गौभक्तों के नाम खुला पत्र


-एल.एस. हरदेनिया


आए दिन देश के अनेक वे लोग जो गाय को माता मानते हैं बार-बार इस बात की दुहाई दे रहे हैं कि वे गाय की हत्या सहन नहीं करेंगे। उनमें से अनेक यह मांग कर रहे हैं कि गाय के हत्यारों को फांसी की सज़ा मिलनी चाहिए। उनकी इस भावना का सम्मान करते हुए मैं उनसे कुछ सवाल पूछना चाहूंगा।
गाय के हत्यारों के लिए फांसी की सज़ा की उनकी मांग पर मुझे फिलहाल कुछ नहीं कहना है। परंतु इन गौभक्तों का उन लोगों के बारे में क्या कहना है जो अपनी ऐसी गायों को जो दूध देना बंद कर देती हैं, खुला छोड़ देते हैं। उनकी क्या हालत है इसकी चिंता नहीं करते हैं। ये गायें गांवों और शहरों की सड़कों पर, राजमार्गों पर, राष्ट्रीय मार्गों पर दिन-रात बैठी रहती हैं। अपनी भूख मिटाने के लिए कचरे के साथ फेंके हुए सड़े अन्न, सब्जियां और यहां तक कि प्लास्टिक की थैलियां भी खा लेती हैं।

पिछले दिनों प्लास्टिक की थैलियां खाने के कारण अनेक गायों की अकाल मृत्यु हुई है।  हमारे गौभक्त ऐसे लोगों के लिए कौनसी सज़ा निर्धारित करना चाहेंगे जो अपनी माताओं को सड़कों के भरोसे छोड़ देते हैं?

फिर, उन गौभक्तों का क्या किया जाए जो बूढ़ी होने पर अपनी गौमाताओं को गौशाला भेज देते हैं। जो गायें काटी जाती हैं उन्हें कोई व्यक्ति जबरदस्ती उठाकर नहीं ले जाता है। ऐसी गायों के मालिक स्वयं उन्हें ऐसे लोगों को बेच देते हैं जो उन्हें उन कारखाने वालों को बेचते हैं जहां गायें काटी जाती हैं। इस तरह के लोगों के लिए किस सज़ा का निर्धारण हो?

मैंने कभी गौभक्तों को यह मांग करते हुए नहीं सुना कि जो सड़कों पर अपनी गायों को छोड़ेगा, उसे वे सख्त से सख्त सज़ा दिलवायेंगे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि गाय की उपयोगिता है। खासकर इसलिए कि उसका दूध अन्य दूध देने वाले पशुओं से ज्यादा पोष्टिक समझा जाता है। खेती का यंत्रिकरण होने से पहले गाय की और ज्यादा उपयोगिता थी क्योंकि वह बैल को जन्म देती थी, जो खेती के काम आता था।

सच पूछा जाए तो इन तथाकथित गौभक्तों को गाय से कुछ लेनादेना नहीं है। आज से ही नहीं बरसों से गाय दकियानूसी हिंदू राजनीति का मोहरा बनी हुई है। मैं गौभक्तों से एक और प्रश्न पूछना चाहूंगा कि जब गौमाता की मृत्यु हो जाती है तो उसे उसी तरह दफनाया दिया जाता है जैसे अन्य पशुओं को दफनाया जाता है। गांवों में तो एक विशिष्ट जाति के लोग पशुओं की अंतिम क्रिया की जिम्मेदारी निभाते हैं। कुछ स्थानों पर इस जाति विशेष के लोगों ने इस जि़म्मेदारी को निभाने से इंकार कर दिया है। मैं ऐसे कुछ गांवों को जानता हूं जहां उन लोगों का बहिष्कार किया जा रहा है जो मृत पशु का अंतिम संस्कार करने से इंकार करते हैं।

यदि गाय, माता है तो उसका अंतिम संस्कार हमारे गौभक्त उसी ढंग से क्यों नहीं करते जैसे वे अपनी मां का करते हैं? अपनी मां और गौमाता के बीच यह भेदभाव क्यों? गौभक्त यह फैसला क्यों नहीं करवाते हंै कि मृत गायों का अंतिम संस्कार उसी विधि से होगा जैसे मनुष्यों का होता है और विशेषकर मां का होता है।

यदि इन तत्वों की-जो अपने आप को गौभक्त कहते हैं-भक्ति सच्ची है तो वे जन्म से लेकर मृत्यु तक गाय के साथ वैसा व्यवहार क्यों नहीं करते जैसा वे अपनी मां से करते हैं?

