स्वर्णिम मध्यप्रदेश की पोलखोल
जावेद
अनीस
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी सरकार के लोग यह दावा
करते नहीं थकते हैं कि मध्यप्रदेश तरक्की की राह पर चलते हुए बीमारू राज्य के तमगे
को काफी पीछे छोड़ चूका है, स्वर्णिम
मध्यप्रदेश के दावों, विकास दर के आंकड़ों, सबसे ज्यादा कृषि कर्मण अवार्ड के मेडल
और बेहिसाब विज्ञापन के सहारे ये माहौल बनाने की कोशिश की जाती है कि मध्यप्रदेश ने
बड़ी तेजी से तरक्की की है. यहां तक कि शिवराज सिंह चौहान की सरकार 'आनंद मंत्रालय' खोलने वाली पहली सरकार भी बन चुकी है.
लेकिन जमीनी हालत देखें तो प्रदेश की बड़ी आबादी आनंद में
नहीं है, आंकड़े इस बात की चुगली करते हैं कि तथाकथित मध्यप्रदेश माडल के दावे
खोखले हैं. जमीनी हालात बता रहे हैं कि तमाम आंकड़ेबाजी और दावों के बावजूद
मध्यप्रदेश “बीमारु प्रदेश”
के तमगे से बहुत आगे नहीं बढ़ सका है. पिछले दिनों नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने मध्यप्रदेश को
पिछड़ा प्रदेश कहके इसी बात की पुष्टि की है. हालांकि बाद में उन्हें इसको लेकर
सफाई भी पेश करनी पड़ी. लेकिन तब तक इसे विपक्षी कांग्रेस ने लपक लिया था. नेता
प्रतिपक्ष अजय सिंह ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर हमला बोलते हुये उनकी
सरकार को पैसा, प्रचार, प्रपंच और पाखंड की सरकार बताया और उनसे झूठ बोलने के लिए
प्रदेश की जनता से माफी मांगने को कहा.
इससे पहले नीति आयोग ने पिछले साल अक्टूबर में देश के जिन 201 सबसे पिछड़े जिलों की सूची जारी की थी उसमें मध्यप्रदेश तीसरे
स्थान पर था. इस सूची में मध्यप्रदेश के 18 जिले शामिल है जो कुपोषण, भुखमरी, बाल व मातृ मृत्यु की ऊँची
दरों, बेरोज़गारी, बदलहाल शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, पेयजल जैसी मूलभूत
सुविधाओं को लेकर देश के बदतर जिलों में शामिल हैं, ये 18 जिले आदिवासी बहुल जिले
हैं.
इस साल दिसम्बर में भाजपा को सूबे की सत्ता में आये हुए
पंद्रह साल पूरे हो जायेंगें. इससे पहले नवंबर में शिवराज सिंह चौहान भी बतौर
मुख्यमंत्री अपने 13 साल पूरे कर लेंगें. जाहिर है ये एक बड़ा अरसा है ऐसे में
सवाल उठना लाजिमी है कि इतने लम्बे समय तक सत्ता में रहने के बाद सूबे की स्थिति
में क्या सुधार हुए हैं ?
मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान जनता को लुभाने वाली घोषणाओं के लिए
भी खासे मशहूर हैं. इसकी वजह से उन्हें घोषणावीर मुख्यमंत्री भी कहा जाता है.
हालांकि एक दशक का अनुभव बताता है कि इनमें से ज्यादातर घोषणायें जमीन पर उतरती
हुई दिखाई नहीं पड़ती हैं. मई 2010 में मध्यप्रदेश विधानसभा के विशेष सत्र
में मुख्यमंत्री शिवराज ने मध्यप्रदेश के सर्वांगीण और समावेशी विकास के लिये 70 सूत्रीय संकल्प प्रस्तुत किया था जिसमें प्रदेश
में खेती को लाभ का धंधा बनाने, मूलभूत सेवाओं के
विस्तार के साथ अधोसंरचना का निरंतर सुदृढ़ीकरण करने, निवेश
का अनुकूल वातावरण निर्मित करने, सबको गुणवत्तापूर्ण
शिक्षा एवं स्वास्थ्य व्यवस्था उपलब्ध करने, सुदृढ़
सुरक्षा एवं कानून व्यवस्था स्थापित करने जैसे बिंदु शामिल थे. आज इस संकल्प को आठ
साल पूरे हो चुके हैं लेकिन ये वादों की पोटली बनकर ही रखे हुये हैं.
