लीबिया पर पश्चिमी हमला
असली मंसूबे कुछ और ही हैं
-डॉ. असगर अली इंजीनियर
अमरीका, फ्रांस व इंग्लैंड ने लीबिया में “नो फ्लाई जोन“ (हवाई उड़ान प्रतिबंधित क्षेत्र) घोषित करने संबंधी संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव को लागू करने में जो तत्परता दिखाई, वह इन देशों के साम्राज्यवादी लक्ष्यों के अनुरूप है। ये तीनों देश पुरानी साम्राज्यवादी ताकतें हैं जिन्होंने 19वीं व 20वीं सदी में लगभग आधी दुनिया को अपना गुलाम बनाया था। इंग्लैंड व फ्रांस ने यह काम प्रत्यक्ष ढंग से किया था और अमेरिका ने अप्रत्यक्ष ढंग से।
हर बार, इन देशों ने “नागरिकों की जान बचाने“ को अन्यदेशों में सैन्य हस्तक्षेप करने का बहाना बनाया परंतु सारी दुनिया यह जानती है कि इन देशों ने लाखों नागरिकों को मौत के घाट उतारा है। इन देशों ने भारत सहित अल्जीरिया, वियतनाम व कई अन्य देशों में खून की होली खेली है। इन देशों ने एशिया , अफ्रीका व लातिन अमेरिका में तानाशाहों को समर्थन व सहयोग दिया। इन क्रूर तानाशाहों ने हजारों-लाखों नागरिकों की जान ली। इजराईल ने लेबनान को बरबाद कर दिया और हजारों निर्दोष नागरिकों को मौत की नींद सुला दिया परंतु अमरीका ने इजराईल को रोकना तो दूर, उसकी बेज़ा आक्रामक कार्यवाहियों का विरोध तक नहीं किया। वह सिर्फ इसलिए क्योंकि यह अमरीका के हित में था। महिलाओं व बच्चों सहित बड़ी संख्या में नागरिकों को “आतंकवादी“ करार देकर मार डाला गया और इस कुत्सित खेल में अमरीका ने इजराईल का पूरा साथ दिया।
जिस समय इज़राईल, गाजा पट्टी में घरों व अस्पतालों पर बमबारी कर बीमारों, महिलाओं व बच्चों को मार रहा था तब अमरीका, ब्रिटेन व फ्रांस ने चुप्पी साध रखी थी। आखिर, इन असहाय, निर्दोष लोगों की जान लेना, इजराईल की “सुरक्षा“ के लिए जरूरी था। उस समय कुछ लोगों की सोच थी कि अमरीका की यह चुप्पी, तत्कालीन सतारूढ़ रिपब्लिकन पार्टी व राष्ट्रपति बुश की विचारधारा व नीतियों के अनुरूप है। परंतु राष्ट्रपति चाहे बुश हों, क्लिंटन या फिर ओबामा, अमरीका का रूख वही था और है।
बुश सरकार ने ईराक पर यह झूठा आरोप लगाकर आक्रमण किया था कि उसके पास “महासंहारक अस्त्र“ हैं। उस समय भी यह सोचा गया कि शायद यह बुश की व्यक्तिगत मानसिकता का नतीजा है। लिहाजा, जब ओबामा ने रिपब्लिकन उम्मीदवार के विरूद्ध चुनाव लड़ा तब हम सभी ने ओबामा को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जो अमरीका की नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन करेगा। हम सबने ओबामा की विजय के लिए दुआ की। जब वे राष्ट्रपति चुन लिए गए, तब हमारी ख़ुशी का पारावार न रहा। ओबामा को अफगानिस्तान व ईराक पर आक्रमण का “विरोध“ करने के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से भी नवाजा गया। क्या उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया जाना था? सच तो यह है कि किसी भी शासक को नोबेल पुरस्कार नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि शासक अक्सर आदर्षों की बजाय अपने या अपनी पार्टी या अपने देश के हितों से प्रेरित होते हैं। यहां यह कहना समीचीन होगा कि नोबेल पुरस्कार हमेशा से यथास्थितिवादी व स्थापित तंत्र का पोषक रहा है।
ब्रिटेन, फ्रांस व अमरीका का तर्क है कि लीबिया पर उनका संयुक्त हमला इसलिए उचित है क्योंकि अरब लीग ने भी संयुक्त राष्ट्र संघ के उस प्रस्ताव का अनुमोदन किया था, जिसमें गद्दाफी द्वारा नागरिकों पर की जा रही बमबारी बंद करने की बात कही गई थी। यह तर्क केवल तकनीकी रूप से सही है क्योंकि लीबिया पर पष्चिमी देषों के त्वरित व विनाशकारी सैनिक आक्रमण के बाद, अरब लीग ने अपने रूख में परिवर्तन कर लिया था।
