बदलती बिसात
जावेद अनीस
16 मई 2014 के बाद 11 दिसबंर 2018 की तारीख देश की राजनीति में एक ऐसा
पड़ाव है जिसे लम्बे समय तक याद रखा जायेगा. ऐसा माना जा रहा था कि
इस बार पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद देश के राजनीति की
दिशा बदलने वाले साबित होंगें और अब ठीक ऐसा होता दिखाई भी पड़ रहा है.
2014 के लोकसभा चुनावों में उठे मोदी लहर
के बाद भाजपा को उसकी उम्मीदों से बढ़ कर अकेले ही 280 से अधिक सीटें मिलीं थीं और
इसके बाद भाजपा हर चुनाव 2019 के तैयारी की
तरह लड़ती रही है और कई नये राज्यों में लगातार अपना विस्तार करती गयी. इन सब से विपक्ष के खेमे में सन्नाटा पसरा था और वह पूरी
तरह से पस्त था. लेकिन 2018 की कहानी बिलकुल ही अलग है. एक के बाद एक नया किला फतह करने के बाद आखिरकार भाजपा का बेलगाम विजय रथ अपने ही
गढ़ में आकर थम गया है. भाजपा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सत्ता से बाहर
हो गई है, इनमें से दो राज्यों में भाजपा 15 सालों से हुकूमत कर रही थी.
2019 के फाइनल से ठीक पहले सेमी-फाइनल माने
जा रहे पांच राज्यों के चुनावी नतीजों के
हार-जीत के अलावा और भी कई राजनीतिक मायने हैं. पिछले करीब साढ़े चार साल में ये पहली बार है जब विलुप्त मानी जा रही कांग्रेस पार्टी ने सीधे मुकाबले में भाजपा को मात दिया है. यह
मोदी-शाह के “कांग्रेस मुक्त भारत” के उस नारे पर भी अघात है जो सिर्फ एक पार्टी के
लिये नहीं बल्कि उस विचारधारा के लिये भी थी जिसकी जड़ें भारत के बहुलतावादी परंपरा
और स्वाधीनता संग्राम से उपजे मूल्यों में है.
चुनाव परिणामों ने इस मिथ को तोड़ दिया है कि मोदी को हराया नहीं जा सकता है और राहुल गांधी हमेशा ही
एक विफल नेता बने रहेंगें. इस जीत के बाद राहुल गांधी को एक नेता के तौर पर
स्थापित कर दिया है. उन्होंने मृतशैया पर पड़ी कांग्रेस में जान फूंकने का काम किया
है और सबसे बड़ी बात ये है कि उन्होंने कभी चुनौतीविहीन माने जा रहे नरेंद्र मोदी
के मुकाबले खुद को खड़ा कर दिया है. राहुल ने ये
साबित करके दिखा दिया है
कि अगर नरेंद्र मोदी को चुनौती पेश की जाये तो मुकाबले में उन्हें हराया भी जा
सकता है.अब 2019 में नरेंद्र मोदी हार सकते हैं जैसी बात असंभव
या अजूबा नहीं लगती है. बहरहाल 2019 का चुनाव दिलचस्प हो गया है. अब यह एकतरफा
नहीं होने वाला और ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है.
मांद में मात
तीन राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस और भाजपा
सीधे तौर पर आपने-सामने थीं. भाजपा के सामने चुनौती इन तीन राज्यों में अपनी
सरकारों को बचाने की थी. राजस्थान में हर पांच साल बाद सत्ता बदलने का चलन रहा है
लेकिन मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो भाजपा पिछले पंद्रह सालों से सत्ता में थी.
पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने इन तीनों राज्यों की कुल 65 लोकसभा सीटों में
से 62 सीटों पर चुनाव जीता था. कांग्रेस के लिये तो यह एक तरह से अस्तित्व से जुड़ा
हुआ चुनाव था इसलिये कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिये यह राज्य बहुत अहमियत वाले
थे.
