मिशन 2019 से पहले 2018 की चुनौती


कांग्रेस के लिये करो या मरो का सवाल

जावेद अनीस



इस साल के अंत तक मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में चुनाव होने है. यह सही मायनों में 2019 में होने वाले देश के आम चुनाव का सेमीफाइनल होगा जिसमें तीन बड़े राज्यों में देश की दोनों प्रमुख पार्टियाँ सीधे तौर पर आपने- सामने होंगीं. मध्यप्रदेश, राजस्थान और  छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार है और कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो भाजपा पिछले पंद्रह सालों से सत्ता में है जबकि राजस्थान में उसकी पांच साल से सरकार है.पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा इन तीनों राज्यों की 65 लोकसभा सीटों में से 62 सीटों पर चुनाव जीती थी लेकिन अब भाजपा के लिये आगे की राह इतनी आसान नहीं होने वाले है.

दरअसल कर्नाटक और कैराना के नतीजों ने विपक्षी खेमे में जान फूंकने का काम किया है, 2014 के बाद से विपक्ष पहली बार इतना उत्साहित और एकजुट नजर आ रहा है. कर्नाटक में एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह भाजपा के खिलाफ विपक्ष की एकजुटता का एक मंच साबित हुआ है. आपसी एकजुटता के सहारे अब उन्हें भाजपा और नरेंद्र मोदी के रथ पर लगाम लगाना संभव लगने लगा है जिसके बाद से आगामी चुनाव के दौरान भाजपा की राह आसान नहीं रहने वाली है. इधर कांग्रेस कर्नाटक में गठबंधन के सहारे ही सही पहली बार किसी राज्य में दोबारा सत्ता में वापसी करने में कामयाब हुयी है और इन तीनों राज्यों में सत्ता विरोधी रुझान के कारण उसे अपनी वापसी संभव नजर आ रही है साथ ही अब राहुल गांधी गटबंधन की राजनीति में भरोसा कर रहे हैं. अगर इन तीनों राज्यों में कांग्रेस का बहुजन समाज पार्टी और अन्य छोटे दलों के साथ गठबंधन होता है तो फिर भाजपा की राह आसान नहीं होने वाली है. वहीँ दूसरी तरफ भाजपा की रणनीति किसी भी हिसाब से सत्ता विरोधी लहर को काबू करते हुये कांग्रेस के शासनकाल को सामने रखते हुये आगे बढ़ना है, इन तीनों राज्यों में अपने पुराने चेहरों को ही आगे रखते हुये विधानसभा चुनाव में उतरेगी जिसके साथ मोदी ब्रांड और अमित शाह के रणनीति भी जुड़ कर अपने इन किलों का बचाव करेगी.

मध्यप्रदेश में कड़ी टक्कर के आसार

इस साल दिसम्बर में भाजपा को सूबे की सत्ता में आये हुए पंद्रह साल पूरे हो जायेंगें और नवंबर में शिवराज सिंह चौहान भी बतौर मुख्यमंत्री अपने 13 साल पूरे कर लेंगें. ऐसा माना जाता है कि पिछले चौदह सालों से मध्यप्रदेश में कांग्रेसी भाजपा से कम और आपस में ज़्यादा लड़ते रहे हैं. इस दौरान अगर कांग्रेस खुद को भाजपा के विकल्प के रूप में पेश करने में नाकाम रही है तो इसके पीछे खुद कांग्रेस के नेता ही जिम्मेदार हैं क्योंकि चुनावों के दौरान कई गुटों में विभाजित कांग्रेस के नेता भाजपा से ज्यादा एक दूसरे के खिलाफ संघर्ष करते हुए ही नजर आते रहे हैं. अब हाईकमान की रणनीति इस स्थिति को बदलने की है. लम्बे समय से अनिर्णय की स्थिति में चल रहे कांग्रेस संगठन में बड़े बदलाव हो चुके हैं जिसके तहत कमलनाथ प्रदेश अध्यक्ष और ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव प्रचार समिति की कमान दी गयी है इसके साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को कोआर्डिनेशन कमेटी का चेयरमैन बनाया गया है. नयी टीम के आने के बाद से कांग्रेस की चुनावी तैयारियों में तेजी आई है और पार्टी ने 150 सीटें जीतने का लक्ष्य का रखा है.

