हज-ईद अल अधाह (बकर ईद): एक आलोचनात्मक अध्ययन


शमशाद इलाही अंसारी-टोरोंटोकनैडा  

इस्लाम धर्म के पांच स्थायी फ़र्ज़ों में अंतिम फ़र्ज़ (धार्मिक कर्तव्य)है हज जो इस वर्ष २०११ के ६ नवंबर को सऊदी में मनाया जायेगा और ७ नवंबर को भारत सहित अन्य दक्षिणी ऐशियाई देशों मेंयह दिन सालाना हज का अंतिम दिन होता हैइसे ईद -अलअधाह,ज़ुहाबड़ी ईद भी कहा जाता है यानि कुर्बानी का त्यौहारबलिदान पर्व६३१ में पैगंबर मौहम्मद के नेतृत्व में दसियों हजार मुसलमानों ने मदीने से मक्का की यात्रा कर हज किया थाइस सफ़लहिंसा रहित हज का इस्लामी इतिहास में अपना एक महत्व हैइसी दिन पैगंबर साहब की हिजरत खत्म हुई थीइसी हज के दौरान मक्का के परिसर की सफ़ाई की गयी कोई ३०० बुतों को निकाल फ़ेका गया इस संदेश के साथ कि अल्लाह एक हैइस हिसाब से यह १३८० वां हज है (कुछ एक सालों को छोड़कर जब हज सम्पन्न न हो सका),जाहिर है यह सफ़र कोई नया नहीं एक लंबा समय गुजर चुका है और बीता हुआ हर लम्हा अपने अच्छे बुरे असर पीछे छोड़ जाता है.कोई भी आंदोलन और उसका स्वरुप वही नहीं रहता जैसा  वह अपने प्रारंभ में होइस्लाम भी उससे अछूता नहीं है जिसमें आज की तारीख तक कोई ३८० मत जन्म ले चुके हैंआज हम सिर्फ़ हज और उससे जुडी विद्रूपताओं पर ही चर्चा करेंगे.

हज यात्रा दुनिया भर से शुरु हो कर मक्का में ख़त्म होती हैमक्का में शुरु होने वाले कर्मकाण्ड इस्लामी कलेंण्डर के अंतिम माह दुह अल हिजाह के ८ वें दिन से शुरु होकर १२वें दिन को समाप्त होते हैंअधिकतर मुसलमानों को यह भ्रांति है कि हज सिर्फ़ इस्लामी पर्व हैयह सालाना समारोह मक्का में इस्लाम के उदभव पूर्व हजारों साल से होता आ रहा है जिसमें इसाई और विभिन्न पगान अरब समुदाय अपने-अपने ईष्ट देवता की मूर्ति समक्ष शिरकत करते आ रहे थेइसी धार्मिक जमावडे के चलते न केवल मक्का उक्त भूभाग का एक प्रमुख व्यवसाय केन्द्र बना बल्कि चढ़ावे के रुप में भारी रकम हर साल मक्का में जमा होती जिस पर पैगंबर मौहम्मद के कबीले का पुश्तैनी कब्ज़ा थाहज से जुडी एक पुरानी कथा हैजिसे इस्लाम में बडे कायदे से सजा लिया गया हैकथा के मुताबिक ईसा से २००० पूर्व पैगंबर इब्राहम की खुदा ने परीक्षा ली और उनके इकलौते बेटे इस्माईल को भेंट में मांग लिया,इब्राहीम अपने इकलौते बेटे को कुर्बान करने को तैय्यार हो गये और उसका गला काटने ही वाले थे कि उन्हें तत्कालीन परमात्मा ने बता दिया कि यह एक परीक्षा थी जिसमें वह उत्तीर्ण हो गये है लिहाजा उन्हें भेड़बकरी,मेंढे इत्यादि जैसे विकल्प दिये गये कि बेटे की जगह आप इन पशुओं का वध करके बलिदान कर सकते हैंयह सिलसिला तभी से चला आ रहा है न कि ६३१ ई० सेएक अन्य कथा के मुताबिक इब्राहीम के इसी नवजात पुत्र इस्माईल द्वारा अपनी ऐढी जमीन पर पटकने के कारण मक्का में जल स्रोत बना जिसे आबे ज़मज़म के नाम से जाना जाता हैइन घटनाओं का जिक्र यहूदी और इसाई धर्म ग्रंथो में है जिसे कुरान शरीफ़ में भी दोहरा दिया गया है.