माना जा रहा था कि इन तीन में से अधिकतम दो राज्यों में ही कांग्रेस
वापसी कर सकती है लेकिन वो इन तीनों
राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब हो गयी है. यह कांग्रेस की जबरदस्त वापसी है.
इन तीनों राज्यों में मध्यप्रदेश की जीत कांग्रेस के लिये बहुत खास है. यह
भाजपा का सबसे मजबूत किला माना जाता था और यहां शिवराजसिंह चौहान जैसे मजबूत व
लोकप्रिय मुख्यमंत्री थे. गुजरात के बाद
मध्यप्रदेश को भाजपा व संघ की दूसरी प्रयोगशाला कहा जाता है, दरअसल यहां जनसंघ के जमाने से ही उनका अच्छा-खासा प्रभाव है.
भाजपा इसे विकास के एक माडल के तौर पर प्रस्तुत करती रही है इसलिये मध्यप्रदेश के नतीजे का विशेष महत्त्व है. इससे वहां
लगातार हार की हैट्रिक बना चुकी कांग्रेस को भाजपा पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने में
मदद मिली है.
मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने बहुत ही थोड़े समय में अपना कायाकल्प करने का
चमत्कार किया है और इसका श्रेय निश्चित
रूप से राहुल गांधी को दिया जायेगा जिन्होंने कमलनाथ, सिंधिया और दिग्विजय सिंह की
जिम्मेदारी तय करते हुये इन्हें एक साथ काम करने को प्रेरित किया.
एक मई 2018 को कमलनाथ
को मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष की जिम्मेदारी
दी गयी थी जिन्होंने सबसे पहले म.प्र. में पंद्रह साल से सुस्त पड़ चुके संगठन को सक्रिय
करने पर जोर लगाया जिससे पार्टी बूथ स्तर तक खड़ी दिखाई पड़ने लगी. इसी तरह से सिंधिया
को चुनाव प्रचार अभियान और दिग्विजय सिंह को परदे के पीछे रहकर कार्यकर्ताओं को
एकजुट व सक्रिय करने की जिम्मेदारी दी गयी थी जिसे उन्होंने बखूबी अंजाम दिया.
लेकिन मध्यप्रदेश में असली कमान राहुल गांधी के हाथों में रही जो कमलनाथ और सिंधिया को साथ में रखते हुये खुद फ्रंट पर दिखाई दिये.
मध्यप्रदेश में राहुल गांधी ने 25 जनसभाएं और 4 रोड शो किये और इस
दौरान उनके निशाने पर मुख्य रूप से नरेंद्र मोदी ही रहे.
पटरी पर कांग्रेस
ऐसा लगता है कि भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी अभी तक के अपने सबसे बड़े संकट के दौर से उबर चुकी है. 2014 में उसे अपने सबसे बड़े चुनावी
पराजय का सामना करना पड़ा था और उसे पचास से भी कम सीटें मिल सकी
थीं. वैसे तो चुनाव में हार-जीत सामान्य है लेकिन यह हार कुछ अलग थी. इससे पहले कांग्रेस जब कभी भी सत्ता से बाहर हुई थी तो उसकी वापसी को लेकर इतना संदेह नहीं किया जाता था लेकिन 2014 की हार कुछ अलग थी. इसके
बाद विजेताओं की तरफ से कांग्रेस
मुक्त भारत की उद्घोषणा कर दी गयी थी और कांग्रेस की वापसी को लेकर कई कांग्रेसी ही संदेह करते हुए देखे गये. लोकसभा चुनाव में हार के बाद लम्बे समय तक कांग्रेस कमोबेश वहीँ कदमताल कर रही थी जहाँ भाजपा ने उसे 2014 में छोड़ा था. गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस की रणनीति में
बदलाव देखने को मिला जहां से उसने अपने हिन्दू विरोधी छवि से पीछा छुड़ाने के लिये गंभीरता
से प्रयास करने शुरू किये. कांग्रेस ने अपना यह कायाकल्प बहुत ही विपरीत
परिस्थितयों में किया है बिना किसी चमकदार चेहरे, संसाधन विहीन लुंज-पुंज संगठन,
हताश कार्यकर्ताओं और भौपू मीडिया के बावजूद उसने अपने अस्तित्व को बचाया और नये
तरीके से गढ़ा है. बहरहाल 2018 ने जाते-जाते कांग्रेस को लाईफ लाईन दे दिया है
जिसके सहारे वो 2019 के आम चुनाव में नये जोश और तेवर के साथ उतरेगी.
