जनसंख्या वृद्धि का सांप्रदायिकीकरण
जनसांख्यकीय आंकड़ों को समझने की
ज़रूरत
राम पुनियानी
सांप्रदायिक ताकतों द्वारा धर्मपरिवर्तन व जनसंख्या वृद्धि के
संबंध में पूर्वाग्रहों और गलत धारणाओं का लंबे समय से समाज को बांटने के लिए
प्रयोग किया जा रहा है। इसी कड़ी में केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजुजू ने एक
ट्वीट कर कहा कि भारत में हिन्दू आबादी घट रही है क्योंकि हिन्दू धर्मपरिवर्तन
नहीं करवाते और यह भी कि पड़ोसी देशों के विपरीत, भारत में अल्पसंख्यक समृद्ध और
खुशहाल हैं।
लंबे समय से यह प्रचार किया जा रहा है कि देश की हिन्दू आबादी
कम हो रही है और मुसलमानों की आबादी में बढ़ोत्तरी हो रही है। सन 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में हिन्दू, कुल आबादी का 79.8 प्रतिशत हैं जबकि मुसलमान, आबादी का 14.23 प्रतिशत हैं। जनगणना 2011 के धार्मिक समुदायवार आंकड़ों से
पता चलता है कि 2001 से 2011 के बीच जहां देश की हिन्दू आबादी
में 16.76 प्रतिशत की वृद्धि हुई वहीं
मुसलमानों के मामले में यह आंकड़ा 24.6 प्रतिशत था। इसके पिछले दशक में
हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनों की आबादी में अपेक्षाकृत
अधिक वृद्धि हुई थी। 2001-2011 की अवधि में हिन्दुओं की आबादी 19.92 प्रतिशत बढ़ी जबकि मुसलमानों की
आबादी में 29.52 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
जनसांख्यकीय विशेषज्ञ कहते हैं कि दोनों समुदायों की जनसंख्या वृद्धि दर घट रही है
और इन दरों के बीच का अंतर कम हो रहा है।
स्पष्टतः हमें यह ध्यान में रखना होगा कि आने वाले समय में
मुस्लिम आबादी में वृद्धि की दर घटेगी और हिन्दू आबादी में वृद्धि दर के लगभग
बराबर हो जाएगी। परंतु भविष्य में कभी भी मुसलमानों की आबादी, हिन्दुओं से अधिक होने की संभावना
नहीं है। सन 2001 से लेकर 2011 के बीच हिन्दुओं की आबादी में 13.3 करोड़ की वृद्धि हुई, जो कि सन 2001 में मुसलमानों की कुल आबादी के
लगभग बराबर थी। यह साफ है कि मुसलमानों की आबादी के हिन्दुओं से अधिक हो जाने के
खतरे के संबंध में जो दुष्प्रचार किया जा रहा है, उसमें कोई दम नहीं है।
जनसांख्यकीय विशेषज्ञ कहते हैं कि अधिक प्रजनन दर, अक्सर शिक्षा के अभाव और
स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी का नतीजा होती है। केरल के मुसलमानों की प्रजनन दर, उत्तर भारत के हिन्दू समुदायों से
कहीं कम है और यहां तक कि केरल की कई हिन्दू जातियों से भी कम है। केरल के
मुसलमानों की आर्थिक स्थिति, असम, पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश व महाराष्ट्र आदि के
मुसलमानों से कहीं बेहतर है। यह तथ्य कि उच्च प्रजनन दर का संबंध शिक्षा और
स्वास्थ्य सुविधाओं आदि से होता है, इससे भी स्पष्ट है कि दलितों (अनुसूचित जातियों) और आदिवासियों (अनुसूचित जनजातियों) की जनसंख्या वृद्धि दर भी अन्य
समुदायों से अधिक है। सन 2011 की जनगणना के अनुसार, अनुसूचित जनजातियां, कुल आबादी का 8.6 प्रतिशत थीं। यह आंकड़ा सन 1951 में 6.23 प्रतिशत था। इसी तरह सन 1951 में अनुसूचित जातियों का आबादी
में प्रतिशत 15 था जो कि सन 2011 में बढ़कर 16.6 प्रतिशत हो गया। अतः यह स्पष्ट है
कि सांप्रदायिक तत्व जो दुष्प्रचार कर रहे हैं, उसमें तनिक भी सत्यता नहीं है और
उसका यथार्थ से कोई लेनादेना नहीं है। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि प्रवीण तोगड़िया
जैसे कुछ लोग यह मांग कर रहे हैं कि देश में दो से अधिक बच्चे पैदा करने पर
प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए वहीं साक्षी महाराज और साध्वी प्राची जैसे कुछ नेता
हिन्दुओं से यह अपील कर रहे हैं कि वे ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करें!