दावा
किया जाता है कि मध्यप्रदेश का जीडीपी 10 प्रतिशत से ऊपर है लेकिन सूबे की माली
हालत देखें तो मध्यप्रदेश सरकार पर वर्ष 2001-02 में 23934
करोड़ रूपए का क़र्ज़ था. जो अब बढ़कर 118984 करोड़
रूपए हो गया है. राज्य की अधिकांश जनता आज भी खेती पर ही निर्भर हैं. गैर कृषि
क्षेत्र में मप्र की विकास दर 6.7 प्रतिशत है, जबकि
राष्ट्रीय औसत 8 से ऊपर है जाहिर है सूबे की औद्योगिक विकास की गति धीमी है और
इसके लिए जरूरत के अनुसार अधोसंरचना नहीं
बनायीं जा सकी है. इसी तरह से सांख्यिकी मंत्रालय की हालिया आंकड़े बताते हैं कि
सूबे की प्रति व्यक्ति आय अभी भी राष्ट्रीय औसत से
आधी है और इसके बढ़ने की रफ्तार बहुत धीमी है. मध्य प्रदेश में पिछले 10 सालों
में सूबे में करीब 11 लाख गरीब बढ़े हैं और यहां गरीबी का अनुपात 31.65 प्रतिशत
है है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर 21.92
प्रतिशत है.
शिवराज सिंह चौहान दावा करना नहीं भूलते कि उनकी सरकार ने
खेती को फायदे का धंधा बना दिया है और इसके लिये मध्यप्रदेश सरकार लगातार पांच वर्षों
से कृषि कर्मण का मेडल हासिल करती आ रही है लेकिन राज्य में किसानों के आत्महत्याओं के आंकड़े परेशान केने
वाले हैं. इस साल मार्च में केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा लोकसभा में जो जानकारी
दी गयी है उसके अनुसार 2013 के बाद से मध्यप्रदेश
में लगातार किसानों की खुदकुशी के मामले बढ़ हैं, साल 2013 में 1090, 2014 में 1198, 2015 में
1290 और 2016 में 1321 किसानों ने आत्महत्या की है.
अगर हम मध्यप्रदेश की मानव विकास सूचकांकों को देखें तो
आंकड़े शर्मिंदा करने वाले हैं. कुछ साल पहले एम.डी.जी. की रिपोर्ट आयी थी जिसके
अनुसार मानव विकास सूचकांकों में प्रदेश के पिछड़े होने का प्रमुख कारण सरकार द्वारा
सामाजिक क्षेत्र की लगातार की गयी अनदेखी है. राज्य सरकार स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण
और अन्य सामाजिक क्षेत्रों में कम निवेश करती है, रिपोर्ट के अनुसार म.प्र सामाजिक क्षेत्रों में अपने बजट का
39 प्रतिशत हिस्सा ही खर्च करता है जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 42 प्रतिशत है.
शायद यही
वजह है कि आज भी मध्यप्रदेश शिशु मृत्यु दर में पहले और कुपोषण में दूसरे नंबर पर
बना हुआ है. इसके लिये तमाम योजनाओं, कार्यक्रमों और
पानी की तरह पैसा खर्च करने के बावजूद स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है. कुपोषण
के मामले में मध्यप्रदेश लम्बे समय से बदनामी का दंश झेल रहा है. राष्ट्रीय परिवार
स्वास्थ्य सर्वेक्षण 4 (2015-16) के अनुसार राज्य में 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषित
हैं और ताजा स्थिति ये है कि वर्तमान में मध्यप्रदेश में कुपोषण की वजहों से हर
रोज अपनी जान गवाने वाले बच्चों की औसत संख्या 92 हो गई है जबकि 2016 में यह
आंकड़ा 74 ही था.