ईष्ट देव को खुश करने के लिये पशुओं का वध करना सिर्फ़ इस्लाम तक महदूद नहीं हैग्रीकरोमन,यहूदीईसाई और अन्य ओरियटल धर्मों में पशुवध सामान्य रुप से प्रचलित हैमुसलमानों में इसे कुर्बानी कहा जाता हैयह शब्द हीब्रू भाषा के शब्द कोर्बान से आया है जिसका अर्थ है चढावायहूदियों के धर्मस्थल पर बाकायदा कुबार्नी दी जाती थीविडंबना यह है कि इस्लाम अपने समय से पहले के समय को दौरे जाहिलिया घोषित करता है लेकिन इसी जहालत के दौर की हज जैसी न जाने और कितने किस्से कहानियां नये सिरे से गढ़ कर जनता को परोसने से नहीं चूकताजाहिर है इस्लाम के इस अंतिम फ़र्ज को लागू करने में राजनीतिक और आर्थिक कारण अधिक प्रभावी थे और है जिन्हें मात्र धर्म और कर्मकाण्ड की चादर तले ढक दिया गया हैइस सालाना मेले के बूते मक्का और मदीने की अर्थव्यवस्था  पिछले १४०० साल से चल रही है इन शहरों को भूख से मुक्ति का यह पैगंबर मुहम्मद द्वारा दिया गया सबसे बडा वरदान हैइन दोनों जगह के ऊपर नियंत्रण करने के संघर्षों को देख कर यही स्थापित होता है कि यह प्रसंग शुद्ध रूप से आर्थिक राजनैतिक था और आज भी हैआज राजा सऊद खानदान ने इसे एक बेहतर पर्यटन उद्योग की तरह विकसित किया है और अरबों डालर खर्च करके इन धार्मिक स्थलों का आधुनिकीकरण भी किया हैकई ऐतिहासिक धरोहरों (तुर्की किलाको गिरा कर सात सितारे होटल और चकाचौंध कर देने वाले शापिंग माल खोल दिये गये हैं,होटलों में हर  नस्ल की लडकियों द्वारा वैश्यावृति की सेवायें उपलब्ध हैंखास लोगों को शराब भी मिल जाती है.

उपरोक्त भूमिका के मद्देनज़र अब मुख्य प्रश्न पर चर्चा करना सरल होगाक्योंकि पाठकगण इसके बिना इस मौजू पर कोई राय बनाने में थोड़ा समय लेतेहज के अंतिम पडाव पर हर व्यक्ति को कुर्बानी देना अनिवार्य हैजिसे वह वहां भेड़बकरीमेंढे़ऊँट,गायभैंस आदि खरीद कर देताइस वर्ष दुनिया भर से कोई ३० लाख लोगों द्वारा हज करने के इमकान हैंइस संख्या से आप वहां होने वाले रक्तपात का अनुमान लगा सकते हैंव्यवहारिक कर्मकाण्ड की विद्रूपता यह है कि मक्का में कुर्बानी करने वाला हाजी इस पशु का गोश्त खा ही नही पाताबस सुन्नत के नाम पर गुर्देकलेजी निकाल कर पका ली जाती हैं और बाकी गोश्त सरकार की चैरिटी को दान कर दिया जाता है जिसे कहा जाता है कि गरीब मुल्कों में भेजा जाता हैध्यान रहे यह व्यवस्था ८-१० साल पहले तक नहीं थी..तब यह तमाम गोश्त रेगिस्तान में दफ़ना दिया जाता था.

पैगंबर के ज़मानें में पशुवध इस लिये जायज़ हो सकता था कि इस पर्व के दौरान हजारों गरीब गुर्बों को इस बहाने खाने को गोश्त मिल जाता (दूसरे पशुपालन का काम करने वाली जातियों के पशु हर साल अच्छी कीमतों में बिक जातेजो आज भी चालू हैक्योंकि कुल गोश्त को तीन हिस्सों में बाँटतेएक हिस्सा घरदूसरा खानदान और तीसरा हिस्सा गरीबों कालेकिन जब कर्मकाण्ड चेतना पर कब्ज़ा कर ले तब कोई कूढमगज़ ही पशु की कुर्बानी उसके गोश्त को दबाने के लिये करेगाहाजियों की बडी संख्या कुर्बानी के इस कर्मकाण्ड को बजाये मक्का के अपने गृह राज्य में भी करने लगी हैंलेकिन फ़िर भीमक्का में होने वाले इस विश्व के सबसे बडे पशुवध मेले को आज की परिस्थितियों में स्वीकार किया जाना एक मुजरिमाना कार्यवाही हैन केवल संवेदना के स्तर पर बल्कि दुनिया भर में इतनी बडी खाद्य सामग्री के अपमान के कारण भी इस पर तत्काल प्रतिबंध लगे और कुर्बानी करने वाले धर्मभीरुओं को दुनिया का वह हिस्सा दिखाया जाना चाहिये जहां अकाल पडा है और अरबों लोगों के पास खाना ही नहीं पीने का पानी भी नसीब नहीं है,जब एक अरब इंसान इस पृथ्वी पर भूखा हो तब ३० लाख आदमी मक्का में कुर्बानी कर के अपने गुनाहों की माफ़ी मांगता हैहै न विडंबना..इंसान की भी और उसके इश्वर की भीधर्म अगर एक घंधा न बन गया होता तो यही हाजी और उनका हज संचालन करवाने वाले राजाक्या इस गोश्त का निर्यात पिछले ४०-५० साल से इथियोपियासोमालियासूडानकांगोंबांगलादेश जैसे देशों में नहीं कर सकतेक्या अब तक सऊदी अरब के आस पास के देशों की भूख की समस्या हल नहीं हो गयी होतीक्या यह जरुरी है कि पशुओं की कुर्बानी दी जाये...क्या इस पशु के मूल्य के बराबर पानी,दवाखाद्यान्न आदि नहीं भेजा जा सकताआज दुनिया इतनी छोटी बन चुकी है अगर इच्छा शक्ति होसंवेदना होपरोपकार की भावना हो तो बहुत से विकल्प हैं लेकिन कुरान शरीफ़ के अंतिम सत्य से आगे देखने का साहस कौन करे?

