अमेरिकी चुनाव:- डोनाल्ड ट्रंप के जीत के असली मायने
स्वदेश कुमार
सिन्हा
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एक नयी राजनीतिक व्यवस्था का जन्म , ट्रंप की जीत ने
सारे अनुमान ध्वस्त कर दिये दुनियॉ चिंता से अमेरिका की ओर देख रही है।
"वालस्ट्रीट जर्नल"
डेमोक्रेट, छात्र और
अन्तर्राष्ट्रीय सहयोगी अब ट्रंप के राष्ट्रपति शासन की हकीकत का सामना करेंगे।
कही दुख और कही खुशी क्योकि जिस प्रकार की किसी ने कल्पना नही की थी वह सामने है।
“न्यूयार्क
टाइम्स”
अमेरिकी
राष्ट्रपति पद के चुनाव में 70 वर्षीय व पूँजीपति उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप की भारी बहुमत
की विजय ने ना केवल अमेरिका को बल्कि सम्पूर्ण विश्व को चौकाया है। अमेरिकी
लोकतंत्र के लम्बे इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है कि राष्ट्रपति के शपथग्रहण
के पूर्व ही उसके विरोध में प्रदेर्शन शुरू हो गये हो और सम्पूर्ण राष्ट्रीय और
अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया चिन्तित हो गया हो। अब वे जब चुनाव जीत गये हैं ते हमारे
सामने एक अन्य तरह की दिक्कत है। पूरी दुनियॉ जानती है कि महिलाओें, प्रवासियों और
अल्पसंख्यको के बारे में उनके विचार और कुविचार क्या ? उनके चाल चरित्र
और चेहरे के तमाम कारनामें पिछले कुछ समय से पूरी दुनियॉ के लगातार दिखलाये और
बतलाये जाते रहें है। तमाम खबरो में उन्हे या तो विदूषक बनाया जाता रहा या खलनायक।
इस तरह की बातें तकरीबन हर जगह चुनाव प्रचार का एक हथकण्डा होती है लेकिन दिक्कत
यह है कि इन्हे छोड़ भी दे ते हम उस शख्स के बारे में कुछ नही जानते , जो अब दुनियॉ की
सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था और सबसे मजबूत फौजी ताकत का मुखिया बनने जा रहा है।
अमेरिकी समाचार पत्र न्यूयार्क टाइम्स ने उन्हे अमेरिका के इतिहास में ऐसा ’प्रसिडेण्ट
इलेक्ट’ कहा है, जो इस पद के लिए
सबसे कम तैयार है।
अमेरिका में
उदारवाद बनाम अनुदारवाद :-
उनकी जीत का एक
दूसरा पक्ष यह भी है कि जो लोग इस वैश्विक सच्चाई से अवगत है कि सारे विश्व में
घपीभूत हो रहे आर्थिक संकटो के कारण जिस तरह अनुदारवाद तथा दक्षिणपंथ की हवा चल
रही हे तथा गैर राजनीतिक राजनेता तथा राजनीतिक पार्टियों को भारी लोकप्रियता मिल
रही हे। इसमें ट्रंप की विजय बहुत आश्चर्यचकित नही करती। इसकी विस्तृत चर्चा हम
आगे करेंगे। अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव में
प्रायः यह दिखाने की कोशिश की जाती है कि मानों चुनाव में डेमेक्रेट तथा
रिपब्लिकन उम्मीदवारों के बीच कोई बड़ा विचाराधात्मक संघर्ष चल रहा है। परन्तु
जमीनी हकीकत यह है कि वहॉ की राजनीतिक प्रायः विचारधारा विहिन होती हे। अगर गृह
नीति के कुछ नगण्य मुद्दो को छोड़ दिया जाये तो अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के बीच
प्रायः आम सहमति रहती हे। ज्यादातर चुनाव बहसे खोखली और अर्थहीन होती है तथा
