दुनिया की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा चीन
एल. एस. हरदेनिया
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22 June 2020, Peoples Samachar |
जब चीन में क्रांति हो रही थी उस दौरान उसे
विश्व की जनता का जबरदस्त समर्थन प्राप्त था। उस समय चीन के बारे में कहा जाता था
कि वहां के निवासी अफीम का नशा करके सुप्त अवस्था में पड़े रहते हैं। उस समय चीन की
आर्थिक स्थिति इतनी जर्जर थी कि कहा जाता था कि वहां का नागरिक बोरे में भरकर नोट
लेकर बाजार जाता था और उसके एवज में एक पुड़िया माल लेकर घर आता था। चीन को इस
स्थिति से उबारने में वहां की कम्युनिस्ट पार्टी और उसके महान नेता माओत्से तुंग
का प्रमुख योगदान था।
अंततः 30 साल के सतत संघर्ष के बाद चीन बाहरी और भीतरी
प्रतिक्रियावादी तत्वों के चंगुल से मुक्त हुआ। चीनी क्रांति का महत्त्व अकेले चीन
के लिए नहीं था वरन् दुनिया की समस्त शोषित-पीड़ित जनता के लिए था । चीनी क्रांति
क्या थी और वह कैसे दुनिया और विशेषकर एशिया की शक्ल बदल देगी इस बात का संदेश एक
अमेरिकी पत्रकार और लेखक ने पहुंचाया। उन्होंने एक किताब लिखी जिसका शीर्षक था ‘‘रेड स्टार ओवर चाइना’’।
सन् 1948 में चीन आजाद हुआ। उसकी आजादी का जश्न हमने भी
मनाया। चीन के आजाद होने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एक शिष्ट मंडल चीन भेजा
था। इस शिष्ट मंडल का नेतृत्व तपस्वी सुंदरलाल ने किया था। इस शिष्ट मंडल में
भोपाल के लोकप्रिय नेता शाकिर अली खान और ब्लिटज के संपादक आर. के. करांजिया भी
शामिल थे। जब चीन में क्रांति हो रही थी उस दौरान भी हमने डॉक्टरों की एक टीम चीन
भेजी थी। इस टीम के नेता डॉ कोटनिस थे। डॉ कोटनिस पर एक फिल्म भी बनी थी जिसका
शीर्षक था ‘‘डॉक्टर कोटनिस की अमर कहानी’’।
इसी बीच भारत और चीन के बीच सीमा से जुड़े विवाद
उभरने लगे। इन विवादों को सुलझाने के लिए वार्ताओं के अनेक दौर हुए परंतु मामले
सुलझ नहीं सके। सीमा के सवाल पर चीन ने अत्यंत संकुचित रवैया अपनाया। इस दौरान चीन
पूरी तरह एक अति राष्ट्रवादी देश बन गया। हम लोग जो चीन के आदर्शों से प्रभावित थे
निराश होने लगे। हमें अपेक्षा थी कि चीन वैसी ही भूमिका अदा करेगा जैसी सोवियत संघ
ने क्रांति के बाद अदा की थी। सोवियत संघ ने यूरोप के अलावा एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका
महाद्वीपों के देशों की आजादी के आंदोलनों में मदद की थी। इसके अलावा सोवियत संघ
ने उन देशों को आत्मनिर्भर बनने में भी मदद की थी जो साम्राज्यवाद के चंगुल से
निकलकर आजाद हुए थे। इसके ठीक विपरीत चीन ने नव स्वतंत्र देशों से शत्रुतापूर्ण
व्यवहार किया। जैसे चीन ने भारत के अलावा वियतनाम से भी झगड़ा मोल ले लिया। नेहरूजी
को चीन की दोस्ती पर काफी भरोसा था। नेहरूजी को विश्वास था कि चीन कभी भारत से
युद्ध नहीं करेगा। मुझे कभी-कभी लगता है कि चीन से युद्ध जैसी स्थिति पैदा होने और
सन् 1961 में जबलपुर (मध्यप्रदेश)
में हुए भीषण साम्प्रदायिक दंगों से नेहरूजी को भारी मानसिक क्लेश हुआ। यदि ये
दोनों घटनाएं नहीं हुई होतीं तो शायद देश को कई और वर्षों तक नेहरूजी का नेतृत्व
प्राप्त रहता।
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