“मदारी” शिवराज के आगे कमजोर पड़ते कमलनाथ ?
जावेद अनीस
Chauthi Duniya (20 to 26 August 2018 ) |
इस बीच भाजपा ने स्पष्ट कर दिया है कि इस बार भी
उसका चेहरा शिवराज होंगें जबकि चेहरे को लेकर कांग्रेस की उलझन अभी भी बनी हुई है.
शिवराज के मुकाबले कौन होगा पार्टी के पास अभी भी इसका कोई जवाब नहीं है.
सत्ताधारी भाजपा आक्रामक है, सत्ता विरोधी लहर को कम करने के लिये भाजपा अपने
पंद्रह साल के शासन की तुलना दिग्विजय सिंह के काल से कर रही है. वहीँ कांग्रेस
कंफ्यूज नजर आ रही है, ऐसा लगता है उसे
समझ नहीं आ रहा है कि वो सत्ता में है या विपक्ष में. वो अपनी पुरानी कमियों, गलतियों को चाह कर भी सुधार नहीं पा रही है और ना
ही चुनाव के लिये कोई कामन थीम तय कर पा रही है.
कांग्रेस के लिये अगले तीन महीने बहुत कीमती साबित
होने वाले हैं, इस दौरान अगर
कांग्रेस अपने आप को एकजुट करके मुकाबले में पेश नहीं कर पायी तो शिवराजसिंह का
इतिहास रचना तय है. भाजपा चौथी बार सत्ता में होगी और मध्यप्रदेश में कांग्रेस के
अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो जाएगा.
मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या
गुटबाजी और भितरघात अभी भी बनी हुई है. कमलनाथ जैसे वरिष्ठ नेता के प्रदेशाध्यक्ष
बनने के बावजूद भी गुटबाजी बनी हुई है,
बिना एकजुटता और
बिना कामन थीम के क्षत्रप अपने अपने तरीके से चुनावी तैयारी करते हुये नजर आ रहे
हैं. शायद इसीलिए अभी तक पार्टी संगठन स्तर पर ही तैयारियां करती हुई नजर आई है
जिसकी वजह से मामला बैठक और सम्मेलनों तक ही अटका हुआ है.
मध्यप्रदेश में पहले के मुकाबले इस बार कांग्रेस
बेहतर स्थिति में दिखाई पड़ रही है इसी वजह से कांग्रेसी चुनाव जीता हुआ मान रहे
हैं लेकिन ये गलतफहमी कांग्रेस को बहुत भारी पड़ सकती है. सत्ताधारी पार्टी होने
के बावजूद ज़मीनी स्तर पर भाजपा ज्यादा सक्रिय नजर आ रही है इस स्थिति को देखते
हुये राहुल गांधी ने बैठक करने के बजाये जनता के बीच जाने पर ज्यादा जोर देने को
कहा है.
रही कही कसर कांग्रेस पार्टी के मुखपत्र माने जाने
वाले अख़बार नेशनल हेराल्ड ने पूरी कर दी है जिसने अपने वेबसाइट पर एक अनजाना सा
चुनाव पूर्व सर्वे प्रकाशित किया है जिसमें मध्यप्रदेश में भाजपा को एकबार फिर बहुमत मिलता हुआ दिखाया गया है.
करीब तीन महीने पहले अनुभवी नेता कमलनाथ को पीसीसी
अध्यक्ष और युवा नेता ज्योति राव सिंधिया को चुनाव प्रचार अभियान समिति की कमान
सौंपी गयी थी जिसके बाद उम्मीद की जा रही थी कि अंदरूनी गुटबाजी पर लगाम कसेगा और
राज्य में पार्टी की जीत की संभावनायें मजबूत होगीं. लेकिन अभी तक ये उम्मीद पूरी
होती नजर नहीं आयी है और कांग्रेस अपने खिलाफ बनी धारणाओं को खत्म करने में नाकाम
साबित हुई है.
इस दौरान कमलनाथ का फोकस संगठन पर रहा है लेकिन
इसी चक्कर में मैदान खाली छोड़ दिया गया है,
सूबेदार के तौर पर
कमलनाथ का अभी तक प्रदेश का दौरा शुरू भी नहीं हुआ है. उन्होंने खुद को अभी संगठन
की बैठकों तक ही सीमित किया हुआ है. प्रदेश भर में सत्ता विरोधी आक्रोश का
प्रदर्शन जारी है लेकिन इसमें कांग्रेस पार्टी कहीं नजर नही आ रही है.
