महामारियों का राजनैतिक -अर्थशास़्त्र


स्वदेश कुमार सिन्हा
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फ्रेंच उपन्यासकार अल्बेयर कामू के मशहूर उपन्यास ’’प्लेग ’’ में  सन् 40 के दशक में  दक्षिणी प्रान्त के एक बन्दरगाह नगर में  प्लेग महामारी के फॅैलने तथा उससे हो रही  मौतो का जो भयानक चित्रण किया गया है , उसे पढ़कर आज भी रोगटे खड़े हो जाते हैं । चूहो की तरह मरते इन्सानो के ढेर उसके बीच डाक्टरो और इन्सानो की मानवीयता और अमानवीयता। तत्कालीन समय का विश्व साहित्य यात्रा वृतान्त और समाचार पत्र प्लेग के वृतान्तो से भरे पड़े हैं । अकेले इस महामारी से दो शताब्दियों  में सारे विश्व में दस करोड़ से भी ज्यादा मौतो का अनुमान है।

चिकित्सा विज्ञान की भारी प्रगति तथा नये नये अनुसंन्धानो के बाद साठ के दशक में यह मान लिया गया कि हमने प्लेग के खिलाफ जंग जीत ली है। प्लेग के अलावा अनेक मच्छरजनित रोग जैसे मलेरिया , डेंगू , इनसेफिलाईटिस जैसे रोग अब इतिहास के अंग बन गये है । एक पीढ़ी पहले तक जनस्वास्थ्य के विशेषज्ञो की यह आम राय थी कि संक्रामक रोगो को हम पराजित कर चुके हैं  , अब इससे मृत्यु दर में कमी आयेगी। यहाँ  तक कि चिकित्सा विज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थियों से यह कहा जाने लगा कि अब प्लेग जैसे संक्रामक रोगो में विशेषज्ञता हासिल करने की जरूरत नही है। लेकिन समय के साथ यह बातें असत्य सिद्ध हो गयी। दो दशक पहले गुजरात के सूरत में एकाएक भयानक ब्याबूनिक प्लेग फैला तथा पलक झपकते उसने सैकड़ो लोगो की जाने ले ली। ऐसा लगा जैसा इतिहास का पहिया दो शताब्दी पीछे घूमने लगा। खास बात यह है कि प्लेग पहले सूरत के उन इलाको में फैला जहाँ  प्रवासी मजदूरो की भारी आबादी रहती थी। विशेषज्ञो का कहना था कि इन इलाको में फैली भयानक गन्दगी तथा जीवन के लिए अस्वस्थ्यकर वातावरण इसके फैलाव तथा प्रसार का प्रमुख कारण बना। 

इसके बाद भी यह महामारी अफ्रीका , एशिया के अनेक देशो में  भयानक रूप से फैली तथा इसने सैकड़ो जाने ली। मच्छरजनित महामारियां मलेरिया डेगॅू ,इनसेफिलाईटिस कालाजर  जैसे रोग पुनः फैलने लगे। अकेले मलेरिया प्रतिवर्ष हजारो की जाने ले लेता है। सन् 2006 में  दिल्ली में  डेगूं ने महामारी का रूप ले लिया। साठ से अधिक लोगो की मौते हो गयी। अकेले दिल्ली में  इस वर्ष तक 2500 डेगूॅ के केस मिल चुके हैं । मच्छर जनित एक और रोग जापानी इनसेफिलाईटिस जापान सहित सुदुर पूर्व और दक्षिण पूर्व के अनेक देशो में काफी पहले से विद्यमान था। परन्तु इन देशो में  ब्यापक टीकाकरण करके 1958 तक इस पर काबू पा लिया गया। नई पीढ़ी ने तो इसका नाम तक नही सुना था। परन्तु 1978 में  यह रोग पूर्वी उ0प्र0 में  महामारी की तरह फैला। पैतीस वर्षो से आज भी इस रोग से पूर्वान्चल में बड़ी संख्या में  मौते हो रही हैं । 2014 तक इस रोग के अकेले 35000 मरीज गोरखपुर मेडिकल कालेज में भर्ती हुए। जिसमें 8000 की मौते हो गयी। इससे कई गुना लोग जीवन भर के लिए विकलांग हो गये।

