जहाँ बाबरी मस्जिद थी वहां अस्पताल बना दो? पर क्यूँ भाई?
अयोध्या के मसले पर आख़िरकार अदालत का फेसला आने ही वाला है . इस मसले पर काफी अलग अलग विचार है . इसी सन्दर्भ मे साथी समर का आलेख प्रस्तुत है
जहाँ बाबरी मस्जिद थी वहां अस्पताल बना दो? पर क्यूँ भाई?
सच बोलने से डर लगने लगे ऐसे वक़्त, पाश के शब्द उधार लूँ तो, खतरनाक तो हैं पर सबसे खतरनाक नहीं होते. सबसे खतरनाक वो वक़्त होते हैं जब मजलूम भी जालिम की जुबान बोलने लगें. सबसे खतरनाक इसलिए कि ऐसे वक्तों उनके चेहरे पे पसरी हुई दहशत बिलकुल साफ़ नज़र आती है. आईने की तरह. आयर जब हम उनकी आँखों में झांकते हैं तो जो डरा हुआ चेहरा नज़र आता है वो उनका नहीं हमारा होता है. सफ़ेद, शफ्फाक. नजर चुराती हुई ऑंखें, कहीं दूर अदृश्य में कुछ देखती हुई.
ये वक़्त सबसे खतरनाक होते हैं क्यूंकि इन वक्तों में हवाओं में सच शगूफों से उछलते रहते हैं और जमीन में एक अजब अहमकाना और कातर चुप्पी पसरी होती है. फिर ये होता है कि हम सच और शगूफों का फरक भूल जाते हैं.
जैसे ये कि जहाँ बाबरी मस्जिद थी, जो इन फिरकापरस्तों ने ढहा दी थी वहां अस्पताल बना दो. वहां बच्चों का खेल बना दो. वहां ये बना दो. वहां ये बना दो. बस जो एक बात कोई नहीं करता वो ये कि जहाँ बाबरी मस्जिद थी वहां बाबरी मस्जिद बनाओ. वहां कुछ और बनाना इन्साफ के खिलाफ तो है ही पर उससे ज्यादा हम डरे हुए लोगों का अरण्य रोदन है. जंगल विलाप है.
अगर यही करना है तो क्यूँ ना ऐसा करें की इन को बोलें कि भाई तुम तोड़ते चलो हम बनाते चलेंगे. तुम मस्जिद तोड़ो, हम अस्पताल बनायेंगे. तुम चर्च, तोड़ो हम स्कूल बनायेंगे. तुम गुरुद्वारा तोड़ो, हम बच्चों के खेलने का मैदान बनायेंगे. बस एक बात, जो तुम तोड़ोगे, वो हम कभी नहीं बनायेंगे. और फिर, इस मुल्क में किसी और का कहने को कुछ नहीं होगा.
सवाल ये है कि जो तोडा था वही क्यूँ न बनायें. क्यूंकि इससे दंगों का खतरा है. क्यूँ भाई? पुलिस है, प्रशाशन है वो बस चुप बैठा रहेगा? सेना है जो कश्मीर के, उत्तर पूर्व के पूरे अवाम को चुप रख सकती है( लोकतान्त्रिक सरकार के आदेश से) वो चंद दंगाइयों से नहीं निपट सकती? अगर नहीं, तो रखा क्यूँ है भाई?
और अगर कुछ और ही बनाना है, मस्जिद नहीं तो एक अहसान करो. अस्पताल मत बनाओ. जिस जगह के नाम पे इतने लोगों का क़त्ल हुआ वहां जान बचाने की बातें अच्छी नहीं लगेंगी. पार्क मत बनाओ भाई. क्या खेलेंगे लोग वहां? दंगों के खेल? और क्या रंग आएगा ऐसे पार्क में खिलने वाले फूलों पे? लाल खून का रंग?
