लेखकीय प्रतिरोध की सीमायें और सम्भावनायें


स्वदेश कुमार सिन्हा

यदि कोई व्यक्ति सत्य का सामना करने से डरता है तो वह एक घटिया विचारक है, लेकिन इससे घटिया वह है जो सत्य को सामने देखते हुए दुनिया  को बताते हुए डरता है। कि उसने क्या देखा ? सबसे घटिया वह है जो किन्ही ब्यवहारिक फायदो के लिए अपनी दार्शनिक धारणाओ को छिपाता है।

                                      - प्लेखानोव (रूसी माक्र्सवादी विचारक)

Courtesy- http://www.ibnlive.com/


5 सितम्बर 2015 को  दिल्ली में  करीब 25 से 30 जनपक्षधर संगठनो तथा पत्रिकाओ की ओर से कन्नड़ के विद्धान एम0एस0 कुलबुर्गी की हत्या के विरोध  में  जन्तर मन्तर पर एक सभा का आयोजन हुआ जिसमें कलाकार , लेखक ,बुद्धिजीवी ,सांस्कृतिक कार्मी सभी शामिल थे। मै उन दिनो मै दिल्ली में था तथा अस्वस्थ्य था। एक्टिवस्ट लेखक और विचारक तथा अपने मित्र सुभाष गाताडे’ के निमंत्रण पर मै भी उस सभा में भाग लेने पहुंचा । उसी दिन अपनी एक शिष्या से बलात्कार के आरोप में लम्बे समय से जेल में बन्द आसाराम बापूके समर्थको ने उन्हे छोड़ने की मांग  को लेकर जन्तर मन्तर पर एक विशाल प्रदर्शन किया था। उसमें देश भर से करीब 15 से 20 हजार लोग जुटे थे। शाम को 4 बजे जब यह प्रदर्शन समाप्त हो गया तथी हम लोगो की सभा हो सकी। इस सभा में करीब दो सौ से ढाई सौ लोग उपस्थित थे। ज्यादातर छात्र नौजवान तथा सांस्कृतिक कर्मी थे। फादर जान दयाल , सम्पादक और लेखक आनन्द स्वरूप वर्मा, संस्कृतिकर्मी शमशुल इस्लाम और नीलिमा के अलावा युवा कवि ओर लेखक अशोक कुमार पाण्डेय तथा सुभाष गताड़े से ही मेरी मुलाकात हुयी।

आज के दौर में यह आशा करना ब्यर्थ है कि संघ परिवार के फांसीवाद के खिलाफ  देश भर से लेखक ,सांस्कृतिक कर्मी तथ सामाजिक कार्यकर्ता दिल्ली में किसी प्रदर्शन में एकत्र होगे। परन्तु दिल्ली में ही कम से कम दो हजार से तीन हजार लोग प्रगतिशील जीवन दृष्टि वाले हैं ही जो चाहे माक्र्सवादी हो अथवा नही परन्तु वे भाजपा संघ परिवार की उन नीतियों के घोर विरोधी हैं , जो वह इतिहास ,साहित्य,कला,सांस्कृति में कर रही है तथा उसके समर्थक खुलेआम विरोधी विचारो के लोगो की हत्याये कर रहे हैं । प्रो0 एम0एस0 कुलबुर्गी की हत्या से पहले 2013 में हिन्दू कट्टरपंथियों ने ’’अन्धश्रद्धा निर्मलम समिति’’ के तर्कशील लेखक नरेन्द्र दोभोलकर को जान से मारने की धमकी दी थी। फिर पुणे में उनकी हत्या भी कर दी गयी। इसी वर्ष महाराष्ट्र में जानेमाने जूझारू वामपंथी कार्यकर्ता गोविन्द पानसारे की हत्या भी इसी सिलसिले की कड़ी है। यह तीनो प्रगतिशील जन पक्षधर और अन्धविश्वास के प्रखर विरोधी थे। तीनो के हत्यारे आज तक पुलिस की पकड़ से दूर हैं । अभी कुछ दिन पूर्व उत्तर प्रदेश के दादरी में एक मुसलमान वृद्ध बढ़ई की इस अफवाह के बाद पीट-पीट कर हत्या कर दी गई कि गोमांस खा रहा था। बकायदा इसकी घोषणा एक मंदिर से लाउडस्पीकर से की गई।