मीडिया की तड़क भड़क समूचे चुनावी परिदृश्य को और गैर राजनीतिक बना देती हे। इसलिए
जब इन चुनावो में रिपब्लिकन उम्मीदवर के रूप में डोनाण्ड ट्रंप चुनाव के मैदान में
उतरे तो अमेरिकी मीडिया ने एक टेलीविजन सेलिब्रेटी उद्योगपति तथा पूरी तरह से गैर
राजनीतिक उम्मीदार को तब तक गम्भीरता से नही लिया जबतक वे पार्टी के अधिकारिक
उम्मीदवार घोषित नही हो गये। वास्तव में अमेरिकी चुनाव में अनुदारवाद ही के दो घड़ो
के बीच चुनावी लड़ाई चल रही थी। डोनाल्ड ट्रंप ने रिपब्लिकन पार्टी के घोर
दक्षिणपंथी तत्वों के एकत्र किया तथा अपने चुनाव अभियानों में ट्रंप मुस्लिम
अप्रवासियों से अमेरिका की नागरिक सुरक्षा और सांस्कृतिक अस्मिता पर खतरा बताकर
उनपर अमेरिका में रोक लगाने जैसी मॉग करने लगे। सबसे बड़ी बात जो वह कर रहे थे वह
थी तथाकथित अमेरिकी गोरव की पुर्नस्थापना।
वे श्वेत अमेरिकियों की बेराजगारी व बेकारी जैसे मुद्दे बड़े आक्रामक तरीके उठा रहे
थे। इस कारण वे एक बड़े श्वेत मध्यवर्ग तथा कामगा वर्ग के बड़े नायक होकर उभरे तथा
उनका उन्हे जबरदस्त समर्थन मिला।
ट्रंप के फॉसीवाद
की आर्थिक व सामाजिक पृष्ठभूमि- आज अगर अमेरिका सहित दुनियॉ भर में अनुदारवाद
धार्मिक कट्टरता तथा फॉसीवाद की लहर हाबी है तो कही न कही से अमेरिकी सत्ता
प्रतिष्ठान ही जिम्मेदार है। आज भारत में संघ परिवार के फॉसीवाद सें अमेरिका को
कोई परहेज नही है। सम्पूर्ण यूरोप अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिकी देशो , फ्रांस ,नीदरलैण्ड ,,आस्ट्रिया, स्वीडन, डेनमार्क ,हंगरी में भी
अनुदारवाद पार्टियों तथा नेताओ की लोकप्रियता बढ़ रही हे। जिन्हे अमेरिकी सत्ता
प्रतिष्ठान का खुला समर्थन प्राप्त है। इसके ठीक विपरीत बेनेजुएला ,ब्राजील, ग्रीस जैसे देशो
की प्रगतिशील सरकारो को लगातार अस्थिर करने उनके विरोधियों का लगातार सहायता
मुहैया कराने के काम में अमेरिका लगा हुआ हे। नब्बे के दशक में सोवियत संघ तथा
पूर्वी यूरोप के देशो में समाजवादी सत्ता के पतन तथा सोवियत संघ के विघटन के बाद
तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन ने बड़े दम्भ के साथ शीतयुद्ध जीत लेने का दावा
किया तथा अमेरिका एक धु्रवीय महाशक्ति के रूप में उभरा। ’’इतिहास का अंत’’ तथा ’’पूँजीवाद की
अन्तिम विजय’ की घेषणा की जाने
लगी। परतु यह स्थिति बहुत दिन तक नही चल सकी। शीघ्र ही अमेरिका अपने मित्र
राष्ट्रो के साथ खाड़ी युद्ध में उलझ गया दोनो खाड़ी युद्ध ’मानवता के प्रति
सबसे बड़े अपराध थे तथा पहला युद्ध तो अमेरिका ने खाड़ी में पेट्रोलियम पर वर्चस्व
के लिए लड़ा ’अमेरिकी जीवन
शैली की रक्षा’ (दुनियॉ के कुल
पेट्रोल उत्पादन का 80 प्रतिशत का
उपभोग अमेरिका अकेले करता है’) के नाम पर लाखो लोगो का खून बहाया गया। इसी के प्रतिक्रिया
स्वरूप 9/11 की घटना हुयी
तथा उसे अफगानिस्तान , ईराक मे सैन्य