अब तो इसे सिर्फ पूर्वान्चल की महामारी भी कहना ठीक नही होगा क्योकि इसका प्रसार देश के 19 राज्यों के 171 जिलो में हो चुका है। अभी हाल के वर्षो में इसकी एक भिन्न किस्म जल जनित इनसेफिलाईटिस का पता लगा है। जिसके विषाणु(वायरस) गन्दे पानी के सेवन से मनुष्यों में फैलते हैं । इनके विषाणुओ के संरचना के  बारे में अभी कोई विशेष जानकारी नही है। इसलिए इसकी वैक्सीन भी विकसित नही हो पायी है। 2009 में  पूरी दुनिया  में स्वाइन फ्लू का हंगामा मचा। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे महामारी घोषित कर दिया। मूलरूप से इसके विषाणु (वायरस) स्वाश के जरिये मनुष्यों में प्रवेश करते है । इस महामारी से 2009 में देश भर में 981 मौते हुई। फरवरी 2015 तक देश में  14673 लोग इससे प्रभावित हुए। जिसमें से करीब 441 लोगो की मौत हो गयी। करीब -करीब सारे विश्व में  यह महामारी समय-समय पर फैलती रहती है।

  पुराने संक्रामक रोगो का प्रसार तथा नये लोगो का फैलना केवल भारत में  ही नही सम्पूर्ण एशिया , अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के गरीब मुल्को में  तेजी से हो रहा है। 1961 में इण्डोनेशिया के भीतर देश ब्यापी हैजा फैला 1970 तक आते आते यह अफ्रीका पहुॅचा तथा 90 के दशक तक यह अमेरिका तक पहुॅच गया। विश्व के ढेरो देशो में  टी0बी0 (क्षय रोग) आज भी मृत्यु दर का बड़ा कारण बनी है। इसके साथ इबोला ,एडस् पूर्वोत्तर भारत में फैला लाईम ज्वर जैसी बीमारियां  भारी पैमाने पर फैल रही है । भारत में तो चेचक, पीलिया , पेचिस से आज भी हजारो लोग प्रतिवर्ष मौत के मुंह  में समा रहे हैं ।

   असल में  जन - स्वास्थ्य के पैरोकारो की सोच सीमा थोड़ी सतही ही है। अगर उन्होने एक या दो शताब्दियों केा देखने के बजाय मानव इतिहास के लम्बे समय को देखा होता तो उनके सामने तस्वीर कुछ दूसरी होती। प्लेग (काली मौत) का पहला माना हुआ विस्फोट यूरोप में सम्राट जुस्तियन के काल में तब हुआ जब रोमन सम्राट का पतन हो रहा था। दूसरा प्लेग चैदहवी सदी के यूरोप में सामन्तवाद के संकट के दौरान फैला। सत्रहवी शताब्दी के उत्तरी इटली में फैला ब्यापक रोग उस काल के वंशीय युद्धो के कारण पैदा हुए जो विस्थापन एवं भुखमरी के नतीजे थे। सबसे बड़ी ज्ञात महामारी अमेरिका पर यूरोपीय कब्जे के दौरान फैली जो अति परिश्रम , भूख तथा कत्लेआम के नतीजे थे। जिससे अमेरिकी मूल निवासियों की संख्या 90 प्रतिशत तक कम हो गयी थी। नये शहरो में फैली महामारियां  औद्योगिक क्रान्ति का नतीजा थी। जिसे ’’एगेल्स’’ ने The condition of working class in England (इंग्लैण्ड में मजदूर वर्ग की दशा) में  मानचेस्टर के सन्दर्भ में लिखा था। 