कमलनाथ ने बसपा के गठबंधन को लेकर काफी जोर लगाया
है लेकिन बात अभी तक बनी नहीं है. उल्टे बसपा के साथ गठबंधन पर जरूरत से ज्यादा
जोर देने की वजह से बसपा के भाव बढ़ गये है और वो अपनी शर्तों पर मोल-भाव की स्थिति
में आ गयी है. अब बसपा की तरफ से कहा जा रहा है कि “यदि मध्यप्रदेश में सम्मानजनक सीटें मिलेंगी तभी हम गठबंधन को तैयार
होंगें”. इस तरह से कमलनाथ के उतावलेपन का विपरीत असर पड़ा
है और सीटों के बंटवारे को लेकर पेंच अड़ा हुआ है.
इधर आपसी खींचतान है कि थमने का नाम ही नहीं ले
रही है. संगठन में बदलाव के बावजूद नेताओं के बीच तालमेल नहीं बन पाया है. भाजपा
का मुकाबला करने के बजाये पार्टी अपने अंदरूनी झगड़े से ही जूझ रही है और पार्टी
के करीब आधे दर्जन नेता पहले की तरह ही अपनी अपनी राजनीति करने में व्यस्त हैं और
राष्ट्रीय नेतृत्व अपने में ही मस्त है जिसकी वजह से विधानसभा चुनावों से ठीक पहले
लावारिस नजर आ रही है. सबसे बड़ा पेंच तो पार्टी की तरफ से चेहरे पर ही फंसा हुआ
है. जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं के सामने शिवराज सिंह चौहान के सामने कांग्रेस का
कोई एक चेहरा नहीं है. इस मामले में फिलहाल यही बदलाव हुआ है कि पहले के मुकाबले
अब दो ही चेहरे सामने हैं कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया का, जिनके समर्थक इन्हें मुख्यमंत्री पद का दावेदार
बताकर सोशल मीडिया पर खूब पोस्टरबाजी कर रहे हैं. अगर चेहरे को लेकर यह बवाल आगे भी जारी रहा तो पार्टी की रही
सही संभावनायें भी खत्म हो जायेंगीं.
इस बीच जिन्हें तालमेल बनाने की जिम्मेदारी देकर
मध्यप्रदेश भेजा गया था वो खुद ही बवाल मचाये हुये हैं. मध्यप्रदेश कांग्रेस में
पहले से ही इतना प्रपंच ऊपर से दीपक बावरिया को प्रभारी बनाकर भेज दिया गया जो
रायता समेटने के बजाये इसे फैलाने में अपना योगदान दे रहे हैं. बावरिया लगातार
अपने विवादित बयानों के माध्यम से नये संकट खड़ा करते रहे हैं. उनका ताजा कारनामा
रीवा में दिया गया जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘अगर मध्यप्रदेश में
कांग्रेस की सरकार बनी तो ज्योतिरादित्य सिंधिया या कमलनाथ में से कोई एक
मुख्यमंत्री बनेंगें.’ ये बात विंध्य के
नेता अजय सिंह के समर्थकों को अच्छी नहीं लगी और उन्होंने बावरिया के साथ सरेआम
दुर्व्यवहार कर डाला. इससे पहले उन्होंने उप-मुख्यमंत्री के तौर पर सुरेंद्र चौधरी
के नाम की घोषणा करके पार्टी में घमासान मचा दिया था.
दरअसल मध्यप्रदेश कांग्रेस उन राज्यों में शामिल
है जहां उसके पास हमेशा से ही कई बड़े नेता रहे हैं. मौजूदा दौर में भी मंजर यही है
कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य राव सिंधिया जैसे
नेताओं के सामने बावरिया का कद छोटा है. सितंबर 2017 को जब उन्हें प्रदेश प्रभारी के रुप में मध्यप्रदेश भेजा गया था तो
स्थिति दूसरी थी. पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव के समय उन्हें तवज्जो भी मिल
रही थी लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है. कमलनाथ और सिंधिया उन्हें ज्यादा भाव नहीं दे
रहे हैं. ऐसे में अनाप शनाप बयान देकर वो अपनी महत्ता साबित करने में लगे रहते
हैं.
मध्यप्रदेश में पिछले 15 वर्षों से भाजपा का शासन है और ऐसा लगता है वो
आसानी से मैदान छोड़ने को तैयार नहीं है. व्यापम जैसे घोटालों और मंदसौर गोलीकांड
के बाद किसानों के गुस्से के बाद से माहौल बदलता हुआ नजर आ रहा था. बढ़ते एंटी
इनकमबेंसी से शिवराज सरकार परेशानी में नजर आ रही थी लेकिन पिछले चंद महीनों के
दौरान भाजपा के लिये माहौल में सुधार देखने को मिल रहा है. इधर राष्ट्रीय नेतृत्व
द्वारा तमाम किन्तु-परन्तु के बाद आखिरकार शिवराज सिंह चौहान के नाम को एकबार फिर
मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर घोषित किया जा चुका है साथ ही उन्होंने पर्याप्त
छूट भी दे दी गयी है. जिसके बाद से शिवराज ने खुद को पूरी तरह से चुनावी तैयारियों
में झौंक दिया है, फिलहाल अपने
जनआशीर्वाद यात्रा के द्वारा वे पूरे मध्यप्रदेश को नाप रहे हैं जिसमें किसी
विपक्षी की तरह कांग्रेस को निशाने पर ले रहे हैं और अपनी धुआंधार घोषणाओं के जरिए
हर वर्ग को साधने में लगे हुए हैं.