कार्यवाहियों में उलझना पड़ा जिसने अमेरिका की आर्थिक रूप से कमर तोड़ दी।
इन युद्धो
के परिणाम स्वरूप समूचे एशिया तथा यूरोप में अलकायदा ,तालिबान , बोकोहरम जैसे
ढ़ेरो अतिवादी सगठनों का जन्म हुआ। प्रारम्भ में अमेरिका ने ही ढ़ेरो ऐसे संगठनो को
आर्थिक सैनिक सहायता देकर सोवियत संघ के खिलाफ खड़ा किया। परन्तु आज यह संगठन
अमेरिका तथा सम्पूर्ण विश्व के लिए भारी
खतरा बन गये है। सीरिया ,लीबिया और इराक
में सक्रिय इस्लामिक स्टेट नामक आतंकवादी ,कट्टरवादी संगठन की गतिविधियें ने सारे यूरोप ,अमेरिका ,अफ्रीका तथा
एशिया तक को हिला दिया। अमेरिका तथा उसके सहयोगी गठबंधन देश रूस ,जापान ,ब्रिटेन , फ्रांस आदि बड़े
पैमाने पर मानवरहित ड्रोन विमानों से आई.ए.एस. को समाप्त करने के लिए उनके क्षेत्रो पर भयानक बमबारी कर
रहे है। जिसने सारी दुनियॉ में भारी अस्थिरता पैदा कर दी है। इन युद्धरत देशो से
भारी पैमाने पर शरणार्थी यूरोपीय देशो तथा अमेरिका में आ रहे हैं तथा भारी सामाजिक
तथा आर्थिक असंतुलन पैदा कर रहे है। अगर आज यूरोप तथा अमेरिका में भारी पैमाने पर
शरणार्थी पहुँच रहे हैं तो इसके लिए कही न कही उसकी (अमेरिका) युद्ध उन्मादी तथा
वर्चस्व की नीति जिम्मेदार है।
डोनाल्ड ट्रंप
तथा यूरोपीय देशो के अन्य अनुदारवादी नेता
इस स्थिति का फायदा उठाकर अप्रवासियों के खिलाफ नफरत फैला रहे थे। ट्रंप को इस
स्थिति का जबरजस्त फायदा मिला। आज अमेरिका का सामाजिक ,आर्थिक संकट
निरंतर बढ़ रहा है। जल्दी-जल्दी आने वाली मंदिया उसके आर्थिक तंत्र को और संकट
ग्रस्त कर रही है। अगर कोई यह कहे कि आज 1930 जैसा आर्थिक संकट नही है इसलिए फासीवाद नही आ सकता तो वह
यांत्रिकता का शिकार है। आज सैन्य ताकत के बल पर भले अमेरिका विश्व का सबसे
शक्तिशाली मुल्क हो परन्तु आर्थिक रूप से वह दुनियॉ का सबसे कर्जदार मुल्क बन गय
है। सन् 2008 में ’सबप्राइम संकट’ की वजह से लाखो
अमेरिकी बेराजगार तथा गरीबी से ग्रस्त हुए इनका भारी समर्थन डोनाल्ड ट्रंप को
मिला। लगभग 100 वर्ष पहले
अमेरिकी सिनेटर ’बेवरीज ’ ने विश्व
अर्थव्यवस्था पर अमेरिकी वर्चस्व की महात्वाकांक्षाओ को हवा देते हुए कहा था ’’क्या हमारा कोई
मिशन नही है’? क्या अपने सहजनों
के प्रति हमारा कोई कर्तब्य नही है? हवाईद्वीप समूह हमारे हैं ,पोर्टरिको हमारा होने वाला , क्यूबा के लोगो
के अनुरोध पर अन्ततः क्यूबा भी हमारा हो ही जायेगा , पूर्वी द्वीपों में , यहॉ तक कि एशिया
के प्रवेशद्वारो तक , हमारी उदार सरकार
का झण्डा फीलीपीन्स पर भी लहराया जाना है। हम धरती के किसी भी उस भाग से अपने कदम
नही हटा सकते , जहॉ विधाता ने
हमारा झण्डा एक बार गाड़ दिया हो ’’। अमेरिकी साम्राज्यवाद का यह दंभ अब टूट रहा है क्यूबा ,ईरान जैसे शत्रु
देशो से उसे उनकी शर्तो पर समझौते करने पड़ रहे है। उत्तर कोरिया के परमाणु तथा
मिसाईल कार्यक्रमो के अमेरिका रोक लगाने में असमर्थ रहा है। जापान, चीन ,रूस ,भारत ,ब्राजील, मैक्सिको जैसे
