गोदान- समकालीन भारतीय किसान जीवन का राष्ट्रीय रूपक
(31 जुलाई - प्रेमचन्द जयन्ती पर विशेष )
स्वदेश कुमार सिंन्हा
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गोदान पर "कलां कम्यून बनारस" की पेंटिंग |
प्रेमचन्द हिन्दी कालजयी कथाकार हैं
और गोदान उनकी कालजयी कृति। करीब एक दशक पूर्व भोपाल में आयोजित एक संगोष्ठी में हिन्दी के प्रख्यात आलोचक
डा0 नामवर सिंह ने आधुनिक हिन्दी कथा
साहित्य की जिन पांच कृतियों को कालजयी घोषित
किया था उनमें “गोदान” सर्वोपरि है। इसे भारतीय किसान जीवन के राष्ट्रीय रूपक (नेशनल
एलीगरी) का दर्जा प्राप्त है। गोदान हिन्दी जातीय चेतना की ऐसी अभिब्यक्ति है, जिसमें हिन्दी जाति अपनी विभिन्न अर्थ-ध्वनियां सुनती हैं
इसमें प्रत्येक
पीढ़ी अपने बनते -टूटने सपनो का अन्वेषण करती रहती है।
यह उपन्यास 1932-36 में लिखा गया तथा प्रकाशित हुआ था।
अर्थात आज इसके प्रकाशन के करीब 85 वर्ष पूरे होने को है। अब यह हिन्दी पाठको की पांचवी पीढ़ी के सामने है। गोदान किसान जीवन का एक ऐसा दस्तावेज
है जिसके माध्यम से प्रेमचन्द ने एक छोटे किसान “होरी” को उसका नायक बनाय, यह केवल हिन्दी ही नही समूचे भारतीय
साहित्य में अनूठा था। होरी ने अपने ऐतिहासिक चरित्र के माध्यम से समूचे विश्व साहित्य
को प्रभावित किया। पूर्वी यूरोप तथा सोवियत संघ के अनेक लेखको ने होरी जैसे चरित्रो
को अपने साहित्य में रचा। गोदान का भारतीय भाषाओें के साथ-साथ यूरोप की तमाम भाषाओ
में अनुवाद हुआ। सिर्फ 1950-60 के बीच इसका 36 भाषाओें में अनुवाद हुआ।
चेकोस्लोवाकिया के विद्धान “डा0 डग्मार मारकोवा”
लिखते हैं “गोदान” एक ऐसा ग्राम उपन्यास
है जो प्रेमचन्द के बाद के हिन्दी लेखको
को ग्राम उपन्यास का रास्ता दिखाता है। इसमें ग्राम्य जीवन का इतना सटीक चित्रण है कि पाठक अपने
को किसी भारतीय गावं का निवासी महसूस करने लगता है। भले ही आपने एक भी गावं न देखा
हो। संवाद इतने जीवन्त है कि कथा प्रवाह को बाधित नही बल्कि गति प्रदान करते हैं तथा
अपने पात्रों के आपसी रिश्तो और तनाव को प्रकट
करते हैं। गोदान का एक-एक पात्र एक-एक प्रसंग स्वतंत्र व्याख्या की मांग करते हैं और निश्चित रूप से यदि ध्यान से पढ़ा जाये तो उपन्यास
के सर्वथा नये पहलू उद्घाटित होते हैं ।
गोदान उपन्यास का अंत त्रासदी में
होता है। इसमें भविष्य के भारत की तस्वीर दिखलायी पड़ती है। उपन्यास
का नायक होरी कर्ज में डूबा सारी जिन्दगी लड़ते-लड़ते
क्षय का शिकार होकर एक गाय खरीदने का अरमान लेकर मौत का शिकार हो जाता है ओैर भारतीय
गावं कर्मकाण्डियों “शोषको” बेईमानों के हाथ गोदान कर
दिया जाता है। यह सब कुछ तन व मन से थके पर बुद्धि से पके खीझे प्रेमचन्द का समाज है।
उपन्यास में असलियत बिना किसी अतिरिक्त करीगरी के इतने तल्ख और बेलौस ढंग से आती है
, लगता है कि यह बूढ़ा कथाकार एक ऊॅवे
ड़हे पर खड़ा होकर हिन्दुस्तान के गुथमगुत्था होते दिशा हारा समाज को देख रहा है।
गोदान का किसान होरी सामन्ती “पुरोहिती” और सूदखोरी की साजिश का
शिकार होता है। गोदान में तरह-तरह की पीड़ाये हैं । परिवार का टूटन, गावं में बिखरती
सामूहिकता, अन्धविश्वास, जात-पात, स्त्री का शोषण आदि। यह केवल ऋण की
महागाथा नही है जैसा कि रामबिलास शर्मा जैसे आलोचक अपनी पुस्तक “प्रेमचन्द और उनका युग” में लिखते हैं।
गोदान के लेखन के आज भले 85 वर्ष बीत गये हो, परन्तु भारतीय ग्राम्य-जीवन का यथार्थ
आज भी बहुत कुछ नही बदला है। देश की 60 प्रतिशत आबादी किसी न किसी रूप में
कृषि से जुड़ी है, परन्तु “सकल घरेलू उत्पादन” (जी0डी0पी0) में उसकी हिस्सेदारी लगभग 25 प्रतिशत ही है। जमींदारी प्रथा भले ही समाप्त हो गयी हो
परन्तु भूमि के विषम विभाजन ने गावों में नये तरह के कुलक ओैर भू-स्वामी पैदा कर दिये हैं
। गावं उजड़ रहे हैं छोटे किसान अपनी
जमीनो से बेदखल होकर महानगरो में मजदूरी करने को विवश हैं । महाजनों तथा बैंको के कर्ज
के चंगुल में फॅसे हजारो किसान आज आत्महत्या करने को मजबूर हैं । सरकारी संस्था क्राइम
रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार सन् 2013 में सिर्फ महाराष्ट्र के विदर्भ
क्षेत्र में 3147 किसानो ने बैंकों का ऋण न चुका पाने के कारण आत्म हत्या कर लिये। पूरे
देश के आकड़ों केा देखे तो यह स्थिति और भी
भयावह है।
अपनी जीवटता के लिए स्मरणीय आज के
होरी के सामने केवल दो ही विकल्प हैं या तो
वह आत्महत्या का रास्ता अपनाये या फिर गैरकानूनी ढंग से अपनी आमदनी बढ़ाने का प्रयास
करे, वह भी जब कथित “सुराज”
आ चुका है।
कोई भी महान उपन्यास कालजयी तभी बनता
है जब वह वर्तमान के यथार्थ के साथ-साथ भविष्य को भी सम्बोधित करे । गोदान इसमें पूर्ण
रूप से खरा उतरता है। इसलिए इस उपन्यास के प्रकाशन के इतने वर्ष बीतने के बावजूद बार-बार
इसके पुनर्पाठ की जरूरत है।
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