बच्चों का स्कूल मत बनाओ- क्या पढेंगे बच्चे उस स्कूल में? कि दूसरों की इबादतगाह तोड़ने के कोई सजा नहीं होती? उनके गाने बदल जायेंगे ऐसे स्कूल में पढ़ के. और यकीन करिए कि मजहब ही सिखाता है आपस में बैर करना गाते हुए बच्चे और कुछ भी लगें बच्चे नहीं लगें.
तो भाई, कुछ और ही बनाना है तो एक काम करो.
जहाँ मस्जिद थी वहां कोमनवेल्थ खेलों का एक मैदान बना दो. कम से कम कुछ भ्रष्ट और बेईमान नेताओं का फायदा तो होगा.
या उससे भी बेहतर, एक नकली गाँव बना दो. राहुल गांधियों के लिए गरीबों की झोपड़ी में रात गुजारना आसान हो जायेगा, और ये जगह देश की संस्कृति (अगर कोई है तो) विदेशियों को बेचने के काम भी आएगी.
या फिर मनमोहन सिंह साहब के लिए एक स्थाई मंच बनवा दो. फिर वो कह ही नहीं दिखा भी सकेंगे की अंग्रेजों से क्या सुशासन और क्या सूरज सिखा है.
और इस सबसे बेहतर, एक जंगल लगवा दो. उत्तर प्रदेश पुलिस को फर्जी मुठभेड़ों के लिए एक अच्छी जगह भी मिल जाएगी और जम्हूरियत और इन्साफ के क़त्ल की जगह का इससे अच्छा इस्तेमाल हो भी क्या सकता है?
- समर अनार्या
सच बोलने से डर लगने लगे ऐसे वक़्त, पाश के शब्द उधार लूँ तो, खतरनाक तो हैं पर सबसे खतरनाक नहीं होते. सबसे खतरनाक वो वक़्त होते हैं जब मजलूम भी जालिम की जुबान बोलने लगें. सबसे खतरनाक इसलिए कि ऐसे वक्तों उनके चेहरे पे पसरी हुई दहशत बिलकुल साफ़ नज़र आती है. आईने की तरह. आयर जब हम उनकी आँखों में झांकते हैं तो जो डरा हुआ चेहरा नज़र आता है वो उनका नहीं हमारा होता है. सफ़ेद, शफ्फाक. नजर चुराती हुई ऑंखें, कहीं दूर अदृश्य में कुछ देखती हुई.
ये वक़्त सबसे खतरनाक होते हैं क्यूंकि इन वक्तों में हवाओं में सच शगूफों से उछलते रहते हैं और जमीन में एक अजब अहमकाना और कातर चुप्पी पसरी होती है. फिर ये होता है कि हम सच और शगूफों का फरक भूल जाते हैं.
जैसे ये कि जहाँ बाबरी मस्जिद थी, जो इन फिरकापरस्तों ने ढहा दी थी वहां अस्पताल बना दो. वहां बच्चों का खेल बना दो. वहां ये बना दो. वहां ये बना दो. बस जो एक बात कोई नहीं करता वो ये कि जहाँ बाबरी मस्जिद थी वहां बाबरी मस्जिद बनाओ. वहां कुछ और बनाना इन्साफ के खिलाफ तो है ही पर उससे ज्यादा हम डरे हुए लोगों का अरण्य रोदन है. जंगल विलाप है.
अगर यही करना है तो क्यूँ ना ऐसा करें की इन को बोलें कि भाई तुम तोड़ते चलो हम बनाते चलेंगे. तुम मस्जिद तोड़ो, हम अस्पताल बनायेंगे. तुम चर्च, तोड़ो हम स्कूल बनायेंगे. तुम गुरुद्वारा तोड़ो, हम बच्चों के खेलने का मैदान बनायेंगे. बस एक बात, जो तुम तोड़ोगे, वो हम कभी नहीं बनायेंगे. और फिर, इस मुल्क में किसी और का कहने को कुछ नहीं होगा.