कांग्रेस के मुकाबले भाजपा का आलाकमान भी
मध्यप्रदेश को लेकर ज्यादा गंभीर नजर आ रहा है,
राहुल गांधी के
मुकाबले अमित शाह और नरेंद्र मोदी का मध्यप्रदेश में कई दौरे और सभाएं हो चुके
हैं. जबकि अभी तक राहुल गांधी की एकमात्र मंदसौर में ही सभा हुई है. विधानसभा
चुनावों के देखते हुये अमित शाह मध्यप्रदेश में ही कैंप करने का फैसला किया है
जहां से वे तीनों राज्यों पर नजर रखेंगें ही साथ ही उनका इरादा 25 सितंबर तक प्रदेश के सभी संभागों में जाने का है
जहां वे बूथ एवं पन्ना प्रमुखों से सीधे तौर पर जुड़ेंगे.
पार्टी की तरफ से एकबार फिर भावी मुख्यमंत्री के
तौर घोषित किये जाने के और जन आशीर्वाद यात्रा को मिल रहे रिस्पोंस को देखकर
शिवराजसिंह का आत्मविश्वास और जोश देखते ही बन रहा है. सत्ता में वापस लौटने के
लिये वे पूरी ताकत लगा रहे हैं और कांग्रेस को राजाओं-कारोबारीयों की पार्टी बताते
हुये खुद को मध्यप्रदेश का मामा घोषित कर रहे हैं. पिछले दिनों जब कमलनाथ ने उनकी
बेलगाम घोषणाओं का मजाक उड़ाते हुये कहा कि “शिवराज मदारी की
तरह कर रहे हैं घोषणाएं कर रहे हैं”
तो शिवराज का जवाब
था, “हां,
मैं मदारी हूं मैं
ऐसा मदारी हूं, जो डबरू बजाता है
तो बिजली बिल जीरो हो जाता है, मैं मदारी हूं, जो गरीबों के लिए घर बनाता है, बच्चों की फीस भरता है”.
मध्यप्रदेश में सत्ता विरोधी से इनकार नहीं किया
जा सकता है लेकिन पिछले तीन महीनों के दौरान कांग्रेस इसे भुनाने का मौका गवांती
हुयी नजर आई है जबकि उसके मुकाबले सत्ताधारी भाजपा ने एंटी इनकंबेंसी को कम करने
के लिये ज्यादा काम किया गया है.
बहरहाल मध्यप्रदेश में चुनावी तैयारियों के पहले
राउंड में भाजपा बढ़त बनाने में कामयाब रही है जबकि इस दौरान कांग्रेस मौका खोते
हुए नजर आई है. अगले तीन महीनों में दूसरा राउंड होना है जिसमें राष्ट्रीय धुरंधर
भी ताल ठोकते हुए नजर आयेंगें. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि भाजपा के लिये सत्ता की
थाली सजी हो, भले ही जन आशीर्वाद
यात्रा में भीड़ उमड़ रही हो लेकिन ये जरूरी नहीं है कि ये वोट में भी तब्दील हो, चुनाव के हिसाब से अभी समय है जिसमें उम्मीदवारों, मुद्दों,
वायदों और नारों को
तय किया जाना बाकी है.
कांग्रेस के पास समय कम है और वो अभी भी बिखरी हुई
नजर आ रही है. भाजपा के सामने चुनौती पेश करने से पहले उसे खुद को ही संभालना है, कांग्रेस के लिये सत्ता की कुंजी उसकी एकजुटता में
निहित है लेकिन ये आसान नहीं है आने वाले महीनों में टिकटों को लेकर भी आपसी
घमासान होना तय है. सभी क्षत्रप अपने-अपने चहेतों को टिकट दिलाना चाहेंगें जिससे
उनकी दावेदारी मजबूत हो सके. ऐसे में पार्टी कितना एकजुट हो सकेगी उसपर सवालिया
निशान है, पार्टी की तरफ से चेहरे का सवाल भी बना ही हुआ है.
आने वाले दिनों में ये देखना दिलचस्प होगा कि पार्टी किन नयी रणनीतियों के साथ
सामने आती है. फिलहाल मैदान में “मदारी” मामा ही नजर आ रहे हैं .
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8 September 2018, Star Samachar |
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