इधर भाजपा की रणनीति में भी बदलाव देखने को मिल रहा है. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पिछले साल अगस्त महीने में जब भोपाल आये थे तो उन्होंने ऐलान किया था कि 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा की तरफ से शिवराज सिंह चौहान चेहरा होगें लेकिन बीते 4 मई को जब अमित शाह भोपाल में आयोजित कार्यकर्ता सम्मेलन में कुछ घंटों के लिये आये थे तो उन्होंने साफतौर पर कहा कि ‘मध्यप्रदेश में आगामी चुनाव के लिये पार्टी की तरफ से कोई चेहरा नहीं होगा और इसे संगठन के दम पर लड़ा जाएगा.’ अमित शाह को मध्यप्रदेश में सत्ता विरोधी लहर का अहसास भी है तभी 12 जून को जबलपुर में चुनाव की तैयारियों का जायजा लेने अमित शाह ने सत्ता विरोधी लहर को स्वीकार करते हुये विपक्षी कांग्रेस को कमजोर ना समझने की नसीहत दी है और किसान, व्यापारी और आदिवासियों वर्ग पर फोकस करने को कहा है.

दरअसल मध्यप्रदेश में चुनाव से ठीक पहले किसान आन्दोलन एक बार फिर उबाल पर है जिसका केंद्र वही मंदसौर है जहां पिछले साल आन्दोलन कर रहे किसनों पर गोली चलायी गयी थी. कांग्रेस किसानों के इस गुस्से को भुनाना चाहती है. राहुल गांधी ने इसी रणनीति के तहत 6 जून मंदसौर गोलीकांड के दिन को ही मध्यप्रदेश में अपने चुनावी अभियान के रूप में चुना था.

इससे पूर्व मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने कभी भी सपा और बसपा जैसे दलों को इतना महत्त्व नहीं दिया था लेकिन इस बार कांग्रेस की कोशिश है कि उसका मध्यप्रदेश में बसपा, सपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन हो जाये जिससे भाजपा विरोधी मतों के बंटवारे को रोका जा सके.दरअसल मध्यप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी का करीब अस्सी सीटों पर प्रभाव है जबकि समाजवादी पार्टी का असर भी करीब 25 सीटों पर हैं. अगर ये गठबंधन हो जाता है और शिवराज सरकार किसानों के गुस्से को समय रहते शांत नही कर पायी तो मध्यप्रदेश में उसे कांग्रेस से कांटे की टक्कर के लिये तैयार रहना होगा. चुनावी साल में किसानों का यह गुस्सा और तेवर शिवराज सरकार के लिये बड़ी चुनौती साबित हो  सकता है.

छतीसगढ़ तीसरे ताकत की दस्तक

कभी अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा रहे छतीसगढ़ के राजनीति की तासीर कमोबेश मध्यप्रदेश की ही तरह है.आदिवासी बाहुल्य इस राज्य में पिछले पंद्रह सालों से भाजपा की हकुमत है और रमन सिंह भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री के पद पर सबसे लंबे समय तक रहने वाले नेता बन चुके हैं, वे साल 2003 से इस पद पर बने हुए हैं.
छतीसगढ़ की सबसे ख़ास बात ये है कि यहाँ कांग्रेस और भाजपा के बीच हार-जीत का फासला बहुत कम होता है लेकिन इस बार तीसरी पार्टी भी दावेदारी कर रही है, कांग्रेस से निकल कर नयी पार्टी बना चुके अजित जोगी मैदान में है और वे अपने आप को किंग मेकर की भूमिका में देख रहे हैं.
इसी तरह से आदिवासी बाहुल्य इस राज्य में सर्व आदिवासी समाज नाम के संगठन ने राज्य में आदिवासियों के लिये आरक्षित 29 सीटों में से 20 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने के ऐलान ने  सत्ताधारी भाजपा और विपक्षी कांग्रेस की बेचैनी को बढ़ा दिया है.
छत्तीसगढ़ में दोनों पार्टियों की तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी चुनावी बिगुल बजा चुके हैं भाजपा की रणनीत आदिवासी और मिडिल क्लास पर फोकस करते हुये रमन सिंह के चेहरे और प्रधानमंत्री नेन्द्र मोदी के सहारे आगे बढ़ने की है, वहीँ कांग्रेस यहां भी बसपा के साथ चुनाव पूर्व गटबंधन की कोशिश में है. 2013 के विधान सभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच जीत-हार का अंतर लगभग एक प्रतिशत ही था जबकि इस दौरान बसपा को करीब साढ़े चार फीसदी वोट मिले थे, इस लिये कांग्रेस की पूरी कोशिश है कि भाजपा से मुकाबले के लिये उसे हाथी की सवारी मिल जाए जिससे अंतर को अपने पक्ष में किया जा सके. इसके साथ ही कांग्रेस तीसरी पार्टी बना चुके अपने पूर्व नेता अजीत जोगी को भी साधने की कोशिश में है जिससे उनसे होने वाले संभावित नुकसान को कम किया जा सके.
राजस्थान भाजपा की कमजोर कड़ी

तीनों राज्यों में से राजस्थान को भाजपा के लिये सबसे कमजोर कड़ी माना जा रहा है, एक तो यहां हर पांच साल बाद सत्ता बदलने का सिलसिला रहा है तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की कार्यशैली से जनता और खुद भाजपा संगठन में असंतोष की स्थिति साफ देखी जा सकती है. यहां भाजपा में अंदरूनी खींचतान की स्थिति ये है कि चुनाव सर पर है और अशोक परनामी को हटाये जाने के बाद से प्रदेश अध्यक्ष के नाम को लेकर अभी तक कोई फैसला नहीं हो सका है और इतने महत्वपूर्ण समय में पार्टी बिना प्रदेश अध्यक्ष के ही चल रही है.