शिशु मृत्यु
दर के मामले में मध्यप्रदेश लगातार एक दशक से अधिक समय से पूरे देश में पहले स्थान
पर बना हुआ है. एनुअल हेल्थ सर्वे 2014 के अनुसार शिशु मृत्यु दर में मध्यप्रदेश
पूरे देश में पहले स्थान पर है जहाँ 1000 नवजातों में से 52 अपना पहला जन्मदिन
नहीं मना पाते हैं. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर आधा यानी 26 ही है. प्रदेश के
ग्रामिण क्षेत्रों में स्थिति ओर चिंताजनक है जहाँ शिशु मृत्यु दर 57 है.
मध्यप्रदेश में 5 साल से कम उम्र के 58 प्रतिशत लड़कों और 43 प्रतिशत लड़कियों की
लम्बाई औसत से कम है, इसी तरह से 49.2 फीसदी लड़कों और 30
प्रतिशत लड़कियों का वजन भी औसत से कम है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 4
के अनुसार 5 साल से कम उम्र के हर 100 बच्चों में से लगभग 40 बच्चों का विकास ठीक
से नही हो पाता है, इसी तरह से 5 साल से कम उम्र के लगभग 60
प्रतिशत बच्चे खून की कमी के शिकार हैं और केवल 55 प्रतिशत बच्चों का ही सम्पूर्ण
टीकाकरण हो पाता है.
महिलाओं की बात करें तो प्रदेश में केवल 16.2 प्रतिशत
महिलाओं को प्रसव पूर्ण देखरेख मिल पाती है. जिसकी वजह से यहां हर एक लाख गर्भवती
महिलाओं में से 221 को प्रसव के वक्त जान से हाथ धोना पड़ता है. जबकि राष्ट्रीय
स्तर पर यह आंकड़ा 167 है यहाँ उपरोक्त स्थितियों का मुख्य कारण बड़ी संख्या में
डाक्टरों की कमी और स्वास्थ्य सेवाओं का जर्जर होना है जैसे म.प्र. में कुल 334 बाल रोग
विशेषज्ञ होने चाहिए जबकि वर्तमान में केवल 85 ही पदस्थ
हैं.
दरअसल कुपोषण की जड़ें गरीबी, बीमारी, भूखमरी और जीवन के बुनियादी जरूरतों के अभाव में है. अभाव
और भूखमरी की मार सबसे ज्यादा बच्चों और गर्भवती महिलाओं पर पड़ती है. आवश्यक भोजन
नही मिलने की वजह से बड़ों का शरीर तो फिर भी कम प्रभावित होता है लेकिन बच्चों पर
इसका असर तुरंत पड़ता है, जिसका प्रभाव
लम्बे समय तक रहता है, गर्भवती
महिलाओं को जरुरी पोषण नही मिल पाने के कारण उनके बच्चे तय मानक से कम वजन के होते
ही है साथ ही जन्म के बाद अभाव और गरीबी उन्हें भरपेट भोजन भी नसीब नही होने देती
है, नतीजा कुपोषण होता है जिसकी मार या तो दुखद रुप से जान ही
ले लेती है या इसका असर ताजिंदगी दिखता है.
स्वास्थ्य सेवाओं की बात करें तो नीति आयोग द्वारा हेल्थी
स्टेट्स प्रोग्रेसिवट इंडिया नाम से जारी की गयी रिपोर्ट में मध्यप्रदेश को 17वें
स्थान मिला है और इस मैले में उसे 100 में से मात्र 40.09 अंक मिले है, रिपोर्ट के
अनुसार मध्यप्रदेश के अस्पतालों में कुल जरूरत की अपेक्षा 58.34 प्रतिशत डॉक्टर ही
हैं. इसी तरह से बालिका शिशु जन्मदर में भी भारी गिरावट हुयी है रिपोर्ट के अनुसार
मध्यप्रदेश में 2014-15 में प्रति हजार लड़कों पर 927 थी, जो 2015-16 में
घटकर 919 रह गई. यह स्थिति तब है जब यहां लाडली लक्ष्मी जैसी बहु प्रचारित
योजनायें चलाई जा रही हैं.
