फैज़ के बारे में कुछ मुख्स्तर बातें



 
   @डॉ. रिजवानुल हक 




फै़ज़ 1936 में प्रगतिशील लेखकों की पहली कान्फ़ेन्स से कुछ पहले सज्जाद ज़हीर के सम्पर्क में आए और उम्र भर के लिए प्रगतिशील  लेखक संघ से जुड़ गए। सरकार ने उन पर बार बार पाबंदियाँ लगाई, जेल भेजा और नज़र बन्द किया। 1951 में तो सत्ता पलटने की साज़िष रचने का इल्ज़ाम लगा कर उन्हें जेल की सलाख़ों के पीछे डाल दिया गया। मुक़दमा चलाया गया, हुकूमत कोइ सुबूत न पेश  कर सकी और चार साल से ज्यादा अर्से बाद उन्हें जेल से रिहा किया गया। इस वाक्ये को फै़ज़ ने इस तरह कहा था ‘‘वह बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था, वह बात उनको बहुत नागवार गुज़री है।’’ फै़ज़ तमाम ज़ुल्म ओ सितम सहते रहे लेकिन उन्होंने अपनी मिट्टी और अपने लोगों से कभी मुँह न मोड़ा।

फै़ज़ बुनियादी तौर पर एक इन्क्लाबी षाइर हैं लेकिन उन्होंने इन्क्लाबी विचारों को बयान करने के लिए अक्सर उर्दू शाइरी की क्लासिकी और रोमानवी शब्दों को नए इन्क्लाबी मानी में इस्तेमाल किया हैं। उर्दू शाइरी  में दो प्यार करने वालों की दास्तान को शु रू से ही गुल ओ बुलबुल के रूप में बयान किया जाता रहा है। जब दोनों गुलशन में होते हैं तो यह विसाल (मिलन) होता है। फिर एक सय्याद आता है जो बुलबुल को पकड़ कर क़फ़स में बंद कर देता है ओर इस तरह हिज्र (विरह) की लम्बी रात षुरू होती है। क़फ़स में आशिक   के लिए सबा (हवा) गुलशन से पैग़ाम लाती है। फैज़ के यहाँ यह सारे शब्द एक नई इन्क़्लाबी कहानी बयान करते हुए नज़र आते हैं। फ़ैज़ के यहाँ गुल आज़ादी और इन्क़्लाब का मतवाला है, क़फ़स जेल, सबा मीडिया, गुल ओ बुलबुल के गीत इन्क़्लाबी गतिविधियाँ वग़ैरा हो जाती हैं। फै़ज़ ने कई मज़हबी शब्दों को भी इन्क्लाबी मानी में इस्तेमाल किया है मिसाल के तौर पर हम देखेंगेमें क़ुरान में क़यामत के दिन के बयान के लिए जिन शब्दों और हालात का बयान किया गया है फै़ज़ ने उन शब्दों और हालात को इन्क्लाब के बयान के लिए इस्तेमाल किया है।

ये ज़रूरी नहीं है कि फै़ज़ की पूरी शाइरी को इन्क्लाबी शाइरी  के तौर पर ही पढ़ा जाए उन्होंने इस अन्दाज़ से शब्द सजाए हैं कि एक ही नज़्म या षेर को इष्क़िया और इन्क़्लाबी दोनों तरह की षाइरी के तौर पर पढ़ा जा सकता है। इसीलिए फै़ज़ की शाइरी  को पसन्द करने वालों का हलक़ा बहुत बडा  है इसे वह लोग भी पसन्द करते हैं जिनका प्रगतिषील परम्परा से कोई ख़ास रिष्ता नहीं है लेकिन वह अच्छी शाइरी के शौक़ीन  हैं।




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हम देखेंगे

लाजिम है कि हम भी देखेंगे

वो दिन कि जिसका वादा है

जो लौह-ए-अजल में लिखा है

जब जुल्म ए सितम के कोह-ए-गरां

रुई की तरह उड़ जाएँगे

दम महकूमों के पाँव तले

जब धरती धड़ धड़ धड़केगी

और अहल-ए-हिकम के सर ऊपर

जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी

हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम

मसनद पे बिठाए जाएंगे

सब ताज उछाले जाएंगे

सब तख्त गिराए जाएंगे

और राज करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

फैज़                  
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अहले-सफा pure people; अनलहक़ I am Truth, I am God. Sufi Mansoor was hanged for saying it; अज़ल eternity, beginning (opp abad); खल्क़ the people, mankind, creation; लौह a tablet, a board, a plank; महकूम a subject, a subordinate; मंज़र spectacle, a scene, a view; मर्दूद rejected, excluded, abandoned, outcast; नाज़िर spectator, reader





हम देखेंगे.... फैज साहब की मशहूर नज्‍म उनकी आवाज में


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