राईट टू एजुकेशन के पांच साल
जावेद अनीस
इस
अप्रेल में शिक्षा
अधिकार कानून लागू हुए पांच साल पूरे हो चुके हैं, एक
अप्रैल 2010 को “शिक्षा का अधिकार कानून 2009” पूरे देश में लागू किया गया
था इसी के साथ ही भारत
उन देशों
की जमात में शामिल हो गया था जो अपने देश के
बच्चों को निःशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराने के
लिए कानूनन जबावदेह हैं। भारत ने शिक्षा के अधिकार के लेकर एक
लम्बा सफ़र तय किया है इसीलिए इससे बुनियादी शिक्षा में बदलाव को
लेकर व्यापक उम्मीदें
भी जुड़ी थीं, लेकिन इस
अधिनियम के लागू होने के पांच वर्षों
के बाद हमें कोई बड़ी परिवर्तन देखने को नहीं मिलता है, यह लक्ष्य
रखा गया था कि 31 मार्च 2015 तक देश के 6 से 14 साल तक के सभी बच्चों को बुनियादी शिक्षा की
पहुँच करा दी जायेगी और इस दिशा में आ रही सभी रुकावटों को दूर कर लिया जाएगा । लेकिन
यह डेडलाइन बीत जाने के बाद अभी तक ऐसा नहीं हो सका है और हम लक्ष्य से बहुत दूर
हैं।
अभी भी देश के 92 फीसद स्कूल शिक्षा
अधिकार कानून के मानकों को पूरा
नहीं कर रहे हैं । केवल 45 फीसदी स्कूल ही प्रति
30 बच्चों
पर एक टीचर होने का अनुपात करते हैं ।
पूरे
देश में अभी भी लगभग 7 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे प्राथमिक
शिक्षा से बेदख़ल हैं, “डाइस रिर्पोट 2013-14” के अनुसार शिक्षा के अधिकार कानून के मापदंड़ों को पूरा करने के लिए अभी
भी 12 से 14 लाख शिक्षकों की जरुरत है। आरटीई फोरम की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में 51.51, छत्तीसगढ़ में 29.98,
असम में 11.43, हिमाचल में 9.01, उत्तर प्रदेश में 27.99, पश्चिम बंगाल में 40.50
फीसदी शिक्षक प्रशिक्षित नहीं हैं। इसका सीधा असर शिक्षा की
गुणवत्ता पर पड़ रहा है । असर, प्रथम, डाइस
आदि सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की रिपोर्ट शिक्षा में घटती गुणवत्ता की तरफ हमारा
ध्यान खीचते हैं,की किस तरह से छठीं कक्षा
में पढ़ने वाले बच्चों को कक्षा एक और दो के स्तर की भाषायी कौशल एवं गणित की समझ
नहीं है। ऐसे में सवाल उठता है कि कहीं शिक्षा का अधिकार कानून मात्र बच्चों को
स्कूल में प्रवेश कराने और स्कूलों में बुनियादी सुविधायें उपलब्ध कराने का कानून तो
साबित हो रहा है ? क्यूंकि पढ़ाई का स्तर सुधरने के बजाये लगातार बिगड़ रही है, यह
कहना गलत नहीं होगा कि इस दौरान सरकारों ने सिर्फ नामांकन, अधोसंरचना और पच्चीस
प्रतिशत रिजर्वेशन पर जोर दिया है, पढाई की गुणवत्ता को नजरअंदाज किया गया है।
मध्यप्रदेश
के सन्दर्भ में बात करें तो “डाइस
रिर्पोट 2013-14” के अनुसार प्रदेश
के शासकीय प्राथमिक शालाओं में शिक्षकों का औसत 2.5 है जो कि देश में सबसे खराब है
। म.प्र. के प्राथमिक विद्यालयों
में शिक्षकों के लगभग एक लाख पद रिक्त हैं। 5295 विद्यालय ऐसे हैं जहाँ शिक्षक ही नहीं हैं, जबकि 17 हजार
972 शालायें केवल एक शिक्षक के भरोसे चल रही
हैं । गुणवत्ता की बात
करें तो असर रिपोर्ट के अनुसार 2009 में मध्यप्रदेश के शासकीय शालाओं में कक्षा 3 के 74.1
प्रतिशत बच्चे पहली कक्षा के पाठ को पढ़ सकते थे, जबकि 2014 में यह दर घट कर 16.2
प्रतिशत हो गई। इसी तरह से 2009 में मध्यप्रदेश के शासकीय शालाओं में
कक्षा 5 के 76
प्रतिशत बच्चे कक्षा 2 के स्तर का पाठ पढ़ लेते थे लेकिन असर 2014 की
रिर्पोट में घट कर 27.8 प्रतिशत हो गई है। अगर बच्चों में घटाव
तथा भाग देने की स्थिति को देखे तो 2009 में शासकीय शालाओं में कक्षा 3 के 66.7 प्रतिशत