वैसे भी, अरब लीग के समर्थन को बहुत महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। अरब लीग के अधिकांश सदस्य देश , अमरीका के पिट्ठू तानाशाहों व बादशाहों द्वारा शासित हैं। इन देषों के शासकों को हमेशा अपनी जनता के विद्रोह का डर सताता रहता है और किसी भी संभावित विद्रोह को कुचलने के लिए उन्हें अमरीका के समर्थन की दरकार रहती है। अतः अरब देशों की आम जनता की निगाहों में उनके देशों द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव का समर्थन किए जाने की न तो कोई वैधता है व न ही महत्व।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवष्यक है कि इन पंक्तियों के लेखक को गद्दाफी से कोई सहानुभूति या प्रेम नहीं है। इस क्रूर तानाशाह ने पिछले 41 वर्षों से लीबिया को अपने खूनी पंजों में जकड़ रखा है। गद्दाफी के शासन का जितनी जल्दी अंत हो, उतना ही बेहतर होगा। लीबिया की जनता ने उसके खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया है और अब चाहे वह उन पर गोलियाँ बरसाए या बम गिराए, जनता का गुस्सा खत्म होने वाला नहीं है। परंतु समस्या यह है कि पष्चिमी देषों के हस्तक्षेप से गद्दाफी को अपनी सत्ता बचाने का एक बहाना मिल गया है।
अरब के निवासियों के मन में यह संदेह उपजना स्वभाविक है कि कहीं यह हमला लीबिया के कच्चे तेल के भंडार पर कब्जा करने का पष्चिमी षड़यंत्र तो नहीं है? पष्चिमी देशों के हस्तक्षेप ने गद्दाफी को सहानुभूति का पात्र बना दिया है। अब गद्दाफी के समर्थक अधिक जोशो -खरोश से लडे़ंगे। वास्तविकता तो यह है कि पष्चिमी देश , लीबिया के मामले में अपनी टांग फँसाने के लिए काफी उत्सुक और बहुत जल्दी में थे। उनके लिए यह अंदाजा लगाना मुष्किल हो रहा था कि ऊँट किस करवट बैठेगा। लीबिया के ताजे विद्रोह का नेतृत्व प्रजातांत्रिक ताकतों के हाथों में है और पष्चिमी देशों को डर था कि लीबिया में प्रजातंत्र के आगाज से वहाँ के तेल भंडारों तक उनकी पहुँच खत्म हो जाएगी।
क्यूबन नेता फिडेल कास्त्रो ने अपने एक आंखे खोल देने वाले लेख में बताया है कि लीबिया पर अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए साम्राज्यवादी ताकतें इतनी लालयित क्यों हैं। कास्त्रो के अनुसार, साम्राज्यवादी देशों की नजरें, दरअसल, लीबिया के अकूत तेल भंडारों पर गड़ी हैं। वे लिखते हैं, “लीबिया के 95 प्रतिशत क्षेत्रफल में रेगिस्तान है। तक्नालाजी के उपयोग से इस विशाल रेगिस्तान के नीचे दबे उच्च दर्जे के कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के विशाल भंडारों तक मानव की पहँुच बन गई है। लीबिया का वर्तमान तेल उत्पादन 800 करोड़ बैरल प्रतिदिन है। इस तेल की बिक्री से लीबिया को करोड़ों डालर की आमदनी होती है और इस धन ने उस देश की तस्वीर ही बदल दी है। वहाँ के रहवासियों की औसत आयु 75 वर्ष है। लीबिया की प्रति व्यक्ति आय, अफ्रीका के सभी देशों में सबसे ज्यादा है। उसके सूखे रेगिस्तान के नीचे पीने योग्य भूजल का खजाना है। यह पानी इतना है कि क्यूबा के कुल क्षेत्रफल से तिगुने क्षेत्र को ढंक सकता है। इस पानी को पाईप लाईनों का जाल बिछाकर देष के कोने-कोने तक पहँुचा दिया गया है“।