नेता बन गये राहुल
अगर 16 मई 2014 का दिन नरेंद मोदी का दिन था तो 11 दिसबंर 2018
राहुल गांधी का दिन माना जायेगा. यह उनके कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर एक साल पूरा
करने का दिन भी है जिसका सेलिब्रेशन उन्होंने अभी तक के अपने राजनीतिक जीवन की
सबसे बड़ी सफलता के साथ किया है. इस चुनावी सफलता ने ना केवल कांग्रेस पार्टी
के भीतर उनके नेतृत्व पर जीत की मुहर लगाई है
बल्कि विपक्षी खेमे में भी उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है. इससे लम्बे समय से देश की राजनीति में अपना मुकाम तलाश रहे
राहुल गांधी आखिरकार एक राजनेता रूप में स्थापित हो गये है, कभी उन्हें गंभीर
राजनेता ना मानने वाले राजनेता भी आज उन्हें गंभीरता से लेने लगे हैं .
राहुल का अभी तक का सफर संघर्ष और विफलताओं से भरा रहा है.
इस दौरान उनके हिस्से में जबरदस्त आलोचनायें, मात और दुष्प्रचार ही आये हैं. लम्बे समय तक उनकी छवि एक ऐसे अनिक्षुक, थोपे हुए, अगंभीर, बेपरवाह, कमअक्ल और ‘पार्ट टाइम पॉलीटिशियन’ राजनेता की रही है जिसकी भारतीय राजनीति की शैली,व्याकरण और तौर-तरीकों पर पकड़ नहीं है जो अनमनेपन से सियासत में है. इस
दौरान उन्हें पार्टी के अंदर और बाहर दोनों जगह एक प्रेरणादायक और चुनाव जीता सकने वाले नेता के तौर पर स्वीकृति नहीं मिली. उनके जितना मजाक भी शायद ही
किसी और राजनेता का बनाया गया हो, वे ट्रोल सेना के भी फेवरेट थे. इस स्थिति में उनके
पास खोने के लिए कुछ खास बचा नहीं था, उनके पास वापसी करने या फिर विलुप्त हो जाने दो ही विकल्प बचे थे.
इसके बाद दो ऐसी घटनायें हुयीं जिन्हें राहुल गांधी और
कांग्रेस पार्टी के लिये टर्निंग पॉइन्ट कहा जायेगा, पहला पंजाब विधानसभा चुनाव में “आप” के गुब्बारे का फूटना और दूसरा
नीतीश कुमार का भगवा खेमे में चले जाना. पंजाब में
“आप” की विफलता से राष्ट्रीय
स्तर पर उसके कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभरने की बची-खुची सम्भावना को पूरी
तरह से समाप्त कर दिया, इसी तरह से नीतीश कुमार को
2019 में नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष का चेहरा माना जा रहा था लेकिन उनके पाला
बदल लेने के बाद सारा फोकस राहुल गांधी पर आ गया.
इसके बाद गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद से
राहुल एक जुझारू नेता के रूप में उभर कर सामने आते हैं, यहां वे कुछ अलग ही अंदाज में दिखाई दिये थे जिसे देखकर लगा कि एक राजनेता के तौर पर उनकी लंबी और उबाऊ ट्रेनिंग खत्म हो चुकी है. गुजरात में उन्होंने मोदी–शाह की जोड़ी को उन्हीं की जमीन पर
बराबरी का टक्कर दिया था, इसके बाद कर्नाटक में भी उन्होंने आखिरी समय पर गठबंधन की
चाल चलते हुये भाजपा की इरादों पर पानी फेर दिया था. गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद
से राहुल गांधी ने अपनी पार्टी को एक नयी दिशा दी है, इसे भाजपा और संघ के खिलाफ काउंटर
नैरेटिव तो नहीं कहा जा सकता लेकिन इसने राहुल और उनकी पार्टी को मुकाबले में वापस
आने में मदद जरूर की है. आज वे मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष की सबसे बुलंद आवाज बन चुके
हैं. लगातार अपने तीखे तेवरों से वे नरेंद्र मोदी की “मजबूत” सरकार को बैकफुट पर लाने में कामयाब
रहे हैं, “रफेल” का मामला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है
जिसमें मोदी सरकार बुरी तरह से घिरी नजर आ रही है.