इन घटनाओ ने बड़े पैमाने पर तर्कशील जनपक्षधर बौद्धिक समुदाय को उद्धेलित किया। परन्तु आश्चर्य की बात यह थी कि इन सब मुद्दो को लेकर दिल्ली में की गयी सभा में केवल 200 से 250 लोग ही मौजूद  थे। अनेक मित्रो ने बताया कि सफदर हाशमी की हत्या के बाद दिल्ली में प्रगतिशील जन पक्षधर लोगो की इतनी बड़ी सभा पहली बार हुयी है। यह भी सत्य है कि दादरी की घटना के बाद लेखको ,सांस्कृतिक कर्मियो ने बड़े पैमाने पर साहित्य अकादमी तथा अन्य सरकारी अकादमियों से मिले पुरस्कारो के वापसी का क्रम शुरू कर दिया। कवि ओर कहानीकार उदयप्रकाश ने सबसे पहले अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार वापिस किया, यद्यपि एक दौर में योगी आदित्यनाथ के हाथे पुरस्कार को लेकर वे काफी विवादित भी रहे थे। हिन्दी लेखको तथा कवियों में अशोक बाजपेयी से लेकर काशीनाथ सिंह , मंगलेश डबराल तक ने अपने अपने पुरस्कार वापस लौटा दिया इसके अलावा अन्य भाषाओ उर्दू ,बंग्ला , कन्न्ड़ ,पंजाबी सहित करीब करीब सभी भारतीय भाषाओ के बहुत से साहित्यकारो ने अपने पुरस्कार लौटाये । यह क्रम आज भी जारी है। आम तौर पर यह माना जाता है कि लेखको में पुरस्कार पाने की ललक होती है। इसके लिए वह जोड़-तोड़ तिगड़म करते रहते है । परन्तु पुरस्कार लौटाने की यह घटना संभवतः आजादी के बाद पहली बार हुई है। केवल एक घटना का संस्मरण है जब आपरेशन ब्लू स्टार के बाद अंग्रेजी लेखक खुशवन्त सिंह ने पद्यम श्री पुरस्कार लौटाया था। 

साहित्य अकादमी के अध्यक्ष प्रो0 विश्वनाथ प्रसाद तिवारी भले ही कम्युनिष्ट विरोधी हो परन्तु वे संघ के समर्थक भी नही कहे जा सकते हैं । वे तर्क दे रहे हैं  कि पुरस्कारो के वापस करने का कोई नियम नही है। साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था है। साहित्य अकादमी तथा विभिन्न राज्यों  की अकादमियां  तथा संस्थाये सरकार से कितनी स्वायत्त हैं यह सभी को पता है। यह संस्थाये सरकारी अनुदान पर चलती हैं । इनके संचालन तथा नियुक्तियों में सरकार का ही हाथ रहता है। उन्हें  स्वायत्त किसी भी तरह नही कहा जा सकता है। बहुंत से मित्र तथा बौद्धिक लोग यह भी कह रहे हैं  कि लेखको के बड़े वर्ग में 1975 के आपात काल का समर्थन किया , गुजरात 2002 के दंगो पर चुप्पी लगाये रहे अशोक बाजपेयी भोपाल गैस काण्ड के बाद भोपाल में विश्व कविता उत्सव करते हैं । इन सारी बातो के भूलकर उनके आज के विरोध का समर्थन करना चाहिएं। हमें  यह नही भूलना चाहिए कि आजादी के बाद 1975 में इन्दिरा गांधी द्वारा लगाया गया 19 महीनो के आपात काल में पहली बार अभिब्यकित की आजादी पर  सबसे गम्भीर चोट पहुंची  थी। प्रेस पर सेंसरशिप लग गयी थी। जनता के मूल अधिकारो को स्थगित कर दिया गया था यह घटना वर्तमान की घटनाओ से कही बड़ी थी। परन्तु लेखको का एक बड़ा समूह खुल कर आपातकाल का समर्थन कर रहा था। भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी से जुड़े लेखक संगठन प्रगतिशील लेखक संगठन तथ इप्टा जैसी सांस्कृतिक संस्थाओ ने खुलेआम आपातकाल का समर्थन कर रहा था  तथा विरोधी विचारो वालो को जेलो तक भिजवाया। हमारे शहर के हिन्दी के एक बड़े प्रगतिशील आलोचक तो 20 सूत्री व 5 सूत्री कार्यक्रम पर कविता लिखकर आकाशवणी पर उसका वाचन कर रहे थे।
     
