मालेगांव से मोदासा
सुभाष गाताडे
मुंबई की मशहूर वकील रोहिणी सालियन पिछले दिनों सुर्खियों में आर्इं।
कारण बना इन खबरों का आना कि किस तरह राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) की तरफ से उन
पर दबाव पड़ रहा है कि वह मालेगांव बम धमाके में चुस्ती न बरतें। इस मसले पर चर्चा
चल ही रही थी कि खबर आई कि अजमेर बम धमाके (2007) के मामले में एक के बाद एक कई गवाह अपने बयान से मुकर चुके हैं और
एनआइए ने संघ प्रचारक सुनील जोशी की हत्या के मामले को अचानक फिर मध्यप्रदेश पुलिस
को लौटाने का फैसला किया है। और अब खबर यह भी है कि एनआइए ने ‘अधूरे सबूतों’ की बात
करते हुए मोदासा विस्फोट मामले में अपनी फाइल बंद करने का निर्णय किया है।
लिहाजा, सहज ही यह सवाल उठता है कि क्या केंद्र में भाजपा के आने के बाद
हिंदुत्व-आतंक की परिघटना और उससे जुड़े मामलों में शामिल लोगों को क्लीन चिट देने
की तैयारी चल रही है? दिलचस्प है कि इस बदली हुई परिस्थिति को लेकर संकेत एक केंद्रीय
मंत्री के हालिया बयान से भी मिलता है जिसमें उन्होंने ‘हिंदू आतंक की किसी संभावना
को सिरे से खारिज किया था।’ जबकि एनआइए कम से कम सोलह ऐसे उच्चस्तरीय मामलों की जांच में
मुब्तिला रही है, जिसमें हिंदुत्व-आतंकवादियों की स्पष्ट संलिप्तता दिखती है।
मोदासा उन दिनों गुजरात के सांबरकांठा जिले का हिस्सा था और अब अलग
जिला है। वहां सितंबर 2009 में
रमजान के महीने में मुसलिम-बहुल सुका बाजार इलाके में विस्फोट हुआ था, जिसमें
एक किशोर मारा गया और कई घायल हुए थे। यह एक ऐसी घटना थी, जिसकी बहुत
कम छानबीन की गई है। अब जबकि आधिकारिक तौर पर उसकी फाइल बंद करने का निर्णय लिया
जा चुका है, तब यह
देखना मौजूं होगा कि एनआइए ने इस कांड की अपनी अंतरिम जांच में क्या पाया था।
गौरतलब है कि तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने एलान किया था कि उन्होंने 2008 के उपरोक्त बम विस्फोट के मामले में अहम सुराग हासिल किए हैं।
मोदासा में बम विस्फोट सुका बाजार में मस्जिद के सामने खड़ी
मोटरसाइकिल में लदे विस्फोटकों के चलते हुआ था, जिसमें पंद्रह साल का एक किशोर मारा गया था और सोलह लोग घायल हुए थे।
ईद के महज दो दिन पहले यह घटना हुई थी, जब रात की नमाज शुरू होने वाली थी।
वैसे बहुत कम लोग इस बात से परिचित हैं कि मोदासा और एक अन्य शहर
मालेगांव में एक साथ, एक ही दिन, लगभग एक ही वक्त धमाके हुए थे। दोनों मुसलिम-बहुल इलाके थे और दोनों
जगह विस्फोटकों के लिए दुपहिया वाहनों का इस्तेमाल किया गया। दोनों में फर्क इतना
ही था कि मालेगांव महाराष्ट्र का हिस्सा है जहां उन दिनों कांग्रेस-राष्ट्रवादी
कांग्रेस पार्टी का शासन था, जबकि मोदासा, गुजरात में पड़ता था, जहां कई सालों से भाजपा सत्ता पर काबिज थी। मालेगांव में आठ मौतें
हुई थीं और अस्सी के करीब लोग घायल हुए थे। यहां विस्फोटकों से लदी मोटरसाइकिल बंद
पड़े ‘सिमी’ कार्यालय
के सामने पार्क की गई थी, जबकि मोदासा में सुका बाजार की मस्जिद के सामने हीरो होंडा