इस संबंध में  अगर भारत की स्थिति की तुलना करें तो उनकी बात सत्य प्रतीत होती है। नब्बे के दशक में  कथित नव उदारवादी नीति लागू होने के बाद बड़े पैमाने पर गाॅवो तथा छोटे शहरो में लघु उद्योग धन्धे और व्यापार नष्ट हो गये। विशेष रूप से कानपुर जैसे उद्योग केन्द्रो में  टेक्सटाइल्स उद्योग पूर्णतः तबाह हो गया। यद्यपि यह प्रवृत्ति काफी पहले से विद्यमान थी। परनतु 90 के बाद इसमें काफी तेजी आयीं। क्योकि सारे उद्योग व्यापार का केन्द्रीयकरण बड़े -बड़े महानगरो की ओर होने लगा। बुनकर, किसान छोटे दस्तकार , लघु उद्योग कर्मी बरबाद होकर मजदूरो में बदल गये तथा उनका भारी पलायन दिल्ली , बम्बई , सूरत , अहमदाबाद , बंगलौर जैसे महानगरो के ओर होने लगा। इन शहरो में बढ़ता हुआ जनसंख्या का बोझ बड़े-बड़े स्लम झोपड़ पट्टियों  में लाखो लोगो का निवास वहां  का अस्वास्थ्यकर वातावरण गन्दगी का भारी जमाव दूषित पेयजल यह सब भारी पैमाने पर संक्रामक रेागो के प्रसार का कारण बना। कम आमदनी तथा वेतन के फलस्वरूप महिलाओ तथा पुरूषो में भारी कुपोषण भी इसका एक कारण था। दिल्ली में डेगूॅ का  तथा सूरत में प्लेग का फैलना भी इसी अराजक विकास के नतीजे के रूप में देखा जाना चाहिए।

संक्रामक रोगो के फैलाव व प्रसार के रोकथाम में  प्रतिवर्ष अरबो डालर कमाने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियों  के रूख की पड़ताल अफ्रीका में फैले इबोला वायरस के उपचार के बारे में इनके दृष्टिकोण से पता चलता है। इबोला का राजनैतिक अर्थशास्त्र’ , नामक लेख में अमेरिकी स्वास्थ्य विज्ञानी तथा सामाजिक कार्यकता्र ’’ले फिलिप्स’’ लिखते हैं  इबोला की समस्या का समाधान सिर्फ इसलिए नही किया जा रहा है क्योकिइसके समाधान में  लाभ की कोई गुंजाइश नही है। 1976 में  जब से इबोला की पहचान हुयी है तब से लेकर अब तक लगभग 2400 मौते हो चुकी है। बड़ी दवा कम्पनियां  जानती हैं  कि इबोला से युद्ध का बाजार सीमित है। उसके इलाज व शोध का खर्च बहुत ज्यादा है। यदि सिर्फ आॅकड़ो की बात की जाये और यह शायद ठीक भी हो तो कुछ लोग इस रोग पर इतनी अधिक चर्चा के इसलिए खिलाफ हो सकते हैं कि ऐसे रोगो पर ध्यान दिया जा रहा है जिसमें  मौते कम हुई हैं । उदाहरण के रूप में  इबोला प्रकरण के प्रकाश में आने से लेकर अब तक मलेरिया से 3 लाख , टी0बी0(क्षय रोग) से 5 लाख मौते हो चुकी है । फिर भी दवा कम्पनियां  इन रोगो या इसी तरह की अन्य रोगो का इलाज ढूढने में यदि कोई रूचि नही ले रही है  तो इसके पीछे भी आर्थिक कारण ही है। इग्लेैण्ड के जनस्वास्थ्य अध्यक्ष जान अश्टनने इन्डिपेन्डेन्टअखबार में दवा उद्योग की ऐसी दवाओ के उत्पादन में  इस आधार पर अरूचि दिखाने की कि बहुत कम लोग इससे प्रभावित होते हैं । इन पर धन खर्च करना तर्क संगत नही है, भत्र्सना करते हुए लिखा किसी अचार संहिता या सामाजिक ढ़ाचे के अभाव में वर्तमान पूँजीवाद का यह नैतिक दिवालियापन है। 

