पवित्र नगरों की सियासत
जनाब अरविन्द
केजरीवाल,
जो पिछले दिनों
पंजाब के दौरे पर थे उनके एक ऐलान ने एक
पुरानी बहस को नयी हवा दी है. उन्होंने कहा कि अगर उनकी पार्टी जीतती है तो वह
अमृतसर को ‘पवित्र नगर’
का दर्जा प्रदान करेगी. इतना ही नहीं वह स्वर्ण मंदिर के
आसपास शराब, मीट और टुबैको के
उपभोग पर भी रोक लगाएंगे.
उनके मुताबिक खालसा को जन्म देने वाले आनंदपुर साहिब को भी
पवित्र नगर का दर्जा दिया जाएगा. वैसे यह पहली दफा नहीं है जब उन्होंने नगरों को ‘पवित्र’ घोषित करने की बात कही है. याद रहे जिन दिनों वह वाराणसी से
चुनाव लड़ रहे थे, उन्होंने
अपने बनारस संकल्प में अन्य कुछ मांगों के अलावा इस बात का भी विशेष उल्लेख किया
था कि वह वाराणसी को ‘पवित्र
नगरी’
का दर्जा दिलाएंगे.
ऐसा प्रतीत होता है कि न उन्होंने उस वक्त इस मसले पर
विस्तार से सोचा था कि विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, रूझानों से बने शहर बनारस- जहां महज हिन्दुओं एवं बौद्धों
के ही सर्वोत्कृष्ट स्थान नहीं हैं, बल्कि जैनियों के कई तीर्थंकरों का जन्मस्थान भी यहीं है.
यहां तक इस्लाम के
माननेवालों के भी कुछ अहम स्थान हैं इसी शहर में हैं. जिस नगर ने कबीर,
रैदास एवं तुलसी जैसे महान संतो को जन्म दिया था उसकी साझी,
मिलीजुली संस्कृति को ‘पवित्र नगरी’ का ओहदा देकर किसी खास इकहरी संस्कृति में ढालने का यह
संकल्प किस तरह सेक्युलर भारत में विशेष धार्मिक क्षेत्रों के निर्माण के सिलसिले
को तेज करेगा, उन्हें इसका तनिक भी
इल्म नहीं है.
इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज मार्कण्डेय
काटजू का बयान मौजूं है जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा है कि ऐसे बयान भले ही फौरी
तौर पर वोटों में बढ़ोतरी कर दें, मगर वह किस तरह मुल्क के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को
प्रभावित करते हैं, इसे
हम बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर स्थापित करने के लिए चले आन्दोलन से भी देख सकते
हैं.
विडम्बना ही है कि धार्मिकता का जैसा विस्फोट समूची दक्षिण
एशिया में दिख रहा है, उसमें
ऐसा करने की हवा सी चल पड़ी है.
2014
में ही भाजपा के पूर्ण बहुमत से सत्तारोहण के बाद गुजरात के
पाटण जिले के पलीटाना नगर को, जहां जैनियों के तमाम मंदिर और तीर्थस्थल हैं,
जैन साधुओं की चार दिनी भूख हड़ताल के बाद,
राज्य सरकार ने ‘शाकाहारी इलाका’ घोषित कर दिया था. वहां मांसाहारी पदार्थ बेचना और बनाना अब
‘कानून के उल्लंघन’ में शुमार किया जाता है. और यह इस सबके बावजूद कि एक लाख
आबादी वाले इस नगर की 25 फीसदी
आबादी मुस्लिम है.
इतना ही नहीं स्थानीय
सरकारी अधिकारी बताते हैं कि नगर की चालीस फीसदी आबादी मांसाहारी रही है जिनमें
सिर्फ मुस्लिम ही नहीं कोली जैसे हिन्दू समुदाय भी शामिल हैं. दिलचस्प है कि इसी
तरह के रुझानों के चलते वर्ष 2013 में सूबा आंध्र प्रदेश की तिरूमाला पहाड़ियों की तलहटी में
तिरूपति मन्दिर से तेरह किलोमीटर दूर बन रही ‘हीरा इण्टरनेशनल इस्लामिक युनिवर्सिटी’
को बिल्कुल अलग ढंग के विरोध का सामना करना पड़ा था.