शिक्षा की बात करें तो पिछले साल के आर्थिक
सर्वेक्षण के अनुसार
मध्यप्रदेश में साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से चार प्रतिशत कम है और सूबे की चालीस
प्रतिशत महिलायें तो अभी भी असाक्षर हैं. 2017
के आखिरी महीनों में जारी की गयी आरटीआई पर कैग की रिपोर्ट के अनुसार बच्चों के स्कूल
छोड़ने के मामले में मध्य प्रदेश का देश में चौथा स्थान है, रिपोर्ट में बताया है कि
सत्र 2013
से 2016 के बीच स्कूलों में बच्चों के
दाखिले में सात से दस लाख की गिरावट पाई गई है. इसी तरह से प्रदेश के सरकारी स्कूलों में में करीब 30 हजार
शिक्षकों के पद खाली है जिसका असर बच्चों की शिक्षा पर देखने को मिल रहा है और
यहां पढ़ने वाले बच्चों की संख्या बड़ी तेजी
से घट रही है.
मध्यप्रदेश की लगभग
21 प्रतिशत जनसँख्या
आदिवासी है और इस बदहाली का असर भी उन्हीं पर सबसे ज्यादा है. दिनांक 11 मई 2018
को दैनिक समाचार पत्र पत्रिका में प्रकाशित खबर के अनुसार मध्यप्रदेश सरकार पिछले
करीब डेढ़ दशक (2003-04 से 2018-19 ) के बीच अनुसूचित जाति जनजाति वर्ग के विकास के
नाम पर 2215.07 अरब रूपये खर्च कर चुकी है लेकिन इसके बावजूद भी उनकी बड़ी आबादी
भुखमरी,कुपोषण,गरीबी,बीमारी और जीवन जीने के बुनियादी सुविधाओं से महरूम है .
मध्यप्रदेश में कुपोषण से सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों में
श्योपूर (55 प्रतिशत),बड़वानी (55 प्रतिशत), (52.7 प्रतिशत), मुरैना (52.2 प्रतिशत) और गुना में (51.2 प्रतिशत) जैसे
आदिवासी बहुल जिले शामिल हैं. गरीबी इसका मूल कारण है, जिसकी वजह से उनके आहार में पोषक तत्व ना के बराबर होती है.
आंकड़ों की बात करें तो भारत सरकार द्वारा जारी ‘‘रिर्पोट आफ द हाई लेबल कमेटी आन सोशियो इकोनामिक, हैल्थ एंड एजुकेशनल स्टेटस आफ ट्राइबल कम्यूनिटी 2014” के अनुसार
राष्ट्रीय स्तर पर आदिवसी समुदाय में शिशु मृत्यु दर 88 है जबकि
मध्यप्रदेश में यह दर 113 है, इसी तरह से
राष्ट्रीय स्तर पर 5 साल से कम
उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 129 है वही प्रदेश में यह दर 175
है.
दरअसल आदिवासी समाज पर ही आधुनिक विकास की मार सबसे ज्यादा
पड़ती है. वे लगातार अपने परम्परागत संसाधनों से दूर होते गए हैं. देश के अन्य
भागों की तरह मध्यप्रदेश के आदिवासी भी अपने इलाके में आ रही भीमकाय विकास
परियोजनाओं, बड़े बांधों और
वन्य-प्राणी अभ्यारण्यों की रिजर्वों की वजह से व्यापक रूप से विस्थापन का दंश
झेलने को मजबूर हुए हैं और लगातार गरीबी व भूख के दलदल में फंसते गये हैं.
सूबे में दलित समुदाय की स्थिति क्या है इसको एक हालिया
घटना से समझा जा सकता है बीते 16 अप्रैल को उज्जैन जिले के अंतर्गत आने वाले महिदपुर
तहसील के एसडीएम ने सभी पंचायतों को आदेश जारी किया था कि वे अपने क्षेत्र में किसी
भी दलित परिवार के यहां होने वाली शादी की
सूचना कम से कम तीन दिन पहले नज़दीकी पुलिस थाने को दें जिससे बारात के दौरान पुलिस
सुरक्षा का इंतज़ाम किया जा सके. हालांकि बाद में विरोध को देखते हुये जिला कलेक्टर द्वारा एसडीएम
के इस आदेश को निरस्त कर दिया गया. लेकिन उपरोक्त घटना बताती है कि मध्यप्रदेश में
दलितों को अपने ही परिवार में शादी जैसे मौकों पर भी पुलिस प्रोटेक्शन की जरूरत है.
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