यह स्थिति अकेले इबोला की नही पिछले तीस वर्षो से बड़ी कम्पनियां  एन्टीबायोटिक्स की नयी पीढ़ी को विकसित करने की दिशा में कोई काम नही कर रही है । इसका कारण नयी खोजो पर निर्भर चिकित्सको को भय है कि अगले बीस सालो में हम अक्सर होने वाले संक्रमणो पर प्रभावशाली दवाओ से वंचित हो जायेंगे। क्योकि 1940 के बाद प्रयोग की जा रही बहुत सारी डाक्टरी तकनीक ओैर स्वास्थ्य सेवाओ में अन्य सभी काल एन्टीमाइक्रोबल सुरक्षा पद्धति पर आधारित है। इस अवधि में  मनुष्य की औसत अयु में  वृद्धि के अन्य बहुत से कारक हो सकते हैे। परन्तु एन्टीबायोटिक्स के  बिना इसकी संभावना एकदम असंभव थी। इसके आविष्कार से पहले मृत्यु का सबसे प्र्रमुख कारणा वैक्टिरियाई संक्रमण ही हुआ करता था। इसका कारण एकदम स्पष्ट है, दवा कम्पनियां  खुद स्वीकार करती है कि दवा नियंत्रको द्वारा अनुमोदित उन दवाओ पर अरबो डालर प्रति दवा का पूँजी  निवेश करना जिसका प्रयोग मुट्ठी भर लोगो द्वारा किसी विशेष संक्रमण के  समय ही किया जाना है। पहले दर्जे की बेवकूफी है। इन दवाओ पर केाई धनराशि निवेश करने की  तुलना में मधुमेह (डायबिटिज) कैंसर या एडस जैसी क्रानिक बीमारियों की दवाओ के विकास में  उसी धनराशि को निवेश करना अधिक लाभ का सौदा है। क्योकि इनका प्रयोग रोगी को प्रतिदिन और प्रायः सारी जिन्दगी करना पड़ता है। एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका जैसे विकसित देश में भी प्रतिवर्ष लगभग 20 लाख लोग एन्टिबायटिक रोधी वैक्टिरिया की चपेट में  आते हैं । इनमें से 23 हजार की मृत्यु हो जाती है।

वैक्सीन के विकास के सिलसिले में भी ऐसी स्थिति दिखलाई पड़ती है जैसे कि लोगो को दमा या मधुमेह डायबिटिज की दवायें दसियों  साल लेनी पड़ती है जबकि वैक्सीन की जरूरत पूरे जीवन में सिर्फ एक या दो बार ही पड़ेगी। कई दवा कम्पनियो ने दशको से वैक्सीन के शोध के अलावा इनका उत्पादन भी रोक दिया है। इसलिए आज सारे विश्व में  बच्चो के लिए वैक्सीन की भारी कमी हो गयी है। समाजवादी तथा वामपंथी लोग जब पूँजीवाद में उत्पादन की शक्तियों  के विकास के विनाश होने की बात करते हैं तो इसका ठीक - ठाक मतलब यही होता है। बड़ी दवा कम्पनियां  उष्ण कटिबन्धीय देशो में फैली महामारियों में वैक्सीन ,एण्टीबायटिक के अनुसंधान को नकार रही है यह अनैतिक तथा अन्यायपूर्ण है ही महत्वपूर्ण बात यह भी है कि मानव जाति के लाभ और मानव स्वतन्त्रता के अधिकार के विस्तार के लिए जो उत्पाद और सेवायें लाभकारी हो सकती है। वे स्वतंत्र बाजार के मुनाफै की होड़ के चलते ठप है । किसी विशेष वैक्सीन या ड्रग पर ध्यान केन्द्रित करना बहुत मुश्किल है लेकिन एशिया और अफ्रीका में सामान्य स्वास्थ्य एवं बुनियादी ढाॅचे के क्षरण और इबोला जैसे संहारक रोगो के उभार के लिए जिम्मेदार आर्थिक स्थितियों  को दर किनार कर देना ऐसा ही है जैसे छेद वाली डूबती नाव से पानी निकालने के लिए बाल्टी का इस्तेमाल।