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर आपातकाल में प्रतिबंध लगा दिया गया था। उसके ढेरो नेता तथा कार्यक्र्ता जेलो में बन्द थे। आपात काल समाप्त होने पर उन्हे ’’शहीद’’ बनने का अवसर प्राप्त हो गया। जनता पार्टी की तत्कालीन सरकार में जनसंघ भी शामिल हो गयी। सूचना और प्रसारण मंत्रालय विदेश विभाग जैसे महत्वपूर्ण विभागो पर जसंघ के स्वयंसेवको ने कब्जा कर लिया। सत्ता में घुसपैठ की संघ परिवार की यह पहली घटना थी। जिसने बाद में उनको काफी मदद पहुॅचायी थी। यद्यपि मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी ने आपात काल का विरोध किया था। परनतु वह जनता पार्टी में शामिल नही हुयी। 1942 के समय भारत छोड़ो आन्दोलन के विरोध के बाद दोनो कम्युनिष्ट  पार्टियों  की  यह दूसरी सबसे बड़ी रणनीतिक तथा वैचारिक भूल थी। अगर आज संघ परिवार ने सत्ता हासिल कर ली है तो कम्युनिष्ट और कांग्रेस  का बौद्धिक समुदाय इसके लिए कम जिम्मेदार नही है। 2002 में गुजरात में बड़े साम्प्रदायिक दगे हुए उस समय गुजरात  सरकार के प्रमुख नरेन्द्र मोदी थे। वहां  पर अल्पसंख्यको का नरसंहार इतना बर्बर था कि, कोई भी उद्धेलित हो सकता था। एक गर्भवती औरत का पेट चीर कर बच्चा निकाल कर उसे मार डाला जाता है। लोगो केा जिन्दा जलाया जा रहा था। राज्य सरकार ने पुलिस और अपने समर्थको को दंगे की ,खुली छूट दे रखी थी। परन्तु यह घटना भी भारतीय बौद्धिक समाज को उद्धेलित नही कर पाती है। लेखक साहित्यकार पद प्रतिष्ठा पुरस्कार की दौड़ में लगा रहता है। अगर आज लेखक सहित्यकार पुरस्कारो को लौटा रहे हैं तब उसका समर्थन किया जापा चाहिए। परन्तु अतीत को दफनाकर आप वर्तमान की नीव नही डाल सकते है। क्योकि अब ऐसी घटनाये लगातार होगी। गुजरात के बाद मुजफ्फर नगर तथा दादरी जैसी घटनाये हुयी।
    
खलिस्तानी आतंकवादियों द्वारा पंजाबी के कवि अवतार सिंह पाश की हत्या के अलावा आजादी के बाद केाई भी लेखक अपने लेखन के कारण जेल तक नही गया। बहुत सी किताबो पर प्रतिबन्ध जरूर लगा परन्तु इससे भी लेखक समुदाय में कोई खास प्रतिक्रिया नही हुयी। अगर आज लेखको की हत्या हो रही है तेा यह भारतीय समाज के लिए एक नई परिघटना है। इससे लेखक उद्धेलित हो रहे हैं । भारतीय उपमहाद्वीप के सभी देश पाकिस्तान, बाॅगलादेश, नेपाल ,वर्मा, श्रीलंका सभी ने लम्बे समय तक सैनिक तानाशाही और कट्टरवाद झेला है। वहां लेखकों  ,सामाजिक कार्यकर्ताओ को जेल जाना पड़ा, उनकी हत्यायें भी हुयी अभी कुछ वर्ष पूर्व पाकिस्तान में ’’ईशनिन्दा कानून का विरोध करने पर पंजाब प्रान्त के राज्यपाल सलमान तासिर की हत्या कर दी गयी। पाकिस्तान में आज भी कट्टरपंथी भारी पैमाने पर तर्कशील और प्रगतिशील लोगो की हत्यायेन  कर रहे हैं । बंग्लादेश में अनेक ब्लागरो की हत्यायें हुयी तथा आज भी हो रही हैं । नेपाल में राजशाही तथा ग्रहयुद्ध के दौरान सैकड़ो बुद्धिजीवियो को जेल की सजा काटनी पड़ी तथा बहुंतो की हत्या भी कर दी गयी। पाकिस्तान ,बंग्लादेश ,श्रीलंका ,वर्मा आदि देशो मे में कट्टरपंथी ताकते समाज तथा देश पर हावी है । तर्कवादी विचारशील तबके की हत्याये तथ जेल तथा कारावास की यातनाये आज भी जारी है ।
    
