“न्यूटन” भारतीय सिनेमा का काला हास्य
जावेद अनीस
भारतीय
सिनेमा के लिये “न्यूटन” एक नये मिजाज की फ़िल्म है बिलकुल ताजी, साबूत और एक ही
साथ गंभीर और मजेदार. इसमें सादगी और भव्यता का विलक्ष्ण संयोग है. न्यूटन का
विषयवस्तु भारी-भरकम है लेकिन इसका ट्रीटमेंट बहुत ही सीधा और सरल है बिलकुल मक्खन
की तरह. सिनेमा का यह मक्खन आपको बिलकुल इसी दुनिया का सैर कराता है जिसमें हमारी
जिंदगी की सारी खुरदरी हकीकतें दिखाई पड़ती हैं लेकिन इसी के साथ ही यह सिनेमा के
बुनियादी नियम मनोरंजन को भी नहीं भूलती है. यह एक क्लास विषय पर मास फिल्म है. नक्सल प्रभावित इलाके में चुनाव जैसे
भारी भरकम विषय वाली किसी सिताराविहीन फिल्म से आप मनोरंजन की उम्मीद नहीं करते
हैं. ऐसा भी नहीं है कि इस विषय पर पहले भी फिल्में ना बनी हों लेकिन ‘न्यूटन’ का मनोरंजक होना इसे अलग और ख़ास बना देता
है. यह अपने समय से उलटी धारा की फिल्म है. आदर्शहीनता के इस दौर में इसका नायक
घनघोर आदर्शवादी है और ऐसा करते हुए वो अजूबा दिखाई पड़ता है यही इस फिल्म का काला
हास्य है.
‘न्यूटन’ एक राजनीतक फिल्म है जिसे बहुत ही सशक्त तरीके से सिनेमा की
भाषा में गढ़ा गया है. यह सिनेमा के ताकत का एहसास कराती है. इस फिल्म की कई परतें
है लेकिन अगर आप एक जागरूक नागरिक नहीं हैं तो इन्हें पकड़ने में चूक कर सकते हैं. ‘न्यूटन’ एक ऐसे विषय
पर आधारित है जिसपर बात करने से आम तौर पर लोग कतराते हैं. ये हमें
देश के एक ऐसे दुर्गम इलाके की यात्रा पर ले जाती है जिसको लेकर हम सिर्फ कहानियां
और फ़साने ही सुन पाते हैं. प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इस इलाके में आदिवासी रहते
हैं जो नक्सलियों और व्यवस्था के बीच जी रहे हैं. दंड्यकारंण्य
के जंगल दुनिया से कटे हुए है और यहाँ सिर्फ नक्सलवाद और उदासीन सिस्टम की
प्रेतछाया की दिखाई पड़ती है.
फिल्म का
हर किरदार एक प्रतीक है जिसका सीधा जुड़ाव हकीकत की दुनिया से है. ये कहानी नूतन उर्फ न्यूटन कुमार (राजकुमार राव) की है जो एक सरकारी कलर्क है.
वो पागलपन की हद तक ईमानदार और आदर्शवादी है. उनकी ड्यूटी छत्तीसगढ़ के नक्सल
प्रभावित जंगली इलाके में चुनाव के लिये लगायी जाती है. यह एक ऐसा इलाका है जहाँ
नक्सलियों ने चुनाव का बहिष्कार कर रखा है. जाहिर है किसी के लिए भी यहाँ चुनाव
कराना जोखिम और चुनौती भरा काम है. न्यूटन अपने साथियों लोकनाथ(रघुवीर
यादव) और स्थानीय शिक्षिका माल्को (अंजली पाटिल) उस
इलाके में जाता है. सिक्योरिटी हेड आत्मा
सिंह (पंकज त्रिपाठी) और उसके साथी इस काम में उन्हें सुरक्षा देते हैं लेकिन आत्मा
सिंह और न्यूटन के बीच टकराव की
स्थिति बन जाती है, जहाँ आत्मा सिंह मतदान के इस काम को बिलकुल टालने और खानापूर्ति
वाले अंदाज में करना चाहता है वहीँ न्यूटन का नजरिया बिलकुल
उल्टा है, वो काम के प्रति आस्था और बेहतरी की उम्मीद से लबरेज
है और किसी
भी तरीके से निष्पक्ष मतदान प्रक्रिया को अंजाम देना चाहता है और इसके लिये वो हर
तरह के खतरे और रिस्क को उठाने को तैयार है.
राजकुमार राव,
पंकज
त्रिपाठी,
अंजलि
पाटिल,
रघुबीर
यादव जैसे अव्वल दर्जे के कलाकारों से सजी यह फिल्म आपको किसी स्टार की कमी महसूस
नहीं होने देती है. राजकुमार राव के पास अब कुछ भी साबित करने को नहीं बचा है इसके
बावजूद भी वो हर बार अपने अभिनय से हमें चौंकाते
हैं, वे अपने किरदारों में इस कदर समां जाते हैं कि कोई फर्क नहीं बचता है. यहाँ
भी उन्होंने ठीक यही काम किया है.रघुवीर यादव पुराने और मंजे हुए
कलाकार हैं जो की इस फिल्म में साफ़ नजर आता है. पंकज
त्रिपाठी के लिए यह साल गोल्डन साल साबित हो रहा है, उनके अभिनय की सहजता आकर्षित
करती है. इन सबके बीच अंजलि पाटिल स्मिता पाटिल की याद दिला जाती हैं.
एक भारी
भरकम विषय को बेहद हलके फुलके अंदाज में पेश करना एक अद्भुत कला है. यह विलक्षण
संतुलन की मांग करता है. निर्देशक अमित मसुरकर ने यह काम कर
दिखाया है. अपने इस दूसरी फिल्म से ही उन्होंने बता दिया है कि वे यहाँ किसी बने
बनाये लीक पर चलने नहीं आये हैं बल्कि नये रास्ते खोजने आये हैं जिसपर दूसरे
निर्देशकों को चलना है. वे उम्मीदें जागते है जिसपर आने वाले समय में उन्हें खरा
उतरना है.
प्रोपगंडा भरे इस दौर में बिना किसी एजेंडे के सामने आना दुर्लभ है. दरअसल इस तरह के विषयों पर बनने वाली ज्यादातर फिल्में अपना एक पक्ष
चुन लेती है और फिर सही या गलत का फैसला सुनाने लगती हैं.लेकिन ‘न्यूटन’ में इसकी
जरूरत ही नहीं महसूस की गयी हैं. इसमें बिना किसी एक पक्ष को चुने हुए कहानी को
बयान किया गया है और तथ्यों को सामने रखने की
कोशिश की गयी है. सिनेमा की बारीकी देखिए कि न्यूटन किसी भी तरह से ना आपको भड़काती है और ना ही
उकसाती है और ना ही कोई सवाल
उठाती हुई ही दिखाई पड़ती है लेकिन बतौर दर्शकों आप इन सवालों को महसूस करने लगते
हैं और कई पक्षों में अपना भी एक पक्ष चुनने लगते हैं. फिल्म का हर दृश्य बोलता है
जो कि कमाल है. न्यूटन एक परिपक्व सिनेमा
है जो कहानी को नये ढंग से बयान करती है, उम्मीद की जानी चाहिए कि भारतीय सिनेमा
का यह काला हास्य दुर्लभ बन कर नहीं रह जायेगा.
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