देश भी आज बड़ी अर्थव्यवस्थाओ के रूप में उभर रहे है तथा साम्राज्यवादी लूट में
अमेरिका के साथ समान रूप से साझीदार बन रहे है तथा आर्थिक रूप से अमेरिकी वर्चस्व
को चुनौती दे रहे है। डोनाल्ड ट्रंप इन जैसे ’’आत्म गौरव’’ के पराभव के मुद्दो को भुनाने में सफल रहे।
भूमण्डलीकरण के
खिलाफ प्रतिक्रियाः-
1980 के बाद लागू भूण्डलीकरण की नीतियों से दुनियॉ भर में
गैर बराबरी तथा असमानता बढ़ी है। भूमण्डलीकरण ने केवल कुछ लोगो के लिए अवसरो के
द्वार खोले हैं उनकी पूँजी बढ़ाई है परन्तु ज्यादातर लेगो के लिए यह गरीबी बदहाली
लेकर आया है। इसमें विजेता कुछ ही है , मगर गॅवाने वाले अधिक है। हर उभरती अर्थव्यवस्था में
मध्यवर्ग ’’सुपररिच’’ व ’’अल्ट्रारिच’’ यानी अत्यधिक
धनाढ़्य लोग बड़े विजेता बने है, तो औद्योगिक देशा में कामगार व निम्न मध्यवर्ग और विकासशील
देशो में गरीब और हाशिये के लोग वंचितो में शामिल है। यूरोपीय संघ के देशो में ते
बेरोजगारी की औसत दर देश के कुल कार्यबल से 10 फीसदी तक अधिक है। जबकि यूनान तथा स्पेन में यह ऑकड़ा 20 फीसदी तक का है।
विकसित देशो में भी ब्लूकालर व व्हाइट कालर कामगारों की वार्षिक आमदनी में एक
स्थिरता बनी हुयी है। अमेरिका में 1970 के दशक के बाद से ही करीब 90 फीसदी कामगारों की वास्तविक मजदूरी में कोई
वृद्धि नही हुई है। भूमण्डलीकरण ने ’’रोजगार विहीन विकास” की नई अवधारणा पैदा की है। कुल मिलाकर
वास्तवविकता यह है कि आर्थिक उदारीकरण की नीतियों ने तमाम मुल्को में समाज को
आन्तरिक तौर पर बॉटने का काम किया है। अमेरिका तथा दुनियॉ भर में ऐसा दीख रहा है
कि आर्थिक असमानता की वजह से जो जगह खाली हुयी है उन्हे दक्षिण पंथी नेता तथा घोर
राष्ट्रवादी पार्टियॉ भर रही हैं। उन्होने मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियों की
विफलता को भुनाया और सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ लोगो के नाराजगी को हवा दी। उनकी
राजनैतिक लामबन्दी अवसरवाद और लोकलुभावनवाद पर टिकी है। अमेरिका और यूरोप में ही
रोजगार और मजदूरी संबंधी चिताओ के बारे में व्यापार और प्रवासियों का मसला उठाया
गया जिसमें माहौल बनाने में अहम भूमिका निभाई। इसी तरह प्रवासन के खिलाफ विष वमन
के लिए बड़ी चालाकी से सांस्कृतिक पहचान को हवा दी गयी ।तो इस्लाम विरोधी भावना को
उभारने के लिए धार्मिक रूढ़िवाद की याद दिलाई गई।
आज आर्थिक
उदारीकरण की नीतियों ने सम्पूर्ण राजनीति को विचारधारा विहीन बनाने में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई है। अगर आज ’लिंकन तथा जैफरसन
’ के देश में एक
घोर दक्षिणपंथी और गैर राजनीतिक व्यक्ति राष्ट्रपति के पद पर भारी बहुमत से पद पर
आसीन हो गया है तो हम खुद यह निर्णय कर सकते हैं कि इसके लिए कौन सी नीतियॉ और कौन
से व्यक्ति जिम्मेदार है और किसके खिलाफ वैश्विक संघर्ष की फौरी आवश्यकता है।
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