मोटरसाइकिल खड़ी की गई थी।
दिलचस्प है कि गुजरात पुलिस, जो ‘जिहादी आतंकवादी’ घटनाओं के खुलासे में फुर्ती को लेकर हमेशा अपनी पीठ थपथपाती रही है, उसी
किस्म की कार्यक्षमता मोदासा मामले में नहीं दिखा सकी और न ही कोई सुराग हासिल कर
सकी। इस मामले की जांच में अपनी विफलता के बावजूद उसने महाराष्ट्र के आतंकवाद
निरोधक दस्ते से सहायता लेना जरूरी नहीं समझा, जिसने मालेगांव मामले को उजागर किया था।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि महाराष्ट्र एटीएस टीम पर, जिसकी
अगुआई जांबाज पुलिस अफसर हेमंत करकरे कर रहे थे, कोई दबाव नहीं था। 2008 के आतंकी
हमले में हेमंत करकरे की शहादत के बाद रिबेरो जैसे पूर्व पुलिस अधिकारीका कहना था
कि करकरे ने उन्हें बताया था कि वह कितने दबाव में काम कर रहे हैं। इतना ही नहीं, हिंदुत्ववादी
संगठनों और बहुसंख्यकवादी रुझान वाले मीडिया ने यही माहौल बनाने की कोशिश की थी कि
इस घटना के लिए ‘जिहादी आतंकी’ जिम्मेदार हैं।
जब करकरे की जांच सही दिशा में आगे बढ़ रही थी, तब
इन्हीं संगठनों ने महाराष्ट्र बंद का आह्वान कर करकरे को ‘हिंदू विरोधी’ प्रचारित
करने की योजना बनाई थी। ये वही लोग थे जिन्होंने मालेगांव विस्फोट कांड के
आरोपियों पर नाशिक और पुणे की अदालत में पेश किए जाते वक्त उन पर गुलाब की
पंखुड़ियां बरसा कर उनका खैरमकदम किया था।
निश्चित ही यह करकरे जैसे अधिकारियों की पेशागत ईमानदारी और जज्बे का
ही कमाल था कि उन्होंने तमाम दबावों, प्रचारों, प्रलोभनों के आगे न झुकते हुए अपनी जांच जारी रखी और दूर तक फैले
हिंदुत्व-आतंकी नेटवर्क का खुलासा किया। और इस तरह जहां महाराष्ट्र की पुलिस ने 29 सितंबर 2008 के
मालेगांव धमाके को अंजाम देने वाले कातिलों को ढंूढ़ निकाला और उन्हें सलाखों के
पीछे भेजा, वहीं
गुजरात पुलिस निष्क्रिय बनी रही। वह मामूली कामों को भी आगे बढ़ाने में विफल रही।
उसने महज दो बातें कीं। एक, उसने उपरोक्त दुपहिया वाहन की चासिस अमदाबाद स्थित फोरेंसिक साइंस
लैब को भेज दी ताकि वह मोटरसाइकिल का नंबर बता सके। दूसरे, उसने
विभिन्न समुदायों के सक्रिय सदस्यों को बुला कर उनसे बयान लिए। इस हकीकत के बावजूद
कि महाराष्ट्र का आतंकवाद निरोधक दस्ता, जो इस मामले की जांच में सहयोग करना चाहता था, गुजरात
पुलिस ने यह सहयोग हासिल करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
मोडासा का मामला वहीं दफन हो जाता, मगर इत्तिफाक से उन्हीं दिनों अजमेर तथा मक्का मस्जिद धमाके में (2007) नए
खुलासे के बाद, जिसमें
संघ के कार्यकर्ताओं की संलिप्तता दिखी थी और उनसे जुड़ा नेटवर्क शक के घेरे में
आया था, और फिर
राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने केंद्र सरकार की पहल पर मोडासा मामले की जांच हाथ में
ली। यूपीए सरकार के दिनों में उसके चलते इस मामले में नए खुलासे की उम्मीद बनी।
जुलाई 2010 में जब