भारतीय बौद्धिक समुदाय जिसमें लेखक ,कवि ,पत्रकार,चित्रकार सभी आते हैं  उन्हे इस तरह की स्थितियों का सामना नही करना पड़ा। आपातकाल के अलावा हमारे यहाँ  अपेक्षाकृत नागरिक आजादी कायम रही। यद्यपि काश्मीर तथा उत्तरपूर्व के राज्यो में लम्बे समय से सैनिक शासन जैसी स्थितियां  बनी हुयी हैं । वहां  आज भी बौद्विक समुदाय तथा आम आदमी दमन उत्पीड़न झेलने को मजबूर है। भारतीय शासक वर्ग की कम्युनिष्टो सहित सभी राजनीतिक पार्टिया इन कुकृत्यो का अंधराष्ट्रवाद के नाम पर समर्थन करती रहती है। बौद्विक समुदाय भी इनपर चुप्पी साधे रहता है। अथवा राज्य की नीतियों  का समर्थन करता दिखता है।
  
 फ्रान्स की 1789 की पूँजीवादी राज्य क्रान्ति हो अथवा अमेरिकी क्रान्ति इन्होने रूसो , वाल्टेयर , जिदरो ,टामसपेन , जैफरसन जैसे बड़े विचारको ,लेखको तथा नेताओ को जन्म दिया। ये क्रान्तियां लम्बे गृह युद्ध खून खराबे के बीच सम्पन्न हुयी। यूरोप ने दो बड़े महायुद्धो का सामना किया जिसमें लाखो लोग मारे गये। इटली स्पेन जर्मनी ने हिटलर और फ्रैकेा के फांसीवाद का सामना किया। 1935 में फांसीवाद के खिलाफ बने संयुक्त मोर्च्र पर लड़ते हुए क्रिस्टोफर काडर्वेल ,राल्स फाक्स ,लोर्क जेसे लेखको ने स्पेन और इटली में अपनी जाने दी। अफ्रीका ,लैटिन अमेरिका जैसी महाद्वीप के देश लम्बे समय तक पत्यक्ष या अप्रत्यक्ष औपनिवेशिक शासन की पीड़ा झेलते रहे। अफ्रीका के बहुत से देशो ने  आजादी के बाद भी लम्बे समय तक सैनिक शासन तथा कबिलाई बर्बरता झेली। आज भी अफ्रीका प्रत्यक्ष रूप से देशी विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ निगमो जिसमें अनेक भारतीय कम्पनियां भी शामिल हैं  उपनके लूट एवं शेषण का शिकार है। ऐसी स्थिति में वहाँ पर प्रतिरोध और संघर्षाे का साहित्य पैदा हुआ। लैटिन अमेरिका का प्रतिरोध और संघर्ष का सहित्य भी वहाँ की राजनैतिक और सामाजिक स्थितियोँ  का परिणाम है। हमारे यहाँ अपेक्षाकृत स्थितयाँ इससे भिन्न हैं । मजदूर किसान आदिवासी भले शोषण ,दमन का शिकार हो परनतु बौद्धिक समुदाय और लेखक अपेक्षाकृत इससे मुक्त है। 2013 में बंग्लादेश में इस्लामिक कट्टरता तथा 1971 के युद्ध अपराधियो के सजा देने के लिए शाहबाग आन्दोलन चला। हमारे देश में भी मुट्टी भर लोगो ने इसके समर्थन में दिल्ली में प्रदर्शन किया तथा ज्यादातर बौद्विक समुदाय वामपंथी पार्टिया तथा ग्रुप चुप्पी साधे रहे। क्योकि इस समुदाय में इस्लामिक कट्टरता बनाम हिन्दू कट्टरता के चश्मे से देखने की प्रवृत्ति पैदा हुयी है।