सवाल ये है कि जो तोडा था वही क्यूँ न बनायें. क्यूंकि इससे दंगों का खतरा है. क्यूँ भाई? पुलिस है, प्रशाशन है वो बस चुप बैठा रहेगा? सेना है जो कश्मीर के, उत्तर पूर्व के पूरे अवाम को चुप रख सकती है( लोकतान्त्रिक सरकार के आदेश से) वो चंद दंगाइयों से नहीं निपट सकती? अगर नहीं, तो रखा क्यूँ है भाई?
और अगर कुछ और ही बनाना है, मस्जिद नहीं तो एक अहसान करो. अस्पताल मत बनाओ. जिस जगह के नाम पे इतने लोगों का क़त्ल हुआ वहां जान बचाने की बातें अच्छी नहीं लगेंगी. पार्क मत बनाओ भाई. क्या खेलेंगे लोग वहां? दंगों के खेल? और क्या रंग आएगा ऐसे पार्क में खिलने वाले फूलों पे? लाल खून का रंग?
बच्चों का स्कूल मत बनाओ- क्या पढेंगे बच्चे उस स्कूल में? कि दूसरों की इबादतगाह तोड़ने के कोई सजा नहीं होती? उनके गाने बदल जायेंगे ऐसे स्कूल में पढ़ के. और यकीन करिए कि मजहब ही सिखाता है आपस में बैर करना गाते हुए बच्चे और कुछ भी लगें बच्चे नहीं लगें.
तो भाई, कुछ और ही बनाना है तो एक काम करो.
जहाँ मस्जिद थी वहां कोमनवेल्थ खेलों का एक मैदान बना दो. कम से कम कुछ भ्रष्ट और बेईमान नेताओं का फायदा तो होगा.
या उससे भी बेहतर, एक नकली गाँव बना दो. राहुल गांधियों के लिए गरीबों की झोपड़ी में रात गुजारना आसान हो जायेगा, और ये जगह देश की संस्कृति (अगर कोई है तो) विदेशियों को बेचने के काम भी आएगी.
या फिर मनमोहन सिंह साहब के लिए एक स्थाई मंच बनवा दो. फिर वो कह ही नहीं दिखा भी सकेंगे की अंग्रेजों से क्या सुशासन और क्या सूरज सिखा है.
और इस सबसे बेहतर, एक जंगल लगवा दो. उत्तर प्रदेश पुलिस को फर्जी मुठभेड़ों के लिए एक अच्छी जगह भी मिल जाएगी और जम्हूरियत और इन्साफ के क़त्ल की जगह का इससे अच्छा इस्तेमाल हो भी क्या सकता है?
- समर अनार्या
bahut sahi ! sach bilkul apne nange roop mein darz karna aj behad jaruri hai ! aksar yahi tmaam naye chamkeele lihaafoin mein chupa ke pesh kiya jata rahaa hai ! kabhi to nihayat sharifana kayarta ki naqaab mein lipat ke upri taur pe malham lagaatqa nazar aata hai !lekin jiski tah mein tamaam beinsaafiyan atthaas karti nazar aati aur insaniyat ki chhati pe moong dalti rahengi aane vale dinon mein bhi !!!jiski gandh aj ke sabhya samaaj kee bhasha dekhai de rahaa hai ! jaruri hai iski padtaal karne ki !!!
ReplyDeleteसमर का ये लेख मैं उसके ब्लॉग पर पढ़ चुकी हूँ. सही लिखा है. सटीक व्यंग्य.
ReplyDeleteवहाँ संसद भी बनवा दो,एक बड़ा सा महल बनवा दो,और उसमें नेताओं और नौकरशाहों को रखवा दो, महल पर एक ताला लगवा दो,ताले की ताली किसी गहरे सागर में फिंकवा दो, या बापू के पास भिजवा दो !
ReplyDeletesahi kaha bhai
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