गौरतलब है कि हीरा ग्रुप जो एक ग्लोबल फार्चुन कम्पनी है और
कमोडिटीज तथा शैक्षिक व्यवसाय में भी मुब्तिला है, उसके तहत मुस्लिम महिलाओं के लिए इस कालेज का निर्माण किया
जा रहा था. हिन्दु साधुओं के एक हिस्से ने इस इलाके की पवित्रता की दुहाई देते हुए
इस निर्माणाधीन संस्थान को वहां से हटाने की मांग की थी.
‘सात पहाड़ियों की पवित्रता की रक्षा’
के नाम पर उस समय ‘तिरूमला, तिरूपति पवित्रता संरक्षण वेदिके’
नाम से एक साझा मंच के बैनर तले हिन्दु गर्जना नामक
कार्यक्रम का आयोजन किया गया था.
कुछ साल पहले चुनावी आपाधापी में मध्यप्रदेश के काबिना
मंत्रा एवं पूर्व मुख्यमंत्री जनाब बाबुलाल गौड़ की तरफ से जारी हुए एक आदेश में
भाजपा सरकार द्वारा पवित्र नगरी घोषित किए गए चन्द नगरों के बारे में विशेष सूचना
प्रकाशित की गयी थी. इसमें स्थानीय निवासियों के तौर ए जिन्दगी को लेकर कुछ
दिशानिर्देश जारी किए गए थे. मसलन् किस तरह इन ‘पवित्र नगरों’ में अण्डा, मछली और मीट जैसे मांसाहारी खाद्य पदार्थों की बिक्री सम्भव
नहीं होगी.
निश्चित ही जनाब गौड़ के इस आदेश में नया कुछ नहीं था. एक
तरह से वह अपनी पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती के कार्य को ही आगे बढ़ा
रहे थे जिन्होंने वर्ष 2003 के अंत में जब वे मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार की मुखिया
बनी थी,
तब अमरकंटक तथा अन्य ‘धार्मिक नगरों में’ मांस-मछली आदि ही नहीं बल्कि अंडे के बिक्री एवम सेवन पर
पाबन्दी लगा दी गई थी.
उसी वक्त यह प्रश्न उठा था कि किस तरह एक ही तीर से न केवल
गैरहिन्दुओं को बल्कि हिन्दु धर्म को माननेवालों उन ससमुदायों पर भी कुछ खास
हिन्दुओं का एजेण्डा लादा जा रहा है.
जिन दिनों पंजाब में अतिवादी सिख नेता भिण्डरावाले की
गतिविधियों ने जोर पकड़ा था, उन
दिनों उनकी तरफ से इसी किस्म की ‘आचारसंहिता’ लागू करवाने की बात की जा रही थी. स्वर्ण मन्दिर जहां स्थित
है,
उस अमृतसर में तथा सिखों के लिए पवित्र अन्य स्थानों पर
खाने-पीने की किस तरह की चीजें़ बिक सकती है या नहीं बिक सकती हैं इसके बारे में
फरमान भी उनकी ओर से जारी हुए थे.
अगर कल्पना करें कि हमारे मुल्क में पलीटाना मॉडल को या
जनाब केजरीवाल द्वारा प्रस्तावित अमृतसर मॉडल को जगह जगह लागू किया जाएगा तो आप
पाएंगे कि उन्हीं तर्क के आधार पर कहीं अल्पमत में रहनेवाले हिन्दुओं के लिए,
कहीं अल्पमत में रहनेवाले सिखों के लिए या ईसाइयों या अन्य
धर्मावलम्बियों के लिए संविधानप्रदत्त अपने आस्था के अधिकार पर अमल करने में
कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है.
वैसे बहुसंख्यकवाद को हवा देने में महज धर्म विशेष के
इर्दगिर्द राजनीति का संचालन करनेवाले संगठन ही आगे नहीं रहते है. कई बार सेक्युलर
कहलानेवाले संगठन भी अपने वोट को मजबूत करने के लिए ऐसे कदम उठाते हैं.
हिन्दूवादी संगठनों की अत्यधिक सरगर्मी हमें राज्य के पूर्व
मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी के कार्यकाल की याद दिलाती हैं. याद रहे कि
उन्हीं के नेतृत्ववाली आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने तिरूमला-तिरूपति और
राज्य के 19 अन्य चर्चित मन्दिरों
वाले नगरों में अहिन्दु आस्थाओं के प्रचार-प्रसार पर पाबन्दी लगाने के लिए
अध्यादेश जारी किये गए थे.