1990 के आर्थिक सुधारो के बाद निम्न मध्यम वर्ग ,छोटे दुकानदार तथा ब्यापारी दुकान तथा छोटे कर्मचारी किसान तबाह और बर्बाद होकर मजदूर की स्थिति में तब्दील हो गये। परन्तु मध्य वर्ग का एक छोटा सा हिस्सा जो विश्वविद्यालयों  ,बड़े-बड़े सरकारी कालेजो तकनीकी संस्थानो में ऊॅची नौकरियो में कार्यरत है । वह बहुत तेजी से उच्च वर्ग तथा उच्च मध्य वर्ग में पहुँच गया। लम्बे -लम्बे वेतन ,विदेशो का दौरा परिवार की आर्थिक सुरक्षा की गारण्टी। हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओ के लेखको का एक बड़ा तबका भी इस वर्ग में शमिल हो गया है। विश्वविद्यालयों  में अध्यापन कर रहे अनेक प्रोफेसरो ने अपना संबंध राजनीतिक दलो के साथ जोड़ लिया। परिणाम स्वरूप वाइस चान्सलर ,राज्यपाल जैसे पद उन्हे पुरस्कार में मिलने लगे। ऐसी स्थितियों  में आप कैसे कल्पना कर सकते हैं  कि उदारीकरण के बाद जो तबाही बरबादी हुयी निम्न मध्य वर्ग का सर्वहाराकरण हुआ। फांसी वाद की परिघटना पैदा हुयी। उसके खिलाफ वे आम जन के साथ खडेा होगे। अकादमी पुरस्कारो की वापसी एक तात्कालीक प्रकिया है जो लम्बे समय तक जारी नही रह सकती है। परन्तु संघ परिवार के फांसीवादी कदम बढ़ते ही रहेंगें ।
 फांसीवादियों  को कला साहित्य ,संस्कृति से कुछ भी लेना देना नही होता है। उन्हे सास्ंकृतिक कर्मी नही प्रचारक चाहिए। स्पेन का तानाशाह फ्रेंको कहता था ’’ जब मै संस्कृति शब्द सुनता हूँ तो मेरा हाथ पिस्तौल पर जाता है’’ भारतीय  पूॅजीपति वर्ग सम्राज्यवाद की कोख से पैदा हुआ वह किसान से दस्तकार छोटे कारखानेदार की यात्रा करते हुए यहाँ  तक नही पहुंचा  जैसे यूरोप फ्रास तथ प्रारम्भिक पूँजी वादी विकास के दौरान हुआ था। इस पूँजीवाद ने सामंतवाद के खिलाफ हथियार उठाकर संघर्ष किया था। जिसके कारण उन समाजो में तर्कपरकता विेवेक आदि मूल्यो का विकास हुआ। भारत में ठीक इसके विपरीत हुआ। भरतीय पूँजीपति वर्ग की पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस  ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ संघर्ष किया। इसी कांग्रेस के साथ मध्ययवर्ग भी पैदा हुआ। जो भारतीय पूॅजीवाद की तरह ही जूझारू तथा क्रान्तिकारी नही था। उतने सामंती मूल्यों  के साथ बहुत जल्दी समझौता कर लिया। ,दुसरे  महायुद्ध के बाद हुयी ब्यापक तबाही के बाद प्रत्यक्ष उपनिवेशवाद की स्थिति समाप्त हो गयी थी। अब आर्थिक नवउपनिवेशवाद का युग आ गया था। इसलिए ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने कांगेस को सत्ता सौपकर तथा देश को विभाजित करके भारत को आजाद कर दिया। इस आन्दोलन में जिस मध्यवर्ग का जन्म हुआ जिसमें बुद्धिजीवी ,कवि ,कलाकार उत्पन्न हुए यह समुदाय तिलक ,गाँधी ,पटेल,नेहरू जैसे राजनेता ही पैदा कर सकता था। लेखको  दौर में प्रेम चन्द, निराला ,गणेश शंकर विद्यार्थी जरूर पैदा हुए भारतीय यथार्थ से कटा लेखक आज भी किसान जीवन पर ’’गोदान’’ स्तर का उपन्यास नही लिख पाया है।
   
