98 प्रतिशत अंक, बधाई हो.. पर किसे ?
‘‘फ़ैज़’’
इस वर्ष एक
छात्रा ने 12वीं की परीक्षा
में 99.20 प्रतिशत अंक
लेकर देश में टॉप किया। छात्रा को
अग्रेंजी में 98, अर्थषास्त्र में 98, गणित में 100, व्यवसायिक अध्ययन
में 100 और अकाउटेंसी
में 100 अंक मिले। ये
छात्रा इन अद्भूत परिणामों के लिए बधाई की पात्र है। बधाई की पात्र ये अकेली ही
नहीं इसके परिवार, स्कूल और
आस-पड़ौस का माहौल भी है जिसने इसके लिए ये मार्ग सुलभ किया। इस छात्रा की तरह ही
कुल 82 प्रतिषत शिक्षार्थियों
ने इस वर्ष कक्षा 12वी उत्तीर्ण की
है। मध्यप्रदेश बोर्ड के इस वर्ष के परीक्षा परिणामों पर नज़र डालें तो हम पाते
हैं कि कक्षा 12वीं में मानवीकी
संकाय में 56, विज्ञान संकाय
में 70.69, वाणिज्य में 68.94, कृषि में 59.77, कला में 69.44 और गृहविज्ञान
में 59.12 प्रतिशत छात्र
उत्तीर्ण हुए हैं।
कुल मिलाकर इन दोनों
परीक्षा परिणामें से हमें बड़ी आषाजनक
स्थिति दिखाई देती है। हमारे छात्र लगातार बेहतर प्रर्दशन कर रहे हैं। साथ उक्त
कक्षा में जो अपेक्षित सिलेबस है उसे लानत दे रहे हैं कि तुम कितने ही ज़्यादा और
उलझे हुए हो हमसे पार नहीं पा सकते। मगर षिक्षा को थोड़ा बहुत समझने वाले व्यक्ति
की दृष्टि से देखता हूं तो मुझे इन परिणामों में कुछ पेंच नज़र आते हैं जैसे –
· कक्षा 12 में किसी भी
संकाय में ये दावा किया जा सकता है कि किसी छात्र को कक्षा में अपेक्षित ज्ञान, जानकारी, समझ का लगभग पुरा
ज्ञान है ? यदि नहीं तो 98 प्रतिषत परीक्षा परिणाम के क्या मायने हैं ?
· पिछले 10 -15 सालों में ऐसा
क्या घटित हुआ कि कुल पास होने वाले बच्चे जो कि 20 से 30 प्रतिशत होते थे अब 75 से 80 प्रतिशत पास हो रहे हैं और वो भी 50 से ज़्यादा प्रतिशत
अंक लेकर।
· ढ़ाई या तीन
घंटों में 30-35 प्रष्नों से साल
भर के ज्ञान या सीखे गए का निर्धारण कितना वाजिब है ?
· स्कूलों, समाज व व्यवस्था
में वे कौनसी प्रक्रियाएं घटित हो रही हैं जो बच्चों से इस प्रकार का परिणाम पैदा
करवा रही हैं ?
इन पेंचों या
सवालों के कुछ सहज उत्तर हो सकते हैं, पहला यह कि आजकल शिक्षार्थी लगभग 12 से 14 घंटे पढ़ने का
श्रम करते हैं। दूसरा इस पीढ़ी में याद रखने और रटने की अद्भूत क्षमता है। तीसरा
यह कि संसाधनों की उपलब्धता बढ़ी है और चैथा परीक्षाएं सरल हुई हैं और अंतिम यह कि
इन सबका मिलाजुला रूप ही परीक्षाओं के परिणाम हैं। मगर फिर भी बात यही नहीं है या कहें कि उक्त
कारण एक तरह से इन परिणामों का सतही जस्टीफिकेशन है।
इसके अलावा भी
कुछ और है जिनका ये निर्मित परिस्थितियां सटीकता से उत्तर नहीं दे पाती या इन
परिणामों के भीतर या आसपास का कुछ, दूर कहीं व्यवस्था में निहीत है ! षिक्षार्थियों के इस
उपलब्धी स्तर से थोड़ा आगे कुछ और मसलों को देखते हैं जो इस व्यवस्था को प्रभावित
और निर्धारित भी करते हैं। जैसे - बच्चों के उच्चतर अंक अर्जित करने से माता-पिता
या परिवार को मिलने वाली खुशी , समाज में इससे बढ़ने वाला स्टेटस, विद्यालयों, कोचिंग संस्थानों
का प्रमोशन आदि। क्या इन सब का भी इन परीक्षा परिणामों में कुछ हाथ है, जवाब होगा संभवतः
हां। तो क्या परिणामों से प्रसन्नता भर ही है या षिक्षा के बाज़ार के बारे में एक
बार सोचना चाहिए।
शैक्षिक दृष्टि
से देखा जाए तो किसी भी स्थिति में ये दावा नहीं किया जा सकता कि कक्षा 12 में किसी भी शिक्षार्थी
को अपने सिलेबस पर पूर्णतः अधिकार प्राप्त हो जाए। क्या ये संभव है कि अंग्रेज़ी
या हिन्दी जो कि भाषा हैं में किसी शिक्षार्थी को शत् प्रतिशत का अधिकार हो जाए।
जबकि इसमें वर्तनी, व्याकरण, अभिव्यक्ति आदि
शामिल हैं। विज्ञान विषय में अवधारणाएं, चित्र और सटीकता का शत् प्रतिशत संभव है क्या ?
