भोपाल का एक दिन
[साथी रितेश मिश्रा ने ये कविता पिछले साल १४ फरवरी को लिखी थी ]
एक फोन ने जगाया
मैं जागा नहीं
देर रात तक पढ़ी थी
'आंगन के पार द्वार'
पंद्रह मिनट मात्र
सब निबटा
और पुरानी नीली स्कूटर (जो मेरी नहीं)
बहुत पुराना रिश्ता है मेरा
नीले से
और पुरानी स्कूटरों से
'खास नील से'!
ग्यारह बजे अनिल सदगोपाल
की रैली-
कार्यकर्ताओं के बीच
गले में टाँगा
'सबको शिक्षा एक समान, मांग रहा है हिन्दुस्तान'
-हिन्दुस्तान की मांगे बहुत हैं!!
नारे लगाए,
पर्चे बांटे ,
लगातार सोचता रहा
(क्या-क्या याद नहीं)
रैली खतम
तीन बजे
चार बजे एक 'युवा- संवाद ' का प्रदर्शन,
त्रिशुल-धारियों के विरोध का विरोध,
आज वैलेन्टईन डे
पर मैं प्रेम किससे करता हूँ
संशय...?
बैनर थामा,
गीत गाए,
और फुटपाथ पर रखे
चार्ट पेपर पर
सब की तरह लिखी
प्रेम की परिभाषा, अपनी,
'लव इज फ्रीडम एण्ड एक्सेप्टेन्स'
प्रदर्शन खतम।।
आठ बजे
भारत भवन में कथक
अहा! कथक-?
काश! मैं भी नाच पाता-
तब तो दिन भर नाचता
पर नाचता तो हूँ ?
ये कौन सी आशा है, मुझको, मुझी से?
आशा-एक रिपोर्टर,
सामने की दर्शक दीर्घा में देखती कथक
कुछ लिखेगी आज
मैं भी लिखता हूँ
वो निकली
मैं भी निकला।।
दस बजे फोन आया
फिर हुआ है 'बलात्कार का प्रयास'
हर प्रयास ज्यादा ज्यादा चिन्तन लिए
होता है
'हो जाने से'
लगातार फोन आये ,
विक्टिम को छह महीने से जानता हूँ ,
खुद को छह महीने से नहीं जान पाया !
छात्र-सभा के बीच-
आक्रोश, पीड़ा, घृणा,
बहुत सी आंखें
( गोरख कि एक कविता याद आयी )
मैं लगातार करता रहा संवाद
(खुद से भी)
अपशब्द भनभाते रहे
कानों में
नहीं मालूम कि कौन 'विक्टिम'
कौन 'कल्प्रिट'
पर स्त्री, स्त्री है ये कौंध जाता है।
पापा का फोन आया
दवाई खाई?
पर मेरी दवाई मैं खुद हूँ
पापा जानते हैं।
आखें थक गईं
मैं नहीं थका
भोर हुई-सोया नहीं अब तक
'आंगन के पार द्वार' की कुछ पंक्तियाँ
धक् से आयीं-
"आह! जो हमें सरसाता है
वह छिपा हुआ पानी है हमारा
इस जानी पहचानी
माटी के नीचे का
-रीतता नहीं
बीतता नहीं "
भोपाल का एक दिन
आशा-एक रिपोर्टर की तरह
मैंने भी लिखा
वह पहले लिखती है
मैं बाद में!
...
antardwand se bhari rachna... khoob likha...
ReplyDelete@ Ritesh mishra ji - Bhopal ka ek din... bahut hi khoobsurti se darshaya hai....
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