मक्का में हज के अतिरिक्त पूरी दुनिया के करीब १.५ अरब मुसलमान इस पर्व पर अपनी हैसियत के मुताबिक कुर्बानी जरुर करते हैभारत जैसे मुल्क में इस कुर्बानी का न कोई धार्मिक अर्थ रह गया है न गरीबों के प्रति किसी संवेदना कातीन दिन तक जी भर कर जानवर काटे जाते और कुर्बानी करने वाले घरों में गोश्त इतना इकट्ठा हो जाता कि उसे रखने की जगह न रहतीकुर्बानी करने वाले परिवार ही आपस में एक दूसरे के घरों से आने वाले गोश्त का विनिमय करते रहते और जिन्हें इस गोश्त की वाकई जरुरत होती वह फ़िर भी इससे महरुम ही रहतेबलि दिये गये जानवरों की खालों को आमतौर पर मदरसों-मस्जिदों को दान कर दिया जाता जिसे वह बाज़ार भावों के मुताबिक बेच कर पैसा कमातेहफ़्ते दस दिन तक मुल्लाह-इमाम-हाफ़िज की दाढि़याँ सालन की चिकनाई में तर रहतीउन्हें लगता कि देखों इस्लाम अपने उरुज़ की तरफ़ किस कदर तेज़ी से बढ़ रहा हैनव धनाढ्य मुस्लिम कई लाख-लाख रुपये का बकरा खरीद कर उसकी कुर्बानी करके समाज में अपने रुतबे का फ़ाहशी दिखावा करेंगे और न कोई मुल्लाह बोलेगा न कोई इमाम.