 नव उदारवाद का अन्तिम परिणाम महामारियों के फैलने के लिए आदर्श सिद्ध हुए हैं । आज सम्पूर्ण अफ्रीका महाद्वीप प्रत्यक्ष साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों कारपोरेट निगमो के लूट का केन्द्र बना हुआ है। वहां  की प्राकृतिक सम्पदा की लूट में बहुत सी भारतीय बहुराष्ट्रीय कम्पनियां  भी शामिल है । गुयाना , लाइवेरिया  और सियेरा लियोन जहाँ  इबोला तथा अन्य महामारियां  बहुत भयानक रूप से फैल रही है । विश्व के सबसे निर्धन देशो में  से है । इनका स्थान संयुक्त राष्ट्र संघ के 187 देशो में  मानव विकास सूचकांक के क्रमशः 178वाॅ , 174वाॅ और 177 वाॅ है। यदि इस तरह की महामारियां  उत्तरी यूरोपीय देशो खासकर स्वास्थ्य के लिए उत्तम बुनियादी ढाॅचे वाले देशो में फैलती तो स्थिति को सम्हाल लिये जाने की संभावना अत्यधिक होती।

ज्यादातर वैक्टिरिया - विषाणु जनित रोगो की यह आम विशेषता होती है कि इनके प्रसार के लिए जिम्मेदार वैक्टिरिया - विषाणु परिस्थिति और पर्यावरण के अनुसार अपनी संरचना में बदलाव की अदभुत क्षमता रखते हैं । वर्तमान वैक्सीन तथा दवाओ के प्रति वे जल्द ही प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं , इसलिए ऐसी महामारियों के उपचार के लिए सतत् शोध तथा नयी वैक्सीनो तथा दवाओ की आवश्यकता निरन्तर पड़ती रहती है। दुनियां  भर के देशो की सरकारें तथा अरबो -खरबो डालर कमाने वाली बड़ी दवा कम्पनियां  समूचे दवा उद्योग का निजीकरण चाहती हैं । स्वास्थ्य सेवाओ से सरकारे अपना हाथ खीच रही है । बजट में  इस पर किया जाना खर्च निरन्तर घटता जा रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कम्पनियां  तथा शोध संस्थानो को स्वतंत्र बाजार के हवाले किया जा रहा है। आज सिर्फ एक दो रोग के लिए ही नही बल्कि वैक्सीन के विकास नयी पीढ़ी के एन्टिबायोटिक की खोज उष्ण कटिबन्धीय लोगो के प्रति उदासीनता और गरीबी के कारण पैदा होने वाली रोगो के सन्दर्भ में बाजार की असफलता के खिलाफ एक बड़े व अधिक सघन अभियान की जरूरत है। हमें  एक विज्ञान आधारित लम्बी अवधि की महत्वाकांक्षी उपचार सक्रियता की भी जरूरत है।


यह मानव इतिहास की भयानक त्रासदी कही जायेगी कि जब आधुनिक विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान सर्जरी अपने विकास के चरम पर पहुँच  गयी है तब अमेरिका जैसे विकसित देशो में भी आम आदमी को स्वास्थ्य बीमा की जरूरत गम्भीर रोगो के उपचार के लिए पड़ती है। एशिया ,अफ्रीका में महामारियों से प्रतिवर्ष हजारो लोग मौत के मुंह  में  समा रहे हैं । जरूरत इस बात की है कि हम ’’लाभहीन’’ महामारियों के विनाश के लिए ब्यापक अभियान संगठित किया जाये।      

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