राहुल लगातार खुद को पूरे विपक्ष की तरफ से नरेंद्र मोदी के
विकल्प के तौर पर पेश करने की कोशिश कर रहे थे. विपक्ष के दूसरे नेताओं के मुकाबले
वे नरेंद्र मोदी के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर और आक्रामक राजनीति कर रहे थे. तीन
भाजपाशासित राज्यों में जीत के बाद राहुल के इन कोशिशों को एक ठोस मुकाम मिल गया
है और वे हाशिये पर पड़ी कांग्रेस को वे भारतीय राजनीति के केंद्र में लाने
में सफल हो हो गये हैं.
यह राहुल की अभी तक की सबसे बड़ी उपलब्धि है और भाजपा के बाद
इसका सबसे बड़ा झटका मायावती और ममता बनर्जी जैसे नेताओं को लगा है
जो विपक्ष की तरफ से खुद को मोदी के विकल्प के तौर पर पेश करने की कोशिश कर रहे थे.
एजेंडा तय करते राहुल
राहुल गांधी विपक्ष की तरफ से ना केवल विकल्प बनकर उभरे हैं बल्कि काफी हद तक
वे देश के राजनीति का एजेंडा तय करने की
स्थिति में भी आ गये हैं. तीन राज्यों में जीत किये गये अपने पहले प्रेस कांफ्रेंस
में उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधते हुये कहा था कि ‘देश ने उन्हें काम
करने के लिए चुना है और इन नतीजों का साफ सन्देश है कि उन्हें किसानों,भ्रष्टाचार,रोजगार
और अर्थव्यवस्था के बारे में कुछ करना होगा.’
दरअसल विपक्ष में रहते हुये राहुल गांधी की सबसे बड़ी सफलता यही रही है कि वे मोदी
साकार को आर्थिक मोर्चे पर घेरने में सफल रहे हैं. वे रोजगार-भ्रष्टाचार
और किसान मुद्दों को लेकर को लगातार उठाते रहे हैं इन
चुनावों में भाजपा को जो नुकसान हुआ है उसके पीछे सबसे बड़ा कारण किसान-ग्रामीण असंतोष और मोदी सरकार की आर्थिक विफलता मानी जा
रही है विपक्ष की तरफ से. नोटबंदी,जीएसटी ,बैंकिंग-राफेल में भ्रष्टाचार और
बेरोज़गारी के मुद्दे को अकेले राहुल ही उठाते रहे हैं.
आज राहुल गांधी ने किसानों की कर्ज माफी को देश की राजनीति
का सबसे बड़ा मुद्दा बना दिया है, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान चुनाव प्रचार
के दौरान राहुल ने दस दिनों के भीतर किसानों की कर्जमाफी का वादा किया था और इन
तीनों राज्यों में कांग्रेस ने सरकार बनाते ही किसानों के कर्ज माफ करने का ऐलान कर
दिया है. अब राहुल सीना तानकर ऐलान कर रहे हैं कि “किसानों
के कर्ज माफी के लिए हम केंद्र सरकार पर दबाव बनाएंगे,जब तक किसानों का कर्ज माफ नहीं किया जाता, तब तक हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न बैठने देंगे और न ही
सोने देंगे”.
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले आर्थिक मुद्दों की वापसी के बाद
भाजपा के लिये इसे अपने मंदिर-गाय जैसे कोर मुद्दों पर वापस ले आसान नहीं होगा.
