डिकोडिंग “रईस”


जावेद अनीस



हिंदी सिनेमा देश के मुस्लिम समाज को परदे पर पेश करने के मामले में कंजूस रहा है और ऐसे मौके बहुत दुर्लभ ही रहे हैं जब किसी मुसलमान को मुख्य किरदार या हीरो के तौर पर प्रस्तुत किया गया हो. गर्म हवा”,“पाकीज़ा”,चौदहवीं का चांद,मेरे हुज़ूर,निकाह,शमा,नसीम”, “चक दे इंडिया, “इक़बाल”, “माय नेम इज खान, सुलतान” जैसी चुनिन्दा फिल्में ही रही हैं जिनकी पृष्ठिभूमि या मुख्य किरदार मुस्लिम रहे हैं. परदे पर मुस्लिम समुदाय या तो ज्यादातर गायब रहे हैं या अगर दिखे भी हैं तो नवाबहीरो के वफादार दोस्तरहीम चाचा और आतंकवादी जैसी भूमिकाओं में. 90 के दशक से हिंदी सिनेमा में खान तिकड़ी” का आगमन होता है जिसके बाद से अभी तक वे अपना वर्चस्व बनाये हुए हैं लेकिन इसी के साथ ही सिल्वर स्क्रीन पर मुस्लिम किरदारों के प्रस्तुतिकरण में और गिरावट होती हैइस दौरान वे स्टीरियोटाइप टोपी पहनेनकारात्मक किरदारों जैसे कट्टरपंथी, आतंवादीदेशद्रोही जैसे किरदारों में ही पेश किये जाते रहे.

पिछले दिनों चर्चित पत्रकार राणा अय्यूब ने एक लेख लिखा था जिसमें वे ध्यान दिलाती हैं कि किस तरह से बालीवुड के सबसे लोकप्रिय कलाकारों में एक शाहरुख खान ने अपनी पिछली कई फिल्मों में मुस्लिम किरदार निभाया है. वे गिनती है कि कैसे उन्होंने “' दिल है मुश्किलमें अपने कैमियो किरदार ताहिर खान, 'डियर ज़िन्दगीके जहांगीर खान, 'माई नेम इज़ खानके रिज़वान खान, 'चक दे इंडियाके कबीर खान जैसे किरदारों को निभाकर सिनेमा के परदे पर मुस्लिम छवि का 'सामान्यीकरणकिया है जो कि आपसी अविश्वास और नफरत की लकीरों के इस दौर में एक बहादुराना सकारात्मक सन्देश है. पिछले साल खान तिकड़ी के एक और सदस्य सलमान भी अपनी फिल्म सुलतान” में यह काम कर चुके हैं जहाँ उनका किरदार एक मुस्लिम पहलवान का था.

कु सालों पहले तक इस बात की कल्पना मुश्किल थी कि हिंदी सिनेमा का कोई सुपर स्टार परदे पर 'बनिये का दिमाग और मियां भाई की डेयरिंगजैसा डायलाग बोलेगा लेकिन आज शाहरुख खान अपनी नयी फिल्म रईस में ऐसा करते हुए दिखाई देते हैं. लेकिन रईसमें सिर्फ यही नहीं है, इस फिल्म की पूरी पृष्ठभूमि और लगभग सभी मुख्य किरदार मुस्लिम हैं. इसके किरदार भले ही लार्जर दैन लाईफ हों लेकिन फिल्म का ट्रीटमेंट सामान्य है जो इस फिल्म की खूबी है और शायद सीमा भी. इस फिल्म में मुस्लिम किरदारों का आम जीवन, व्यवहार, रहन-सहन, खान पान हकीकत के करीब है. गोश्त की दूकानें, ईद, मस्जिद, रोजा, नमाज, मुहर्रम के मातम बिरयानी, निकाह आदि को किसी अजूबे नहीं बहुत सामन्य तरीके से बताया गया है.    
  
