हो लेकिन जिन भी राज्यों में उसके क्षत्रप मजबूत हैं,
विधानसभा चुनावों के समय उन्हें कमान दी गयी है तो इसके नतीजे में जीत मिली है.
विपक्ष के लिये तीसरा
सन्देश है कि जिन राज्यों में लड़ाई त्रिकोणीय या चौतरफा है वहां भाजपा के खिलाफ
सभी पार्टियों को मिलजुल कर चुनाव लड़ना होगा. इसके दो बड़े उदाहरण बिहार और
उत्तरप्रदेश के हैं-बिहार में जिस महागठबंधन ने भाजपा को हराया था उसमें भाजपा के
खिलाफ लगभग समूचा विपक्ष एकजुट हो गया था लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सिर्फ
कांग्रेस और सपा के बीच ही गठबंधन हो सका था, बसपा अकेले चुनाव लड़ी थी जिसका सीधा
फायदा भाजपा को अभूतपूर्व जीत के रूप में मिला. पश्चिम बंगाल में 2021 में विधान
सभा चुनाव होने हैं जहां पिछले कुछ वर्षों के दौरान भाजपा ने बहुत तेजी से अपना
विस्तार किया है. 2021 में यहां कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और सीपीएम के बीच
महागठबंध से ही भाजपा को रोका जा सकता है.
विपक्ष के लिये चौथा
सन्देश है कि भाजपा की ताकत ही उसकी कमजोरियां भी हैं, दरअसल मोदी काल में भाजपा
हद से ज्यादा केंद्रीकृत हो गयी है. ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार और राज्यों के
स्तर पर पूरी पार्टी को दो लोग ही चला रहे, इसलिये विपक्ष को भाजपा के खिलाफ अपने
लड़ाई को विकेन्द्रित तरीके से आगे बढ़ाना चाहिये.
भाजपा तो इस ट्रेंड को समझ रही है लेकिन
विपक्ष ?
ऐसा लगता है भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इस ट्रेंड को समझ रहा है तभी उसका पूरा
जोर रहता है राज्यों का चुनाव भी उसके द्वारा उठाये जा रहे राष्ट्रे मुद्दों पर
हों, नरेंद्र मोदी और अमित शाह राज्यों में विधानसभा चुनाव के दौरान एनआरसी,
जनसंख्या नियंत्रण, तीन तलाक, पाकिस्तान, कश्मीर, धारा 370, विदेशों में भारत की धमक जैसे मुद्दों को ही उठाते रहे हैं, साथ
ही यह भी प्रयास रहता है कि नरेंद्र मोदी को ही नेता के तौर पर पेश किया जाये. यही
नहीं राज्यों में भाजपा की जीत का श्रेय भी नरेंद्र मोदी को दिया जाता है जबकि मात
को भाजपा के सूबाई नेताओं के खाते में ट्रांसफर कर दिया जाता है.
इसके अलावा भाजपा बहुत सधे हुये तरीके से एक देश-एक चुनाव के मुद्दे को भी
आगे बढ़ा रही है जिसके अंतर्गत लोकसभा और
राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने का प्रस्ताव है. इसके पीछे तर्क दिया
जा रहा है अलग-अलग चुनाव होने के कारण प्रशासनिक कामकाज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है
साथ ही देश को आर्थिक बोझ का सामना भी करना पड़ता है. भाजपा की तरफ से इस मुद्दे की
वकालत सबसे पहले लालकृष्ण आडवाणी द्वार की गयी थी , 2014 और 2019 के आम चुनाव में
भी पार्टी के घोषणापत्र में इस मुद्दे को शामिल किया गया था. पिछले साल जून माह
में मोदी सरकार द्वारा एक देश-एक चुनाव के मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलाई गयी थी जिसमें
देश के कुल 40 राजनीतिक दलों में से 21 दलों के नेताओं द्वारा भागीदारी की गयी थी,
हालांकि कांग्रेस, समेत 19 पार्टियों ने इस बैठक में भाग नहीं
लिया था. बाद में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के नेतृत्व में एक कमिटी गठित कर दी
गयी थी जो इस मुद्दे पर आम सहमति बनाने और
इसे लागू करने की संभावनाओं पर रिपोर्ट पेश करेगी. जाहिर सी बात है कि अगर देश में
एक देश-एक चुनाव की अवधारणा लागू होती है तो यह भाजपा के चुनावी रणनीतियों को ही
मजबूत करेगा.
आने वाले
वर्षों में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं देखना होगा कि विपक्ष
विधानसभा चुनावों के इस ट्रेंड और सन्देश से कोई सबक सीखता है या नहीं ?
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