ऐसी स्थिति में यह और भी मुश्किल है जब कांग्रेस नरम हिन्दुतत्व के रास्ते पर आगे
बढ़ते हुये इन मुद्दों पर भाजपा का एकाधिकार को चुनौती पेश कर रही है.
किसकी हार?
राहुल के बरक्स नरेंद्र मोदी मध्यप्रदेश के चुनाव अभियान से सेफ दूरी बना कर
चलते नजर आये. जहां एक तरफ राहुल गांधी ने मध्यप्रदेश को सबसे ज्यादा समय दिया, वहीँ
नरेंद्र मोदी प्रदेश के चुनाव में खुद को सीमित किये रहे. राज्य में भाजपा के
चुनाव प्रचार अभियान में भी केंद्र की उपलब्धियों पर ना के बराबर फोकस किया गया,
ऐसा शायद इसलिये किया गया कि अगर इन राज्यों में भाजपा की हार होती है तो इसके
जिम्मेदारी मौजूदा मुख्यमंत्रियों पर टाली जा सके और 2019 लोकसभा चुनाव के लिये
मोदी ब्रांड को बचाये रखा जा सके.
लेकिन इन
तमाम तजवीजों के बावजूद ऐसा लगता नहीं है कि मोदी ब्रांड बचा है अब कोई भी मोदी
लहर और अच्छे दिनों की बात नहीं करता है, उम्मीदों की जगह उपहास ने ले लिया है और
बड़े से बड़े मोदी समर्थक अपने विकास के देवता का बचाव करने में असमर्थ है. उनमें से
कईयों ने तो पाला ही बदल लिया है लॉर्ड मेघनाद देसाई जैसे बड़े
मोदी समर्थक आज नरेंद्र
मोदी को लेकर निराशा जताते हुये कह
रहे हैं कि प्रधानमंत्री “मोदी
टीम लीडर नहीं हैं और अब लोग उन्हें दोबारा वोट नहीं देंगे.
2014 में नरेंद्र मोदी की आसमानी जीत ने सभी को अचंभित कर दिया था. यह कोई मामूली जीत नहीं थी.
ऐसी मिसालें भारतीय राजनीति के इतिहास में बहुत कम मिलती हैं. इसके बाद अगले तीन
सालों तक भाजपा ने अपना अभूतपूर्व विस्तार किया, कई नये राज्यों में उनकी सरकारें
बनी. लोकसभा चुनाव के बाद उतरप्रदेश में भाजपा की प्रचंड जीत ने एक बार फिर पूरे
विपक्ष को स्तब्ध कर दिया था और फिर 2019 में विपक्ष की तरफ से सबसे बड़ा चेहरा माने जाने वाले नीतीश कुमार की एनडीए वापसी ने विरोधियों की रही सही उम्मीदों पर
पानी फेर दिया था. लेकिन जीवन की तरह अनिश्चिताओं से भरे राजनीति के इस खेल में आज
हालात बदले हुए नजर आ रहे हैं. अमित शाह और नरेंद्र मोदी का अश्वमेघ रथ अपने ही गढ़ में रुक गया है. आज
स्थिति ये है कि अच्छे दिनों के सपने जमीनी
सच्चाईयों का मुकाबला नहीं कर पा रहे है. पहली बार प्रधानमंत्री बैकफुट पर हैं और उनके
सिपहसालार घिरे हुए नजर आ रहे हैं. पहले मोदी
की आंधी के सामने विपक्ष टिक नहीं पा रहा था लेकिन आज हालत नाटकीय रूप से बदले हुए
नजर आ रहे हैं. सत्ता गंवाने के बाद पहली बार कांग्रेस खुद को एक मजबूत विपक्ष के रूप
में पेश करने में कामयाब रही है और वो अब धीरे-धीरे एजेंडा सेट करने की स्थिति में
आने लगी है.