यदि इस बात से
सहमत होते हैं तो फिर बहुतायत में 80 से 98 प्रतिशत अंक अर्जित कर पाने के पीछे के कारण क्या हैं ? क्या टॉपर बच्चों के पास ट्रिक्स हैं जो उन्हें मात्र ढ़ाई घंटे
में इस स्थिति में पहुंचाने के लिए काफी हैं ? यदि टॉपर बच्चों को छोड़ दें
तो उन 70-75 प्रतिशत बच्चों के पास ऐसा क्या है जो पिछले 15-20 वर्षों की तुलना
में इन्होंने या इस पीढ़ी ने अर्जित किया है। इन 15-20 वर्षों में एक पीढ़ी में आए शैक्षिक उपलब्धि
के बदलाव को तलाषना काफी जटिल उपक्रम होगा। साथ ही शैक्षिक के अलावा अन्य
परिस्थितियों को खंगालने का भी प्रयास करना होगा।
आईए कुछ
व्यवस्थाओं की तरफ नज़र डालते हैं - एक शहर में कुछ विद्यालय (सरकारी और निजी
दोनो) व कोचिंग जैसे संस्थान हैं और इनमें से अधिकतम का संचालन शिक्षार्थियों
द्वारा दी गई फीस (सरकारी में काफी कम) से होता है। इस प्रतिस्पर्धा के दौर में
जिस संस्थान से ज़्यादा बच्चे मेरीट में होंगे, उसी विद्यालय में अगले सत्र में अधिकाधिक नामांकन होंगे। एक
व्यवस्था के रूप में, इन विद्यालयों
में परीक्षा के समय सभी विद्यालयों में षिक्षकों को स्पष्ट निर्देष दिए जाते हैं
कि हमारे विद्यालय से इतने प्रतिषत बच्चे तो कम से कम प्रथम श्रेणी में आना चाहिए।
अब ये शिक्षकों की दिक्कत है कि उन्हें इतना तो करना ही होगा क्योंकि उनका भविष्य
विद्यालय के हाथ में और विद्यालय का शिक्षक के हाथ में है।
अब इसे थोड़ा
शैक्षिक बनाते हैं। किसी भी उच्च कक्षा में एक शिक्षक पर कम से कम 40 बच्चे तो होते
ही हैं। इन्हें अगर प्रचलित श्रेणी में बांटा जाए तो 10 बच्चे बेक
बेंचर्स, 15-20 औसत और 10 से 15 लगभग प्रथम
श्रेणी में आने लायक होते हैं। इनमें से भी सिर्फ 5 बच्चे वे हो सकते हैं जो 80-90 प्रतिषत की
अपेक्षाओं के आस-पास जा सकते हैं। इस आम कक्षा में भी षिक्षक पर दबाव होता है कि
कम से कम 30 बच्चे प्रथम
श्रेणी से उत्तीर्ण हों।
किसी एक शैक्षिक
सत्र में पाठ्यक्रम के अनुसार अध्यापन लगभग 220 दिनों में किया जाना होता है। अगर विद्यालय की कुछ
गतिविधियों जैसे सांस्कृतिक, खेलकूद तथा परीक्षा की तैयारी के दिनों को कम किया जाए तो
अमुमन किसी शिक्षण सत्र में 170-190 दिन ही होते हैं। अब एक बार पुनः सोंचते हैं कि क्या 170-190 दिन की पढ़ाई
में 98 प्रतिशत
पाठ्यक्रम समझा, याद व मूल्यांकित
कर परिणाम दिया जा सकता है क्या ?
इस परिस्थिति में
शिक्षकों को यह तय करना होता है कि बच्चों से अपेक्षित परिणाम कैसे अर्जित कराए
जाएं। ऐसे में सभी विद्यालयों में ‘‘रिविज़न’’ नाम का उपक्रम किया जाता है। इस उपक्रम में अध्यापन इस
प्रकार होता है कि परीक्षा में पूछा जाने वाला लगभग 80 से 90 प्रतिशत हिस्सा
यहीं कवर किया जाता है। इसके अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण बाज़ारू लक्षण जो इस पुरी
स्थिति में बड़ी भूमिका निभाता है वह है ‘‘प्रष्न बैंक, माडॅल क्वेष्चन पेपर, आदि। एक खास तरह का पेटर्न हम इस प्रकार की पुस्तकों
(पुस्तकों के लिए अपमानजनक शब्द !) में देख सकते हैं। इनके पिछले 8-10 वर्षों के प्रकाषन
हमें बताते हैं कि इनके द्वारा अनुमानित लगभग 80 प्रतिशत प्रश्न परीक्षाओं में पूछे जाते है। तो क्या इस
तरीके की भी परीक्षा परिणामों में भूमिका है ?
चलिए, इससे थोड़ा आगे
बढ़ते हैं और कुछ राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय अध्ययनों को देखें तो वे हमें बताते
हैं कि हमारे लगभग 80 प्रतिषत स्नातक
अपनी डिग्री के अनुसार उत्तीर्ण तो हैं पर वे नियोक्ताओं की दृष्टि से नाकारा हैं
या कुछ अध्ययन तो ये भी कहते हैं कि वे कुशल नहीं हैं। तो इस विस्तार और 12वीं के परिणामों
को मिलाकर देखने पर एक अलग तस्वीर दिखाई देती है वो यह कि ये सिर्फ अंक या प्रतिशत
हैं जिनका शिक्षा और उससे जुड़े रोज़गार से कुछ लेना-देना नहीं है। तो 98 प्रतिशत अंकों
को लेकर पास होना, 80 प्रतिषत बच्चों
का अपनी बोर्ड परीक्षाओं को उत्तीर्ण करना हमें क्या बताता है ?
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