बोल के लब आज़ाद हैं तेरे
फ़ैज़ की एक नज़्म उनके
जन्म शताब्दी
वर्ष
पर
फैज़ का यह मशहूर इंकलाबी कलाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और दुनिया के हर संघर्षशील आदमी के पक्ष में है ।
बोल के लब आज़ाद हैं तेरे
बोल के लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब एक है तेरी
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल: के जाँ अब तक तेरी है
देख के: आहंगर दुकाँ में
तुंद हैं शोले , सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे कुफ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़न्जीर का दामन
बोल, ये: थोड़ा वक़्त बहुत है
जिस्म- ओ –ज़बाँ की मौत से पहले
बोल, के:सच ज़िन्दा है अब तक
बोल , जो कुछ कहना है कहले
सुतवाँ =सुडौल ,आहंगर =लोहार , तुंद=तेज़
आहन =लोहा , कुफ़लों के दहाने =तालों के मुख ,
( साभार - फैज़ अहमद फैज़ की प्रतिनिधि कवितायें - राजकमल पेपरबैक्स )
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