दरअसल अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर मोदी
सरकार की विफलता और उस पर रोमांचकारी प्रयोगों ने विपक्ष को संभालने का मौका दे
दिया है. भारत की चमकदार इकॉनामी आज पूरी तरह से लड़खड़ाई हुई है. बेहद खराब तरीके से लागू किए गए नोटबंदी और जीएसटी ने इसकी कमर तोड़ दी है,
बेरोजगारी बढ़ रही है और कारोबारी तबका हतप्रभ है. ऐसा महसूस होता है कि आर्थिक
मोर्च पर यह सरकार स्थितियों को नियंत्रित करने में सक्षम ही नहीं है.
तीनों राज्यों में शिवराजसिंह चौहान, रमनसिंह या वसुंधरा राजे की हार से ज्यादा मोदी के हार की चर्चा है इसे इन
तीनों से ज्यादा मोद-शाह के अहंकार की हार बताया जा रहा है.
मोदी बनाम शिवराज -राहुल
मध्यप्रदेश में चुनाव प्रचार के आखिरी
दौर में राहुल गांधी ने भरे मंच से शिवराजसिंह की
तारीफ करते हुये कहा था कि “मोदी और
शिवराज में एक फर्क है, शिवराज जी तमीज से बोलते हैं और नरेंद्र मोदी जी तमीज से
बोलना नहीं जानते हैं.” राहुल यहीं नहीं रुके थे उन्होंने शिवराज की कई और “अच्छी
बातें” गिनाते हुये उन्होंने कहा था कि ““शिवराज जी और हम चुनाव
लड़ रहे हैं, खुलकर हम उनके बारे में और वह हमारे बारे में बोल
रहे हैं और लड़ाई हो रही है, भयंकर लड़ाई हो रही है.
मगर वह तमीज से बोल रहे हैं. इसलिए
मैं शिवराज की तारीफ कर रहा हूं, आप कहोगे राहुल गांधी चीफ मिनिस्टर की प्रशंसा कर
रहे है,
लेकिन
यह सच्चाई है तो बोलना पड़ेगी”.
”यहां राहुल गांधी शिवराज की तारीफ करते हुये केवल नरेंद्र
मोदी को निशाना नहीं बना रहे थे बल्कि यह पार्टी लाईन के दायरे से आगे बढ़ते हुये
भारतीय राजनीति में मोदी-शाह द्वारा अपनाये जाने वाले उस भाषा-शैली और तौर-तरीकों
की नकार थी जो केंद्रीकृत,निरंकुश व अंहकारी है और राजनीति में परम्परागत
मर्यादाओं की प्रवाह नहीं करता है.
दरअसल राहुल गांधी मोदी-शाह के इस राजनीतिक शैली के
बरक्स अपना एक अलग नैरेटिव पेश करने की कोशिश कर रहे है जो ज्यादा विनम्र और
समावेशी है और सबको साथ लेकर चलने की कोशिश करती है. तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद की गयी प्रेस कॉन्फ्रेंस
में राहुल गांधी अपने इसी अवतार को पेश करते हुये नजर आये. इसमें उन्होंने भाजपा के
कांग्रेस मुक्त भारत के नारे के उलट बोलते हुए कहा कि “बीजेपी की एक विचारधारा है हम इसके खिलाफ लड़ेंगें और उन्हें
हरायेंगे लेकिन हम किसी को भारत से मुक्त नहीं करना चाहते हैं.” यही नहीं उन्होंने बड़ी विनम्रता से पिछली सरकारों द्वारा
योग्यदान को रेखांकित करते हुये कहा कि “हमने भाजपा को हराया है, इन राज्यों में भाजपा के
मुख्यमंत्री थे. उन्होंने जो काम किया है उसके लिए हम धन्यवाद करते हैं, अब बदलाव
का समय है और ऐसे में हम उनके काम को आगे ले जाना चाहते हैं”.
यह “ब्रांड राहुल” की पेशकश है जो “ब्रांड मोदी” के बिलकुल उल्ट है जो लोकतंत्र में सबको साथ लेकर चलने और
विपक्ष के अहमियत को तरजीह देती है. कोई भी मार्केटिंग गुरु यह बात बहुत अच्छे से
समझा सकता है कि किसी एक क्षेत्र के दो ब्रांड एक-दूसरे के खिलाफ खड़े होकर तभी मुकाबला
कर सकते हैं जब उन दोनों के बीच कुछ बुनियादी फर्क हों, आज मोदी और राहुल के बीच
यह बुनियादी फर्क साफतौर पर देखने को मिल रहा है.
