भारत में निःशुल्क और भेदभाव रहित शिक्षा का अन्तहीन सफर

जावेद अनीस 



शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 लागू होने के बाद कागजी रूप से ही सहीभारत उन 130 से अधिक देशों  की जमात में शामिल हो गया हैजो अपने देश  के बच्चों को निःषुल्क शिक्षा  उपलब्ध कराने के लिए कानूनन जबावदेह हैं। यूनेस्को की ’’  एजूकेशन फॉर आल ग्लोबल मानिट्रिंग रिपोर्ट 2010’’ बताती है कि दुनिया के करीब १३५ देशों   में बच्चों को निःशुल्क   और भेदभाव रहित शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रावधान हैं लेकिन इस प्रावधान के बावजूद ज्यादातर देशों में वास्तविक रूप से भेदभाव रहित समान शिक्षा नहीं मिल पाती है।

इस संदर्भ में उपरोक्त रिपोर्ट में विष्व बैंक द्वारा 2005 में किये गये एक अध्ययन का जिक्र हैजिसके मुताबिक वास्तविक रूप से दुनिया में मात्र 13 देश ही ऐसे है जहां पूरी तरह निःशुल्क  शिक्षा मिल पाती है लेकिन दुर्भाग्यवश  भारत के बच्चे उन 13 देशों के बच्चों की तरह खुश नसीब नहीं है।

स्वतंत्रता उपरांत देश के संविधान निर्माता शिक्षा  के अधिकार को संविधान में एक मूल अधिकार के रूप में शामिल करना चाहते थेलेकिन किन्हीं कारणों से ऐसा नहीं हो सका और इसको राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में अनुच्छेद 45 के अर्न्तगत ही स्थान मिल सका तथा इसे राज्यों की इच्छा पर छोड़ दिया गया जो कि न्यायालयों मैं  परिवर्तनीय नहीं थे।

वर्ष 2002 में भारत की संसद में 86 वें सविंधान संषोधन द्वारा नया अनुच्छेद ’’21-’’ जोड़कर इसे मूल अधिकार के रूप में अध्याय-3 में शामिल कर परिवर्तनीय बना दिया गया।
इस संवैधानिक संषोधन के साथ शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार का दर्जा मिल गया तथा इसे नीति निर्देषक तत्वों एवं मूल कर्त्तव्यों में भी शामिल कर लिया गया। लेकिन हमारी सरकारों के पास न तो इसे लागू करने की इच्छाशक्ति थी और न ही सकारात्मक सोच।
वैसे तो 1992 के मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में देश  के शीर्ष अदालत ने अनुच्छेद-21’ के तहत षिक्षा पाने के अधिकार को प्रत्येक नागरिक का मूल अधिकार बताते हुये ऐतिहासिक निर्णय दिया था।

अनुच्छेद-21 के तहत प्राण व दैहिक स्वंतत्रता के अधिकार में शिक्षा  पाने का अधिकार भी शामिल हैतथा निजी स्कूलकालेजों द्वारा कैपीटेषन शुल्क लेना नागरिकों के इस अधिकार का उल्लंघन है। प्रत्येक नागरिक को शिक्षा उपलब्ध करवाना राज्य का संवैधानिक दायित्व है।
लेकिन शिक्षा के सौदागर कहां थकने वाले थेउन्नीकृष्णन बनाम आन्ध्र प्रदेष (1993) 4scc645 के मामले में निजी कालेज संचालकों ने न्यायालय से मोहिनी जैन मामले में अदालत द्वारा दिये गये फैसले पर पुर्नविचार के लिए आवेदन दिया। जिसमें उनका ’’तर्क’’ था कि उक्त निर्णय को लागू किया गया तो उनको अपने कालेज बंद करने पड़ेंगे (जैसे उनका कालेज चलना कानून और संविधान से बड़ा हो)।

इस मामले में ’’विद्वान न्यायमूर्तियों’’ ने बीच का रास्ता निकालाउन्होंने षिक्षा को मूल अधिकार माना लेकिन इसे 14 साल तक के बच्चों तक सीमित करते हुये कहा कि उच्च षिक्षा के संबंध में यह राज्य के आर्थिक क्षमता पर निर्भर करेगायानी सांप भी मर जाये और लाठी भी नहीं टूटे
निःशुल्क  एवं अनिवार्य बाल षिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 एक अप्रैल से देश  में लागू हो गया है। हालाकि 1 अप्रैल को दुनिया मूर्ख दिवस मनाती हैकहीं हमारी सरकार ने भी इस तारीख को देश  की जनता को मूर्ख बनाने के लिए तो नहीं चुना है?

अगर इस अधिनियम को बारीकी से निरीक्षण करें तथा इसे लागू कराने के लिए जमीनी तैयारियों को देखें तो ’’मूर्ख दिवस’’ वाला शक सही जान पड़ता है। अधिनियम कहता है कि 6 से 14 वर्ष के प्रत्येक बच्चे को मुफत’ एवं गुणवत्तापूर्ण’ षिक्षा दी जायेगी। परंतु कैसे?