ईस सहित पिछली फिल्मों में शाहरुख के मुस्लिम किरदार अपने आप में एक सन्देश हैं, ये फिल्में चाहे जैसी भी रही हों मुस्लिम समुदाय को सामान्य तरीके से पेश करने की एक ख़ास अहमियत है. लेकिन दुर्भाग्य से हर कोई इसकी तारीफ नहीं कर पा रहा है. कई लोग ऐसे हैं जिन्हें इससे परेशानी हो रही है. सत्तारूढ़ भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव उन्हीं लोगों में से एक हैं जिन्होंने रईसऔर शाहरुख खान को लगातार निशाना बनाया है, यहाँ तक कि उन्होंने शाहरुख़ की तुलना दाऊद इब्राहिम से कर दी. कैलाश विजयवर्गीय सोशल मीडिया पर इसके खिलाफ बाकायदा अभियान चलते रहे. जहाँ पर उन्होंने लिखा ''जो "रईस" देश का नहींवो किसी काम का नहीं और एक "काबिल" देशभक्त का साथतो हम सभी को देना ही चाहिए.'' एक दूसरा सन्देश भी आया जिसमें वे लिखते हैं प्रधानमंत्री मोदी जी ने नोट बंदी कर काले धन वाले रईसों’ को ज़मीन पर ला दिया. अब बारी देश की काबिल’ जनता की है. जो काबिल’ हैउसका हक़ कोई बेईमान रईस’  छीन पाए. अपने एक और सन्देश में वे बाकायदा प्रधानमंत्री और राहुल गाँधी की तस्वीर लगाते हुए लिखते हैं कि काबिल हो तो एक चाय वाला भी प्रधानमंत्री बन जाता हैवरना चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुआ रईस भी फटे कुर्ते पहनता हैजाहिर हैं अपने इन  संदेशों में वे एक ही तीर के कई निशाने साधने की कोशिश करते हैं  जिसमें सबसे बड़ा निशाना रईस और शाहरुख़ खान थे, वे साफ़ कह रहे हैं कि रईस मत देखो, काबिल का साथ दो.  यह एक तरह से एक मुस्लिम सुपर स्टारके मुकाबले एक हिन्दू सुपर स्टारपेश करने की कोशिश थी. हृतिक और शाहरुख को लेकर दिवगंत बाल ठाकरे भी ऐसा प्रयास पहले कर चुके हैं.

शाहरुख खान अपनी पिछली फिल्म ‘दिलवाले’ के समय भी इसी तरह के अभियानों का सामना कर चुके हैं. जिसके पीछे अहिष्णुता के मुद्दे पर दिया गया उनका बयान था कि देश में बढ़ रही असहिष्णुता से उन्हें तकलीफ महसूस होती है’. जिसके बाद उनको और उनकी फिल्म को निशाना बनाया गया और भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ ने उन्हें पाकिस्तान चले जाने की सलाह दी थी. 

पिछले कुछ सालों में शाहरुख़ की फिल्मी हैसियत कम हुई है अन्य दोनों खानों की तरह वे बदलते वक्त और ढलती उम्र के अनुसार अभी तक खुद को ढाल नहीं पाए हैं. 2014 में रिलीज हैप्पी न्यू ईयर के बाद उनकी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कोई ख़ास कमाल नहीं दिखा पायी हैं, रईस से उन्हें बहुत उम्मीदें हैं. शायद इसीलिए रईसमें वे अपने लिए कोई नया रास्ता चुनने के बजाये अपने पुराने फार्मूलों को ही आजमाते हुए नजर आते हैं. शाहरुख के उदय में 'बाज़ीगर', 'डरजैसी फिल्मों के खलनायक चरित्रों का बड़ा रोल रहा है. एंटी-हीरो किरदारों ने ही उन्हें स्टार बनाया है. रईस में इसी फार्मूले को एक बार फिर आजमाया गया है.
धिकारिक रूप से इस फ़िल्म को किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से जुड़ा होने से नकार दिया गया है लेकिन बताया जा रहा है कि रईस का किरदार गुजरात के बदनाम शराब माफ़िया अब्दुल लतीफ़ के जीवन पर आधारित है. यह रईस की कहानी है जो "ड्राई स्टेट" गुजरात में शराब के धंधे की मदद से अपना साम्राज्य बनाता है और इस खेल का सबसे बड़ा खिलाड़ी बन जाता है. लेकिन इसी के साथ रॉबिनहुड अंदाज़ में लोगों का मददगार भी है. फिल्म का बैकड्रॉप  2002 से पहले के गुजरात का है. कहानी में रईस की मां उसे सबक देती है कि धंधा छोटा नहीं होता है और धंधे से बड़ा कोई धर्म नहीं होता है ,जिससे किसी का नुकसान हो”, लेकिन रईस इस सबक का आधा हिस्सा ही याद रखता हैं और  गैर-कानूनी तरीके से शराब का धंधा और अन्य गैर कानूनी काम करने लगता है.उसके इस काम में सत्ता,पक्ष-विपक्ष के नेताबड़े पुलिस अधिकारी मददगार बनते हैं जिससे वह खूब फलता फूलता है. लेकिन इसी बीच एस पी जयदीप अम्बालाल मजूमदार (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) एक रूकावट के रूप में सामने आते हैं. यही दोनों किरदार कहानी को अपने अंजाम तक पहुँचाते हैं. यह एक नायकविहीन फिल्म है जिसके अंत में दोनों प्रमुख किरदार अपना-अपना पश्चाताप करते हैं, इस तरह से “लार्जर दैन लाईफहोते हुए भी वे अपना कोई आदर्श नहीं छोड़ते हैं. 