इन विधानसभा चुनाव
में राहुल के बाद शिवराजसिंह चौहान ही ऐसे नेता थे जिनका भविष्य सबसे ज्यादा दांव
पर था. भाजपा के अन्दर शिवराजसिंह उन चुनिन्दा नेताओं में है जो अपनी छवि एक उदार
नेता के तौर पर गढऩे में कामयाब रहे हैं. शिवराज
के राजनीति की शैली टकराव की नहीं बल्कि लोप्रोफाईल, समन्वयकारी और
मिलनसार रही है. वे एक ऐसे नेता है जो अपना काम बहुत नरमी और शांतिभाव से करते हैं
लेकिन नियंत्रण ढीला नहीं होने देते, इसी वजह से आज मध्यप्रदेश भाजपा संगठन में
उनके समकक्ष कोई दूसरा नजर नहीं आता है. वे पिछले तेरह सालों से मध्यप्रदेश की सत्ता पर काबिज थे. इतने लंबे समय से
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहने के बाद भी शिवराज सहज, सरल और सुलभ बने रहे यही उनके अबतक के राजनीतिक जीवन की
सबसे बड़ी पूंजी और ताकत है. राहुल की तरह उनकी यह छवि नरेंद्र मोदी के बिलकुल
विपरीत है. उनके पक्ष में कई और बातें जाती है जो उन्हें जरूरत पड़ने पर भाजपा की
तरफ से नरेंद्र मोदी का विकल्प बना सकती हैं जैसे उनका विनम्र और ओबीसी समुदाय से
होना और सबसे बड़ी बात हिंदी ह्रदय प्रदेश का मास लीडर होना. वे अपने विरोधियों से मेल-जोल
बनाए रखने में माहिर हैं जिसकी ताजा झलक हम कमलनाथ के शपथ ग्रहण समारोह में देख
चुके हैं इसके आलावा जनता के साथ घुल-मिल कर उनसे सीधा रिश्ता जोड़ लेने की उनकी
काबिलियत अद्भुत है और सबसे बड़ी बात तो यह है कि शिवराजसिंह चौहान अपनी यह चमक
सरकार गंवा देने के बाद भी बनाये हुये हैं हारकर भी वे लगातार सुर्खियां बटोर रहे हैं.
जरूरत पड़ने पर वे भाजपा के लिये दूसरा कामयाब मुखौटा साबित हो सकते हैं मध्यप्रदेश
में अपने 13 सालों के कार्यकाल में इस बात को बखूबी साबित करके दिखा दिया है कि
कैसे बिना कोई विवाद खड़ा किये संघ के एजेंडे लो आगे बढ़ाया जा सकता है.
तीन राज्यों का चुनावी असर देखिये आज नितिन गडकरी धमाल
मचाये हुये है, इसने भाजपा के अंदरूनी बेचैनी को एकझटके में सामने ला दिया है. कभी
चुनौती-विहीन माना जा रहा मोदी-शाह का नेतृत्व आज निशाने पर है. हार के बाद शिवराज
भी ताल ठोक कर कह रहे हैं कि "हर एक लम्बी दौड़ या फिर ऊँची छलांग से पहलें
दो क़दम पीछे हटना पड़ता हैं" जाहिर है मध्यप्रदेश में तो वो अपनी सबसे ऊँची छलांग
बहुत ही कामयाबी के साथ लगा चुके हैं ऐसे में जाहिर है उनकी अलगी लम्बी छलांग का
दायरा बड़ा ही होगा.