देश  के ज्यादातर सरकारी स्कूलों में बच्चों के अनुपात में क्लास रूम की कमी हैज्यादातर विद्यालयों को 2 से तीन पारियों में चलाया जा रहा हैज्यादातर स्कूल भवन जर्जर अवस्था में हैंदेश  के ग्रामीण क्षेत्रों में कई ऐसे गांव है जहां दूर-दूर तक विद्यालय नहीं है। निजी विद्यालयों का जाल अब गांव-गांव तक फैल रहा है जिनका अंतिम लक्ष्य मुनाफा कमाना हैअधिनियम केवल कुछ पाठयपुस्तकों व पत्र पत्रिकाओं को एक अच्छा पुस्तकालय बताता है लेकिन इसमे मौजूदा समय के साथ चलने की बुनियादी जरूरतों जैसे कम्प्यूटरइंटरनेट आदि सुविधाओं की बात नहीं की गयी हैं। दूसरी तरफ यह अधिनियम कुल शिक्षक पदों में से 10 प्रतिशत पद खाली रखने की छूट भी प्रदान करता हैलेकिन अगर 10 प्रतिषत शिक्षकों  का पद खाली रहा है तो इसका खामियाजा छात्रों को ही भुगतना पड़ेगा।

पूर्व प्राथमिक शिक्षा को भी इस अधिनियम में स्थान नहीं दिया गया हैजबकि देश के करोड़ों बच्चों को इसकी आधारभूत जरूरत है। भारत में बड़ी संख्या में बच्चें बाल मजदूर का काम कर रहे हैइस अधिनियम में  इन बच्चों के पुर्नवास व शिक्षा  की कोई व्यवस्था नहीं की गई है।
विकलांग बच्चों को षिक्षा उपलब्ध कराने के सम्बंध में भी अधिनियम मौन है !विकलांग बच्चों को षिक्षा उपलब्ध कराने संबंधी अधिनियम में ’’अक्षमता की परिभाषा’’ ’’व्यक्ति अक्षमता अधिनियम 1995’’ के अनुसार मानी गई हैजो कि ’’राष्ट्रीय न्यास अधिनियम-1999’’ द्वारा बतायी गई ’’अक्षमता’’ की परिभाषा के शर्तो को पूरा नहीं करती है।

लेकिन सबसे बड़ी चुनौती तो इस अधिनियम के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिष्चित करने की है। राज्यों की सरकारे हमेशा   की तरह इसके लिए भी धनाभाव का राग अलाप रही हैहालांकि केन्द्र सरकार 65 प्रतिषत खर्च उठाने को तैयार है लेकिन 35 प्रतिशत राषि कहां से आयेगी?

प्राइवेट स्कूलों को अभी से ही घाटे की चिंता सताने लगी हैंभोपाल के प्राइवेट स्कूल संचालकों का कहना है कि गरीब वर्ग के बच्चों के लिए सरकार द्वारा जो राशि उन्हें दी जायेगी वह न के बराबर होगीइसलिए गरीब बच्चों को पढ़ाने से उन्हें उनके ’’व्यवसाय’’ में घाटा उठाना पड़ेगादूसरी तरफ प्रदेश  के सरकारी स्कूलों की हालत के बारे में मध्यप्रदेश के स्कूली विभाग का ताजा सर्वे ही यह बता रहा है कि प्रदेश  के साढ़े चौदह हजार सरकारी प्राइमरी स्कूल एक-एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं यही हालत प्रदेश  के 1996 मिडिल स्कूलों की भी है।            इन प्राइमरी और मिडिल स्कूलों में क्रमषः 22 लाख और पांच लाख से ज्यादा बच्चे अध्ययनरत है। ऐसी परिस्थितियों में कैसे मिलेगी समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ?

शिक्षा  से वंचित बच्चों को शिक्षित  करना सभी लोकतांत्रिक सरकारों का दायित्व और बच्चों का हक होता है। लेकिन आजादी के 60 सालों से ज्यादा समय बीत जाने के बावजूद देश  की व्यवस्था और सरकारेंबच्चों को उनका यह अनिवार्य हक देने में नाकारा साबित हुई हैं।
बहरहाल शिक्षा  का अधिकार अधिनियम 2009 को भारत में निःषुल्कगुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्ति के सफर में एक  पड़ाव माना जा सकता है। अगर हम इसे जमीनी स्तर पर लागू कराने में कामयाब हो जाते हैं तो यह पड़ाव के  अगले सफर की नीव साबित हो सकती है।

यह कानून सरकार से शिक्षा  के हक मांगने के लिए जनता के हाथ में एक हथियार मुहैया कराता है। इस अधिनियम के अधीन बच्चों के शिक्षा  के अधिकार को सुनिष्चत करने के लिए राष्ट्रीय व राज्य कमीशन को भी पर्याप्त अधिकार प्रदान किये गये हैसाथ ही साथ बच्चों की शिक्षा  सम्बन्धी किसी भी शिकायत  के लिए अधिकारितायुक्त स्थानीय प्राधिकरण की भी व्यवस्था की गयी है।

यह अधिनियम इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारे देश  में बच्चों की इतनी बड़ी संख्या को प्रभावित करने वाला यह एक मात्र अधिनियम है। उम्मीद कर सकते है कि इस अधिनियम के जमीनी स्तर पर ठोस रूप से लागू करने तथा भारत के सभी बच्चों को निःषुल्कगुणवत्तापूर्णऔर भेदभाव रहित शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए लड़ाई एक साथ आगे बढ़ेगी तथा इस अंतहीन सफर को अपना मुकम्मल मुकाम हासिल होगा।

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