फिल्म में शाहरुख खान और नवाजुद्दीन सिद्दीक़ी के आलावा माहिरा खानअतुल कुलकर्णीजिशान और नरेन्द्र झा महत्वपूर्ण भूमिकाओं में हैं. शाहरुख 'रईसके किरदार में फिट बैठते हैं और अपने स्टारडम के बोझ को उतारते हुए वे इस किरदार में ढलने की पूरी कोशिश करते हैं, नवाजुद्दीन सिद्दीकी को फिल्म में जितनी भी जगह मिली है उन्होंने इसका भरपूर इस्तेमाल किया है और ऐसा करते हुए वे कई बार शाहरुख पर भारी भी पड़ते हैं. अपने सहज अभिनय के मदद से वे फिल्म की कमियों को ढकने की पूरी कोशिश करते हैं, जिशान और नरेंद्र झा का काम भी शानदार हैमाहिरा खान का किरदार कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाता है और उनका अभिनय भी भावहीन लगता है, कई जगह गाने भी जबरदस्ती ठूसे हुए लगते हैं, लैला मैं लैलाइकलौता  ऐसा गाना है जो कहानी के साथ जुड़ता है और शानदार बन पड़ा है.

इस फिल्म के निर्देशक राहुल ढोलकिया हैं जो परजानिया जैसी फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड जीत चुके है, जो कि  2002 में गुलबर्ग सोसायटी नरसंहार पर आधारित है.  इस बार उन्होंने मसाला जोनर की फिल्म में हाथ आजमाया है लेकिन वे संतुलन साधने से चूक गये हैं. यहाँ उन्हें मनोरंजन आधारित मसाला सिनेमा और लोकप्रिय सुपरस्टार से डील करना था ऐसा करते हुए उन्होंने फिल्म का अप्रोच रियलिस्टिक रखा हैशायद इसीलिए  फिल्म बनावटी नजर नहीं आती है और वास्तविकता के करीब से गुजरती है. लेकिन यही इस फिल्म की खासियत है और सीमा भी .


'ईस' की कहानी बेहद साधारण है जिसे कई बार दोहराया जा चूका है. लेकिन इसी के साथ यह 2002 से पहले के गुजरात की कहानी कहती है राहुल ढोलकिया के शब्दों में कहें तो मोदी से पहले के गुजरात की कहानी जब वहां “हम” और “वे” की खायी इतनी चौड़ी नहीं थी और सभी तरह के खान-पान, रहन-सहन के तरीकों के लिए जगह थी. रईस की अपनी राजनीति भी है यह अपनी प्रस्तुति और किरदारों के माध्यम से कई सन्देश देती है जैसे कि दंगे से प्रभावित लोगों को हिन्दू-मुसलमान नहीं बल्कि इंसान की नजर से देखा जाये और मदद के दौरान इनमें कोई फर्क नहीं किया जाये. फिल्म में रईस का एक डायलाग है “मेरे लिए धंधे से बड़ा कोई धर्म नहीं है, लेकिन मैं धर्म का धंधा नहीं करता”. शायद यह कैलाश विजयवर्गीयों के लिए एक पैगाम हैं 



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