इन सबके बीच राजपूत समाज ने भी भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोलते हुये "वसुंधरा मुक्त राजस्थान" और "कमल का फूल हमारी भूल" का नारा देकर भाजपा की परेशानी को और बढ़ा दिया है. राजपूत समाज के  संगठनों ने प्रदेश के सभी जिलों में वसुंधरा धिक्कार सम्मेलन आयोजित करने का ऐलान भी किया है जहां राजपूत समाज के लोगों को भाजपा को वोट नहीं देने की शपथ दिलाई जाएगी. राजपूत समाज का यह अभियान पहले से मुश्किल में घिरे भाजपा और वसुंधरा सरकार के लिये बहुत घातक सिद्ध हो सकता है.
इधर कांग्रेस में भी आपसी गुटबाजी चरम पर है, पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के बीच खींचतान जगजाहिर है जिसके चलते राजस्थान में पार्टी दो खेमों में स्पष्ट रूप से विभाजित दिखाई पड़ रही है. हालत ये हैं कि दोनों खेमे पार्टी के लिये नहीं बल्कि अपने- अपने गुट के लिये काम करते हुये दिखाई पड़ रहे है गहलोत समर्थक प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यक्रमों से दूरी बनाकर चल रहे हैं तो वहीँ सचिन पायलट का खेमा उन्हें ज्यादा महत्त्व भी नहीं देता है, इसके अलावा  सी.पी.जोशी और डॉ.गिरिजा के भी अपने गुट हैं.
बहरहाल राजस्थान में भी कांग्रेस आलाकमान बसपा के साथ गटबंधन के लाईन पर आगे बढ़ना चाहती  है. हालांकि प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट कह चुके हैं कि राजस्थान में कांग्रेस को बसपा के साथ की ज़रुरत नहीं है लेकिन शीर्ष स्तर पर दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन को लेकर बात चल रही है और इस बारे में जल्दी ही घोषणा भी हो सकती है. दरअसल राजस्थान के 2013 के चुनावों में बसपा को 3.44 प्रतिशत वोट हासिल हुये थे और कई सीटों पर उसके उम्मीदवार तीसरे-चौथे नंबर पर थे.

कांग्रेस के लिये करो या मरो

इन तीनों राज्यों के चुनाव कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिये बहुत अहमियत रखते हैं. कांग्रेस के लिये तो यह एक तरह से अस्तित्व से जुड़ा हुआ मसाला है और अगर वो इन तीनों राज्यों में से दो राज्य भी जीत लेती है तो फिर उसे एक नयी लाईफ लाईन मिल जायेगी जिसके सहारे वो 2019 के आम चुनाव में नये जोश और तेवर के साथ उतरेगी. इससे राहुल गांधी के विपक्ष में चेहरे के तौर पर स्वीकार्यता भी बढ़ेगी. लेकिन अगर कांग्रेस तीनों राज्य हार जाती है तो फिर उसके अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो जाएगा और 2019 में मोदी का मुकाबला एक हताश और पस्त कांग्रेस के साथ होगा.
कांग्रेस की उम्मीदें पिछले दिनों आये लोकनीति-सीएसडीएस का सर्वे नतीजों से बढ़ीं हैं जिसमें बताया गया है कि मप्र और राजस्थान में कांग्रेस सत्ता में वापसी कर सकती है. सर्वे के अनुसार मध्यप्रदेश में भाजप का वोट प्रतिशत 45 फीसदी से घटकर 34 फीसदी पर आ सकता है और कांग्रेस का वोट प्रतिशत 36 से  बढ़कर 49 प्रतिशत हो सकता है. इसी तरह से राजस्थान में कांग्रेस 44 फीसदी वोट प्रतिशत के साथ निर्णायक बढ़त बना सकती है जबकि भाजपा 39 फीसदी पर सिमट सकती है.
बहरहाल इन तीनों राज्यों के चुनाव देश की राजनीति किस दिशा तय करने वाले होंगें और मुकाबला भी काफी दिलचस्प रहने वाला है.

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