शिवराज के भाग्य का फैसला होना बाकी है
चुनाव हारने के बाद शिवराजसिंह लगातार इस बात का संकेत दे
रहे हैं कि कम-से कम लोकसभा चुनाव तक उनका इरादा मध्यप्रदेश में ही रहने का है और
वे लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगें. इस्तीफा देने के बाद उन्होंने प्रदेश के 52 ज़िलों
में आभार यात्रा निकालने की घोषणा की थी. इसका सीधा मतलब है कि वे अपनी जमीन छोड़ना
नहीं चाहते है और लोकसभा चुनाव के बाद बनने वाली परिस्थितियों का यहीं डटकर
इन्तेजार करना चाहते हैं. वे दो टूक कह चुके हैं कि, “मैं केंद्र की राजनीति में नहीं जाऊंगा. मैं मध्य प्रदेश
में ही रहूंगा और यहीं मरूंगा”.
शिवराजसिंह चौहान को 2005 में जब भाजपा नेतृत्व ने मुख्यमंत्री
बनाकर मध्यप्रदेश भेजा था तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि शिवराज इतनी लंबी पारी खेलेंगे, इस दौरान पार्टी के अंदर से मिलने वाली हर चुनौती को पीछे छोड़ने
में वे कामयाब रहे. मध्यप्रदेश की राजनीति में शिवराज इकलौते राजनेता हैं जो
लगातार तेरह सालों तक मुख्यमंत्री रह चुके हैं.
मध्यप्रदेश में पंद्रह साल की एंटी इन्कंबैंसी के बावजूद
अगर भाजपा इतने करीबी अंतर से सत्ता से बाहर हुयी है तो उसका पूरा श्रेय शिवराज को
ही दिया जा रहा है. ऐसे में भाजपा की
अंदरूनी राजनीति में उथल पथल शुरू हो चुकी है. इसमें शिवराज की भूमिका को देखना
दिलचस्प होगा. फिलहाल उनका जोर हिंदी ह्रदय प्रदेश की जमीन पर अपने पकड़ को कमजोर
ना होने देने का है. इसलिये चुनाव हारने के बाद वे इस दिशा में बहुत तेजी से एक्टिव
हुये हैं. प्रदेश की आम जनता और कार्यकर्ताओं से मिलने का सिलसिला लगातार जारी है और अपने
बयानों से मीडिया की सुर्खियां भी बटोर रहे हैं.
इन सबके बावजूद शिवराज को लेकर भाजपा में अनिश्चितता
की स्थिति बनी हुयी है और उनकी नई भूमिका को लेकर सस्पेंस बरकरार है. घोषणा के बावजूद उनके आभार
यात्रा को ही हरी झंडी नहीं दी गई. हालांकि शिवराजसिंह चौहान कम से कम लोकसभा
चुनाव तक भाजपा आलाकमान के लिये मजबूरी बने रहेंगें क्योंकी यहां शिवराज ने अपने
अलावा किसी और नेता को पनपने नहीं दिया है इसलिये फिलहाल पार्टी के पास मध्यप्रदेश
में शिवराज के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. इसलिये ऐसा लगता है कि शिवराज के
भाग्य का फैसला 2019 लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद ही होगा.
पाँच राज्यों के चुनावी परिणाम को फ़ाइनल से पहले का
सेमीफ़ाइनल माना जा रहा था. इस सेमीफ़ाइनल मुक़ाबले में कांग्रेस ने ये दिखाया है
कि वो बीजेपी को ना केवल उसके गढ़ में चुनौती दे सकती है, बल्कि उसे सत्ता से बाहर का रास्ता
भी दिखा सकती है. कुछ ही महीनों के बाद होने
वाला लोकसभा चुनाव भारत के भविष्य की दिशा-दशा के
लिए बहुत अहम् साबित होने वाला
है और यह अलग ही लेवल पर लड़ा जायेगा. ऐसे में तीन
राज्यों में मिली जीत से अगर कांग्रेस व अन्य विपक्षी पार्टियां से यह सन्देश
निकलती हैं कि 2019 में उनके लिये नरेंद्र मोदी को हराना बहुत आसान हो गया है तो यह
उनके लिये आत्मघाती साबित होगा. बहरहाल 2019 की लड़ाई बहुत दिलचस्प होने जा रही है.
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