युद्ध के खिलाफ साहिर लुधियानवी की एक कविता ( खून अपना हो या पराया हो )
खून
अपना हो या पराया हो / साहिर लुधियानवी
Sallie-Latchs-Anti-War-Painting |
ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ले-आदम
का ख़ून है आख़िर
जंग मग़रिब
में हो कि मशरिक में
अमने आलम का
ख़ून है आख़िर
बम घरों पर
गिरें कि सरहद पर
रूहे- तामीर
ज़ख़्म खाती है
खेत अपने
जलें या औरों के
ज़ीस्त
फ़ाक़ों से तिलमिलाती है
जंग तो ख़ुद
हीं एक मसला है
जंग क्या
मसलों का हल देगी
आग और खून
आज बख़्शेगी
भूख और
अहतयाज कल देगी
बरतरी के
सुबूत की ख़ातिर
खूँ बहाना
हीं क्या जरूरी है
घर की
तारीकियाँ मिटाने को
घर जलाना
हीं क्या जरूरी है
टैंक आगे
बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की
बाँझ होती है
फ़तह का
जश्न हो कि हार का सोग
जिंदगी
मय्यतों पे रोती है
इसलिए ऐ
शरीफ इंसानों
जंग टलती
रहे तो बेहतर है
आप और हम
सभी के आँगन में
शमा जलती
रहे तो बेहतर है।
बहुत ही सटीक व सत्य बात है पर आदर्श है यथार्थ से मेल नहीं खाती है ना तब ना आज ।पर कविता बहुत अच्छी है ।इस पर कुछ यूं लिखा है कि"चन्द पैसों के लिए बहा देते हैं वे खून अपनों का भी यहाँ भी और वहां भी ,सत्ता में बने रहने को कटवा देते हैं सिर अपनों के सपनों का यहाँ भी और वहां भी
ReplyDeleteबहुत ही सटीक व सत्य बात है पर आदर्श है यथार्थ से मेल नहीं खाती है ना तब ना आज ।पर कविता बहुत अच्छी है ।इस पर कुछ यूं लिखा है कि"चन्द पैसों के लिए बहा देते हैं वे खून अपनों का भी यहाँ भी और वहां भी ,सत्ता में बने रहने को कटवा देते हैं सिर अपनों के सपनों का यहाँ भी और वहां भी
ReplyDeleteसटीक और सामयिक प्रस्तुति
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