भाजपा अध्यक्ष ने लोगों से यह अपील की है कि वे ईसाईयों की
बढ़ती आबादी के खतरे को समझने के लिए उत्तर पूर्व की ओर देखें। उत्तर पूर्व, मुख्यतः आदिवासी इलाका है और यहां
सन 1931 से 1951 के बीच ईसाई आबादी के प्रतिशत में
वृद्धि हुई थी। इसका कारण था शिक्षा का प्रसार। अगर हम राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो
हमें पता चलेगा कि देश में ईसाईयों का कुल आबादी में प्रतिशत पिछले कुछ दशकों से
लगभग स्थिर बना हुआ है, बल्कि उसमें कमी आई है। सन 1971 में ईसाई, देश की आबादी का 2.60 प्रतिशत थे। यह आंकड़ा 1981 में 2.44,
1991 में 2.34, 2001 में 2.30 और 2011 में भी 2.30 था। इस तथ्य के बावजूद यह
दुष्प्रचार जारी है कि ईसाई मिशनरियां, आदिवासी क्षेत्रों में जमकर धर्म
परिवर्तन करवा रही हैं। सन 1991 में आरएसएस से जुड़े बजरंग दल के
दारा सिंह द्वारा ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टीवर्ट्स स्टेन्स को उसके दो नन्हे लड़कों
के साथ ज़िन्दा जला दिए जाने के बाद से देश में ईसाई विरोधी हिंसा की शुरूआत हुई।
वाधवा आयोग, जिसने पास्टर स्टेन्स की हत्या की
जांच की, इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि वे
धर्मपरिवर्तन नहीं करवा रहे थे और यह भी कि क्योनझार व मनोहरपुर इलाकों में, जहां वे काम कर रहे थे, ईसाईयों की आबादी के प्रतिशत में
कोई वृद्धि नहीं हुई थी। ओडिसा के कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के
बहाने ईसाई विरोधी हिंसा भड़काई गई। गुजरात में भी धर्मपरिवर्तन के मुद्दे पर
ईसाईयों के खिलाफ हिंसा हुई। इसके साथ ही, ये आंकड़े भी हमारे सामने हैं कि
ईसाईयों का कुल आबादी में प्रतिशत वही बना हुआ है। तो फिर आखिर धर्मपरिवर्तित ईसाई
कहां छुपे हुए हैं। कुछ लोगों का कहना है कि धर्मपरिवर्तित ईसाई, अपने धर्म को उजागर नहीं करते और
इसलिए ईसाई आबादी के संबंध में सही आंकड़े सामने नहीं आ पाते। यह केवल एक आरोप है
जिसका कोई तार्किक आधार नहीं है। और अगर हम यह मान भी लें कि ऐसा हो रहा है, तो भी यह बड़े पैमाने पर नहीं हो
रहा होगा।
धर्मपरिवर्तन हमेशा से हिन्दू राष्ट्रवादियों के एजेंडे पर रहा
है। आज़ादी के आंदोलन के दौरान धर्मपरिवर्तन करवाने की दो अलग-अलग मुहिम चल रही थीं। पहली थी तंज़ीम जो लोगों को मुसलमान
बनाना चाहती थी और दूसरी थी शुद्धि जो ‘विदेशी’ धर्मों के अनुयायी बन गए हिन्दुओं
को फिर से अपने घर वापस लाना चाहती थी। यह कहा जाता था कि धर्मपरिवर्तन कर लेने से
वे लोग ‘अशुद्ध’ हो गए हैं और इसलिए उन्हें ‘शुद्धि’ की प्रक्रिया से गुज़ार कर हिन्दू
बनाना ज़रूरी है। पिछले कई दशकों से आरएसएस, विहिप व वनवासी कल्याण आश्रम, घर वापसी अभियान चला रहे हैं
जिसका उद्देश्य उन दलितों और आदिवासियों को फिर से हिन्दू धर्म के झंडे तले लाना
है जो बल प्रयोग के कारण मुसलमान और लोभ लालच में फंसकर ईसाई बन गए हैं। यह घर
वापसी अभियान आदिवासी व ग्रामीण इलाकों और शहरों की मलिन बस्तियों में चलाया जा
रहा है।
आदिवासी, मूलतः, प्रकृति पूजक होते हैं। आरएसएस का
कहना है कि वे हिन्दू हैं। उन्हें हिन्दू बनाने के लिए वनवासी कल्याण आश्रम ने
उत्तर पूर्व में स्कूलों और होस्टलों का एक जाल बिछा दिया है। यह साफ है कि इन
सारे कार्यक्रमों का उद्देश्य राजनीतिक है और समाज की भलाई की बात केवल असली
इरादों को ढंकने के लिए कही जा रही है। दरअसल, संघ परिवार धर्म को राष्ट्रवाद से
जोड़ना चाहता है।
(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
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