मुस्लिम मज़हबी नेतृत्व अपनी आत्ममुग्धता और सर्वश्रेठवादी विचार के चलते लगभग अंधा हो चुका हैजिस वर्ग के विश्वास को संचालित करने की डोर १४०० वर्ष पुरानी सोच हो उससे भला यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि मुसमानों के इस व्यवहार का इस पृथ्वी के पर्यावरण और अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड रहा है?एक अनुमान के मुताबिक बंगलादेश जैसे गरीब देश से धनपति एक लाख मुसलमान इस वर्ष हज और कुर्बानी करने के लिये लगभब ५० करोड अमेरिकी डालर खर्च कर के अपने देश के अमूल्य संसाधनों को नष्ट कर के और गरीबी की दलदल में धंस जायेगाहर वर्ष २ से ३ अरब डालर हज पर खर्च किये जाते हैं..अभी वक्त आ गया है कि मुस्लिम समाज इन सभी सवालों पर कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन करेआखिर इन पंक्तियों के लेखक ने अपने अल्प जीवन में ही १९७५-७६ में दस रुपये प्रति किलो बकरे के गोश्त५ रु० किलो भैंस/कटडे का२०-२५ रु० की मुर्गी खरीदी है जो आज क्रमश:३००.००/१००.००/१५०.०० प्रति किलो पहुंच गया है क्योंक्या सिर्फ़ इसके लिये मुद्रा स्फ़ीति ही जिम्मेदार है२५ साल पहले मुर्गी का गोश्त सबसे मंहगा था जो आज उसी अनुपात के अनुसार सबसे महंगा होना चाहिये थालेकिन ऐसा इसलिये नहीं हुआ क्योंकि पोल्ट्री फ़ार्म्स के आने से उसकी सप्लाई बढ गयी...आज पशुपालन के क्षेत्र में भारत बहुत पिछडता जा रहा है जिसका प्रमुख कारण है कि इसे खाने वालों का अनुपातपालने वालों से अधिक बढाइसी कारण दूध के मूल्यों में भी बेहताशा वृद्धि पिछले २० वर्षों में ही हुई हैक्यों नहीं आज कोई फ़तवा दिया जाता कि एक बकरा वही काटे जो पहले पांच बकरे पालेभैंस को पालने वाला ही उसके कटडे को कुर्बानी दे सकने का हकदार होक्यों नहीं कुर्बानी के बराबर धनराशी का इस्तेमाल शिक्षा फ़ण्ड बना कर किया जा सकताक्यों नहीं एक इमाम हर  साल इसी एकत्रित धन से कोई इंजीनियरिंग अथवा वोकेशनल कालेज का उदघाटन कर सकताआठ-आठ,दस-दस बार उमरा और हज करने वाले अपनी मुक्ति के लिये जितने आतुर दिखाई देते हैं,वह अपने आस-पास के समाज और उनसे जुडी समस्यायें के प्रति उतने ही अंधे क्यों हैंक्यों धार्मिक नेतृत्व उन पर प्रतिबंध लगाताक्यों न यह हर साल बर्बाद होने वाला पैसा समाज से गरीबी और अशिक्षा मिटाने के लिये किया जायेक्या परलोकवादी इस्लाम से इस लोक के प्रश्न और उनके समाधान प्रस्तुत करने की दिशा में कोई उम्मीद की जानी चाहिये?क्या उन्हें यह बताने की जरुरत है कि इस त्यौहार के सात दिनों के बाद कोई गैर मुस्लिम मुसलमानों के गली मौहल्लों से बिना मुंह पर कपडा बांधे नहीं गुजर सकताक्या इस त्यौहार पर जिस तरह गलियों मेंनालियों में पशुओं का खून बहाया जाता है वह किसी शिष्ट संस्कृति का परिचायक हैक्या छोटे-छोटे मासूम बच्चों के सामने उसके बाप द्वारा बकरे,गायभैंस के गले पर छुरी फ़ेरना,उनका अनुकूलन करना नहीं हैक्या इस महीमा मंडित हिंसा को देखने वाले बाल ह्र्दय में हम कूट-कूट कर हिंसा नहीं भर देतेक्या यही धर्म हैयही आध्यात्मवाद हैहो सकता है इसकी जरुरत १४०० वर्ष पहले होलेकिन क्या आज भी इस मानसिक अत्याचार की कोई आवश्यकता है?

अभी समय आ गया है कि मुस्लिम समाज बलिदान को वास्तविक अर्थों में समझ लेबलिदान दें अपने आडंबरों काबलिदान दें अपनी मूढ़ता को त्याग करबलिदान करें अपने समाज में व्याप्त जातिवाद को त्याग करकुर्बानी ही देनी है तो दहेज न लेन दें जिसका कैंसर पूरे समाज को खा रहा है...नेता भी चुप है और मुल्लाह भीबलिदान करें- गरीब घरों में अपने बच्चों की शादी करकेबलिदान करें..किसी गरीब के बच्चे को शिक्षा दिला कर,बलिदान करें किसी चलते हुए शिक्षण संस्थान में दान करके,बलिदान करेंअपने पर्यावरण की हिफ़ाज़त करकेबलिदान करें अपने आस पडौस में सफ़ाई करकेकुर्बादी देनी है तब पशु की कीमत के बराबर अपने आस पडौस में पेड़ लगा दें/किसी बीमार को दवा ला दें/किसी अनाथालय अथवा वृद्धाश्रम में दान दे देंबलिदान करें इस समाज को शोषण से मुक्त करकेबलिदान करें अमन,भाई चारे को कायम करके..करने के लिये इतना कुछ है कि कई जीवन चाहियेंलेकिन जिन्हें सिर्फ़ जन्नत और हूरों के ख्वाब का चश्मा जन्म से मृत्यु तक चढा दिया जाता होवह इन सब मूल्यों के प्रति न केवल निष्पृह जो जाते है बल्कि अपने आने वाली पीढियों को भी एक अभूतपूर्व अंधकार में वह ढकेल जाते हैं.. जाते जाते सिर्फ़ कर्मकाण्ड और दिखावे की चुस्की उनके मुंह में लगी छोड़ देते हैंइसी चुस्की को जाने वाला स्वंय जीवन भर चूसता रहता और इसी को आने वाले के मुंह में छोड़ जाता है...क्या यह सिलसिला कभी टूटेगाक्या सिर्फ़ अपनी मुक्ति चाहने वाला  यह समाज  लगातार बढ़ रहे  विद्रूपताओं के कोढ़ से खुद को और समाज को मुक्त कर पायेगा








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