उस वक्त विश्लेषकों ने इसे ‘विशेष आर्थिक क्षेत्रों’ की तर्ज पर ‘विशेष धार्मिक क्षेत्रों’ के निर्माण की योजना के तौर पर सम्बोधित किया था,
जहां अन्य धर्मियों के लिए किसी भी तरह की गतिविधि करने पर
यहां तक कि पूजा, सामाजिक
काम,
शैक्षिक संस्थाओं का संचालन तथा अन्य धार्मिक कार्य सभी पर
रोक लगा दी गयी हो.
महत्वपूर्ण बात यह है कि इलाका विशेष की पवित्रता की दुहाई
देते हुए अल्पसंख्यकों को उनके सांस्कृतिक, मानवीय अधिकारों से वंचित करने की घटनाओं का सिलसिला दक्षिण
एशिया के इस हिस्से में भी जोर पकड़ता दिख रहा है.
अपने मुल्क के तमिलों
के आत्मनिर्णय के अधिकार को कुचलने के लिए ‘युद्ध अपराधों’ के विवादों में घिरे पड़ोसी मुल्क श्रीलंका में डम्बुल्ला
नामक स्थान पर बनी मस्जिद एवं मंदिर को ‘पवित्र बौद्ध भूमि’ का हवाला देते हुए हटा दिया गया था.
पहले वहां बौद्ध भिक्षुओं की अगुआई में हुडदंगियों ने हमला
किया और दावा किया कि यह एक गैरकानूनी निर्माण है. डम्बुल्ला खैरया जुम्मा मस्जिद 60
साल से ज्यादा पुरानी है और मस्जिद के ट्रस्टियों के पास
उसके निर्माण संबंधी कानूनी दस्तावेज भी मौजूद थे.
वही हाल मन्दिर का भी था. मगर इन प्रमाणों से इन बौद्ध
भिक्षुओं की अगुआई में पहुंचे सिंहलियों को कोई लेना देना नहीं था,
उन्होंने यही दावा किया कि दोनों ‘पवित्र बौद्ध भूमि’ में बने हैं, इसलिए उन्हें हटना ही होगा.
कहा जाता है कि धर्म और राजनीति के बीच का रिश्ता एक तरह से
पवित्र और सेक्युलर के बीच के रिश्ते की तरह होता है. समाजों की धर्मनिरपेक्ष
बनाने की यात्रा एक तरह से राज्य एवं समाज के संचालन से ‘पवित्र’ अर्थात धर्म आधारित तत्व को खारिज करते हुए उसे सेक्युलर
आधारों पर पुनर्गठित करने की यात्रा है.
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि साठ साल पहले देश के
बंटवारे के बाद के रक्तरंजित वातावरण में संविधान निर्माताओं ने यह कठिन संकल्प
लिया कि वह धर्म एवं राजनीति के बीच के इस अलगाव को सुनिश्चित करेगे. इस संकल्प के
बावजूद ऐसे अवसर आते रहे हैं जब इस अलगाव की दीवारें टूटी हैं,
जब नगरों को धर्म/सम्प्रदाय विशेष के लिए ‘पवित्र’ घोषित किया गया है.
ध्यान रहे कि डम्बुल्ला के हमले को लेकर तीस से अधिक
सामाजिक संगठनों एवं 200 से अधिक बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक साझा बयान प्रकाशित हुआ था
जिसमें स्थिति को गम्भीरता को देखते हुए हस्तक्षेप करने की सरकार से अपील की गयी
थी.
अपनी अपील में इन लोगों ने कहा था कि श्रीलंका एक बहुनस्लीय
एवं बहुधार्मिक कौम है जिसमें धार्मिक स्वीकार्यता एवं धार्मिक एवं सांस्कृतिक
अधिकारों की रक्षा तथा मुल्क के किसी भी हिस्से में अपने धर्म पर आचरण करने की
आजादी,
संविधान के बुनियादी उसूलों के अन्तर्गत आती है जो सभी
नागरिकों को समान सुरक्षा का वायदा करता है.
कहा जाता है कि 21 वीं सदी अधिक समावेशी सदी रहेगी. दूसरी तरफ हम देख रहे हैं
कि लोगों के खान-पान के आधार पर, उनकी आस्था के नाम पर उन्हें नए-नए घेट्टो में ढकेला जा रहा
है. कहीं-कहीं इसके लिए पसंद की दुहाई भी दी जा रही है. विडम्बना यही है कि
राजनीति में सेक्युलर ताकतों के बहुमत के बावजूद समाजनीति में सामने आ रहे इस नए
विखण्डन पर कोई आवाज़ उठ नहीं पा रही है.
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