बच्चे घटाव तथा भाग देने के सवाल हल कर लेते थे जबकि 2014 में यह
दर घट कर 5.7 प्रतिशत हो गई। इसी तरह से 2009 में कक्षा 5 के शासकीय शालाओं में 64.9 प्रतिशत
बच्चे घटाव तथा भाग देने के सवाल हल कर लेते थे जबकि 2013 के
रिर्पोट के अनुसार यह संख्या घट कर 10 प्रतिशत हो गई है। इसी तरह से एक अन्य
बड़े राज्य उत्तरप्रदेश की बात करें तो राज्य सरकार द्वारा इस साल फरवरी में विधानसभा में दी गई जानकारी के अनुसार बेसिक
शिक्षा में 72825 शिक्षकों के पद
रिक्त हैं।
एक
तरफ उपरोक्त स्थितियां हैं तो
दूसरी तरफ जिस तरह से `शिक्षा अधिकार कानून’ को लागू किया जा रहा है उनसे भी कुछ समस्याएं निकल कर आ रही है, यह मात्र प्रशासनिक लापरवाही , सरकारों की
उदासीनता का मसला नहीं
है । कानून में भी कुछ नीतिगत समस्याएँ हैं अगर इन समस्याओं को दूर किया जाए तो हालत में कुछ सुधार
की उम्मीद की जा सकती है। पहला मुद्दा है शिक्षा अधिकार कानून में शिक्षकों
की संख्या और योग्यता के बारे में,
इसके लिए कानून में विशेष
प्रावधान तय किए गए हैं किन्तु इन प्रावधानों का पालन नही हो पा रहा है। यहां कई
स्तर के शिक्षक मौजूद है जिन्हें सहायक शिक्षक, अध्यापक संवर्ग और
संविदा शिक्षक के नाम से जाना जाता हैं। इस सबंध में विशेष वित्तीय प्रावधान लागू
करते हुए पूर्णकालिक शिक्षकों की नियुक्ति किए जाने की जरूरत है। दूसरा मुद्दा शिक्षा के अधिकार
कानून की सीमायें से सम्बंधित है ,जैसे इस कानून में छः साल तक के आयु वर्ग के बच्चों की
कोई बात नहीं कही गई है, यानी बच्चों के प्री-एजुकेशन के दौर को पूरी तरह नजरअंदाज
किया गया है, इसी तरह से
अनिवार्य शिक्षा के तहत सिर्फ प्राइवेट स्कूलों में 25 फीसदी सीटों पर कमजोर आय वर्ग के बच्चों के आरक्षण की व्यवस्था है,
इससे सरकारी शालाओं में पढ़ने वालों का भी पूरा जोर प्राइवेट स्कूलों की ओर हो जाता
है। यह एक तरह से गैर बराबरी और शिक्षा के बाजारीकरण को
बढ़ावा देता है। जिनके पास थोड़ा-बहुत पैसा आ
जाता है वे भी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने को मजबूर हैं लेकिन जिन
परिवारों की आर्थिक स्थिति कमजोर हैं उन्हें भी इस ओर प्रेरित किया जा रहे है । देश के विभिन्न
राज्यों भी सरकारी स्कूलों को बंद करके सरकारें ही शिक्षा के इस निजीकरण की
प्रक्रिया को मजबूत बना रही है, नेशनल कोलिएशन फॉर एजुकेशन की रिपोर्ट के
अनुसार राजस्थान में 17120, महाराष्ट्र 14 हजार, गुजरात 13 हजार, कर्नाटका 12 हजार और आंध्रप्रदेश में 5 हजार स्कूलों को बंद किया जा चूका है कुछ अन्य
राज्यों में भी सरकारी स्कूलें बंद की गयी
है ।
शिक्षा एक
बुनियादी हक है और देश के सभी बच्चों को इसे मिलना चाहिए, सीमित मात्रा में ही सही यह कानून
सरकार से शिक्षा के हक मांगने के लिए जनता के हाथ में एक हथियार मुहैया कराता है। इस
अधिनियम के अधीन बच्चों के शिक्षा के अधिकार को सुनिष्चत करने के लिए राष्ट्रीय व राज्य कमीशन के अतरिक्त
अधिकारितायुक्त स्थानीय प्राधिकरण की भी व्यवस्था की गयी है। इसमें स्थानीय निकायों और शाला
प्रबन्धन समिति की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है, स्थानीय निकायों और समुदाय को अपनी
भूमिका निभाने लायक बनाया जाए और उन्हें इसके लिए तैयार करने में सरकार के साथ-
साथ सामाजिक संस्थाओं व संगठनों
की भी बहुत महती भूमिका बनती है ।
लेकिन अंत में
इन सब से ज्यादा महत्वपूर्ण यही रह जाता
है कि सरकारें शिक्षा के निजीकरण से बाज आयें ।
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