एनआइए ने मोदासा मामले को अपने हाथ में लिया, तब वह बम धमाके में प्रयुक्त मोटरसाइकिल का चासिस नंबर नई दिल्ली की
फोरेंसिक साइंस लैब को भेज कर पा सकी, जबकि गुजरात की फोरेंसिक साइंस लैब ने अपने हाथ खड़े कर दिए थे। कहना
मुश्किल है कि यह फोरेंसिक साइंस लैब वालों का नाकारापन था या उन पर ऊपरी दबाव पड़ा
था।
दरअसल, चासिस नंबर की अहमियत का पता हम मालेगांव बम धमाके (सितंबर 2008) की जांच से लगा सकते हैं, जहां मामला आगे तभी बढ़ सका जब जांच टीम उस दोपहिया का चासिस नंबर
ढंूढ़ सकी जो भिखु चौक में बंद पड़े ‘सिमी’ कार्यालय के सामने खड़ी की गई थी। और उसके बाद ही साध्वी प्रज्ञा, लेफ्टिनेंट
पुरोहित, दयानंद
पांडे आदि के गिरोह का पता लग सका था।
इस ‘संयोग’ के अलावा कि दोनों धमाके एक ही दिन, एक ही अंदाज में हुए थे, राष्ट्रीय जांच एजेंसी के अधिकारियों ने तीन अन्य स्रोतों पर अपना
ध्यान केंद्रित किया था। पहला सूत्र था, दयानंद पांडे से बरामद तीन लैपटॉप की जांच, दूसरा था
प्रज्ञा ठाकुर और पांडे के उत्तर प्रदेश के सहयोगियों से पूछताछ, और तीसरा
था, महाराष्ट्र
के लेफ्टिनेंट पुरोहित के संपर्कों की पड़ताल। इन सूत्रों के आधार पर एनआइए को यह
शक था कि दोनों बम विस्फोट एक ही समूह ने अंजाम दिए होंगे। इस वजह से उसने
मालेगांव के अभियुक्तों से मोदासा मामले के बारे में पूछताछ करने की योजना बनाई और
उसके लिए मालेगांव अभियुक्तों के मुकदमे की सुनवाई कर रही विशेष अदालत से अनुमति
भी ली थी।
इस बात के मद्देनजर कि हिंदुत्व-आतंकी नेटवर्क में आपसी संबंध थे और
इस खूनी खेल में कई खिलाड़ी साझा थे, मोदासा धमाके की जांच में लगी टीम संघ के दो कार्यकर्ताओं से भी
पूछताछ करना चाह रही थी, जो मक्का मस्जिद धमाके के मामले में न्यायिक हिरासत में थे।
यह समझना मुश्किल है कि वही राष्ट्रीय जांच एजेंसी, जिसने
मामले के पर्दाफाश का दावा किया था, अब यह कह रही है कि ‘सबूतों के अभाव में’ और ‘इस धमाके को अंजाम देने वाले असली अपराधियों को पकड़ने में अपनी असफलता’ के चलते
वह इस फाइल को बंद कर रही है। शायद हम आधिकारिक तौर पर कभी नहीं जान पाएं कि
धमाकों को किसने अंजाम दिया था, मगर यह समझने के लिए पर्याप्त आधार मौजूद है कि अब उसी एनआइए ने अपना
सुर बदल लिया है।
मोदासा धमाके की जांच इस तरह बंद किए जाने के निर्णय को चुनौती दी
जानी चाहिए और उसका पर्दाफाश किया जाना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे सभी
पार्टियां जो अपने को धर्मनिरपेक्ष कहती हैं, संसद में इस मामले में अपनी आवाज बुलंद करेंगी और इस बात को रेखांकित
करेंगी कि किस तरह बदले सियासी माहौल में विभिन्न आतंकी घटनाओं में मुब्तिला रहे
हिंदुत्व-आतंकवादियों को क्लीन चिट देने के इंतजाम हो रहे हैं। उन्हें इस बात पर
जोर देना चाहिए कि आतंकवाद चाहे जिस नाम से हो, इस्लामी हो या हिंदुत्ववादी, देश का कानून सभी मामलों में समान रूप से लागू हो। धर्मनिरपेक्ष
जनतंत्र की यही पहचान है।
जनसत्ता से साभार
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