यद्यपि उपरी तौर पर भारतीय संविधान जनता पर बहुत अधिक जनवादी अधिकार देने का दावा करता है। यह केवल बैधिक मतिभ्रम के शिकार लोग ही इस आधार पर भारतीय समाज को यूरोप जैसा जनतांत्रिक समाज समझ सकते हैं । समाज के दैनिक जीवन में उन जनवादी मूल्यों के दर्शन कही नहीहो पाते हैं । रोजमर्रा के जीवन में हमें जिन समस्याओ का सामना करना पड़ता है शिक्षित तथा बौद्धिक लोगो में भी अपने छोटे से छोटे हक के लिए संघर्ष की जगह चैराहो वर खड़े कास्टेबिल को सलाम ठोकना और दफ्तर के बाबू के सामने गिड़गिड़ाना सुगम रास्ता मानते हैं । इससे उनका रन्चमात्र स्वाभिमान आहत नही हेाता है। चापलूसी ,जी हजूरी एक ऐसा मामाजिक मूल्य है जिस पर किसी को शर्म नही आती। ढ़ोग दोहरेपन ,पीठ पीछे बाते करना जैसी बुराईयों  को छम्य और सहज माना जाता है। फर्जी मुठभेड़ या पुलिस उत्पीड़न , दंगे भ्रष्टाचार की जिन घटनाओं पर यूरोप में तुरंत सरकारें गिर जायेगी। वे हमारे देश में कुछ दिनो तक अखबार की सुर्खिया बनकर बासी हो जाती हैं । भारतीय समाज में नागरिक आजादी एवं मानवाधिकारो के प्रति जागरूकता नागरिकता बोध और तर्कबुद्धिपरकता का नितान्त अभाव है। जो किसी भी प्रतिरोध आन्दोलन के लिए बहुत बड़ी समस्या है। भारतीय समाज में एक बड़ी समस्या समाज के जातीय ढाँचे  की भी है। लेखक बुद्धिजीवी भले साम्प्रदायिक न हो परन्तु अधिकांश मार्क्सवादी तथा प्रगतिशील जीवन दृष्टि वालो की भी जाति हमेशा उनके सभी कार्यो का निर्देशन करती है। मैने ऐसे ढेरो लोगो को देखा जो प्रेम विवाहो के घोर विरोधी है अपने तथा अपनी बेटी -बेटियों का विवाह जाति बिरादरी में खोज कर करते हैं । अपनी संतानो को सामाजिक कार्या से दूर रखते हैं ।  कही वह अपनी मर्जी से विवाह न कर बैठे या राजनीतिक आन्दोलनों  में शामिल न हो जाये। एक लम्बे समय तक समाज के बड़े तबके को पढ़ने-लिखने से वंचित रखा गया। आज जब यह वर्ग पढ़-लिख रहा है उनमें से लेखक साहित्यकार कलाकार निकल रहे हैं  तो उपरी वर्ग को अपना जाति वर्चस्व टूटता दिखायी दे रहा है। वह अन्दर ही अन्दर आरक्षण जैसे प्रावधानो का घोर विरोधी हो गया है। कुछ वर्षो पूर्व हिन्दी के प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह का ’’प्रगतिशील लेखक संघ’’ के लखनऊ सम्मेलन में आरक्षण के खिलाफ बयान देना इसी प्रवृत्ति का परिचायक है।
   
मैने जो विश्लेषण रखा है वह जयादातर हिन्दी साहित्य व साहित्यकारो के बारे में पर कमेावेश सारी भारतीय भाषाओ के लेखको विचारको की स्थिति यही है। आज एक नई परिघटना पैदा हो रही है जैसे आधुनिक भारतीय इतिहास में  1947 के बाद आज तक नही हुयी। हमरे यहाँ  पूँजीवादी जनवाद लागू है। वर्तमान सत्ताधारी वर्ग चुनाव लड़कर चुनकर सत्ता में आया। उसे ब्यापक जन समर्थन भी हासिल है। फिर भी देश में  फांसीवादी राज्य बनने की पूरी संभावनाये मौजूद हैं । विगत में भी विश्व इतिहास में ज्यादातर फांसीवादी चुनाव लड़कर भारी जनसमर्थन में सत्ता में आये थे। ऐसी स्थिति में इसके खिलाफ संघर्ष की कौन सी नई इबारत हम गढ़ सकते है । आज बौद्धिक समुदाय को किसी फौरी निर्णय की जरूरत है।

  (यह लेख लेखक की निजी राय पर आधारित है।)

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