यहां मुझे स्वामी विवेकानंद से जुड़ी एक घटना याद आ रही है। स्वामीजी से बिहार का एक शिष्टमंडल मिलने आया। स्वामीजी ने उनसे पूछा कि तुम किस उद्देश्य से मेरे पास आए हो? उन लोगों ने कहा कि हम गौरक्षा समिति के सदस्य हैं और गायों का वध रोकने का प्रयास करते हैं। इस पर स्वामीजी ने उनसे कहा कि अभी कुछ दिन पहले बिहार में एक बड़ा अकाल पड़ा था। उस अकाल में बड़ी संख्या में लोग मरे थे।

आप लोगों ने इस अकाल की विभिषिका से कितने लोगों को बचाया? इस पर शिष्टमंडल के सदस्यों ने कहा कि जो लोग भूख से मरे उसका कारण उनके द्वारा पूर्व जन्म में किए पापकर्म थे। इस पर स्वामीजी ने कहा कि जो गायें काटी जाती हैं, क्या कहीं उसके लिए उनके द्वारा पूर्व जन्म में किए गए पापकर्म तो उत्तरदायी नहीं है? स्वामीजी ने यह सवाल इसलिए पूछा होगा क्योंकि जिस समाज में लाखों लोग भूख से मर जाएं उस समाज की प्राथमिकता क्या होनी चाहिए, इंसानों को बचाना या पशुओं को?

आज भी हमारे देश में लाखों लोग ऐसे हैं जिन्हें एक समय का खाना भी उपलब्ध नहीं हो पाता है। क्या उनकी चिंता हमारे गौभक्तों को नहीं करना चाहिए।

अभी कुछ दिन पहले भारतीय जनता पार्टी के सांसद श्री तरूण विजय ने ‘‘इंडियन एक्सप्रेस’’ में लिखा कि हमारे देश से मांस का सबसे ज्यादा निर्यात करने वाला व्यापारी हिंदू है। उन्होंने इस बात पर भी चिंता प्रकट की कि दादरी जैसे घटनाएं विकास की राह में रोड़ा बनती हैं। क्या गौभक्त तरूण विजय, जो वर्षों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साप्ताहिक के संपादक रहें हैं, की बात पर ध्यान देंगे? क्या यह अच्छा नहीं होता कि दादरी के अखलाक़ को मारने के पहले यह पता लगा लिया जाता कि अखलाक़ और उनके परिवार के लोगों ने जो गोश्त खाया था, वह गाय का था भी या नहीं। सिर्फ अफवाह के आधार पर एक निर्दोष व्यक्ति की हत्या, वह भी एक भीड़ द्वारा, क्या मानवता के विरूद्ध जघन्य  अपराध नहीं है? या क्या गौभक्तों की निगाह में किसी निर्दोष मनुष्य की हत्या किसी गाय के वध से कम गंभीर है?

गौभक्त गौमाता के प्रति अपनी भक्ति दिखाने में बहुत जल्दी करतें हैं। यदि उन्हें सपने में दिखता है कि कोई गाय को मार रहा है या उसका मांस खा रहा है तो वे बिना इस बात का पता लगाए कि वास्तविकता क्या है हथियार उठा लेते हैं और तथाकथित गौमाता के हत्यारों की निर्ममता से हत्या कर देते हैं। जैसा कि दादरी में हुआ। भाजपा के कुछ नेता कह रहे हैं कि अखलाक की हत्या एक दुर्घटना थी या उसकी पूर्वनियोजित तैयारी नहीं थी, वह सब कुछ तो यकायक हो गया। यदि ऐसा था तो मंदिर में 200 लोग क्यों इकट्ठा थे? बताया गया है कि उनमें से बहुसंख्यक उस गांव के रहने वाले नहीं थे। फिर लाउडस्पीकर से यह सूचना दी गई कि अखलाक के घर में गौमांस रखा हुआ है और उसके परिवार के लोग उसको खा भी रहे हैं। बस यह घोषणा होना था कि हिंसक भीड़ ने अखलाक के घर पर हमला किया और उन्हें बाहर खींचकर मार डाला।

बाद में पता लगा कि जो गोश्त अखलाक के घर में रखा था वह गाय का नहीं था। अल्पसंख्यक आयोग की जांच में यह पता लगा कि उस दिन की घटना पूर्वनियोजित थी। यदि ऐसा है तो क्यों न उस भीड़ के एक-एक सदस्य को हत्या के जुर्म में सजा दी जाए?


ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर हमारे गौभक्त भाईयों से अपेक्षित हैं।

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