इस तरह, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस पर निर्भर, अमरीका व अन्य पष्चिमी देशों के लिए लीबिया के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा बनाए रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है। वे इन संसाधनों पर अपना वर्चस्व किसी हालत में खत्म नहीं होने देना चाहते। आष्चर्य नहीं कि साम्राज्यवादीदेशों ने नागरिकों की जान बचाने के नाम पर लीबिया पर हमला करने में जरा भी देरी नहीं की। इस हमले में अब तक सैकड़ों नागरिक मारे जा चुके हैं और यह हमला कब तक जारी रहेगा, यह कोई नहीं जानता।
गद्दाफी आसानी से हार नहीं मानेगा। उसने स्पष्ट कर दिया है कि वह लंबी लड़ाई के लिए तैयार है। परंतु ईराक व अफगानिस्तान के कटु अनुभव के बाद, इंग्लैंड, फ्रांस व अमरीका की जनता अपने-अपने देशों के किसी लंबी लड़ाई में फँसने का शायद ही समर्थन करेंगी। इसके अलावा, जनता के सामने यह असलियत आने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा कि इस हमले का मकसद नागरिकों की जान बचाना नहीं वरन् लीबिया के प्राकृतिक संसाधनों पर काबिज होना है। स्पष्टतः, पष्चिमी देशों के लिए लड़ाई को लंबे समय तक खींचना बहुत मुष्किल होगा।
ईराक और अफगानिस्तान की यादें अभी लोगों के मन में ताजा हैं और पष्चिमी देशों की सरकारों को उनके नागरिकों का समर्थन मिलते रहना संदिग्ध है। रूस, चीन, भारत और ब्राजील ने लीबिया के आंतरिक मामलों में सैनिक हस्तक्षेप को अपना समर्थन देने से इंकार कर दिया है। जर्मनी ने भी इस हमले में हिस्सेदारी नहीं की। सारी दुनिया को अब यह समझ में आ गया है कि किसी न किसी आदर्षवादी लक्ष्य की प्राप्ति के नाम पर, अमरीका केवल उन देशों पर हमला करता है जहाँ या तो तेल हो या जहाँ इजराईल के हित प्रभावित हो रहे हों। इन दोनों में से कोई भी एक, अमरीका के लिए सैन्य आक्रमण करने का पर्याप्त कारण रहा है।
अब इन कारणों में एक कारण और जुड़ गया है। और वह है किसी भी देश में चल रहा ऐसा शांतिपूर्ण आंदोलन, जिसका लक्ष्य तानाशाह या बादशाह को अपदस्थ कर, प्रजातंत्र की स्थापना करना हो। इन आंदोलनों ने प्रो. सैम्युल हटिंगटन के “सभ्यताओं के टकराव“ के सिद्धांत की हवा निकाल दी है और इस मान्यता को गलत सिद्ध कर दिया है कि इस्लाम व प्रजातंत्र में कभी सामंजस्य नहीं हो सकता। सभ्यताओं के टकराव के सिद्धांत का प्रतिपादन इसलिए किया गया था ताकि साम्यवाद का स्थान लेने के लिए एक नए शत्रु-इस्लाम-को खड़ा किया जा सके और अरब देशों के तानाशाहों और बादशाहों को समर्थन देने की अमरीकी नीति को औचित्यपूर्ण ठहराया जा सके। ये दोनों अमरीका के हित में हैं और उसकी विदेश नीति के महत्वपूर्ण अंग हैं।
ओसामा के आतंकवाद-जिसे जाहिर कारणों से इस्लामिक आतंक की संज्ञा दी गई-का इस्लाम व मुसलमानों की छवि बिगाड़ने में जमकर इस्तेमाल किया गया। अगर अरब देशों में तानाशाहों काशांतिपूर्ण विरोध जारी रहता है तो इससे यह मान्यता गलत सिद्ध हो जावेगी कि इस्लाम, आतंकी धर्म है व यह कि इस्लाम का प्रजातंत्र से कोई लेना-देना नहीं है। अगर ऐसा हो जाता है तो अमरीका के लिए झूठे बहाने बनाकर तेल उत्पादक क्षेत्रों में सैन्य हस्तक्षेप करना मुष्किल हो जावेगा और इस क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाए रखना असंभव।
लीबिया में अमरीकी हस्तक्षेप के कुछ अन्य कारण भी हैं। अरब तानाशाह अपनी रक्षा के लिए अमरीका की ओर ताकते रहे हैं। उन्हें अपना राज चलाते रहने के लिए ओसामा के नेतृत्व वाले आतंकवाद की आवष्यकता है। अरब देशों में उभरे शांतिपूर्ण आंदोलनों ने न केवल वहां के तानाशाहों की नींद हराम कर दी है वरन् ओसामा-छाप आतंकवाद की रीढ़ तोड़ दी है। यह बात गलत सिद्ध हो गई है कि केवल हिंसा व आतंक के रास्ते ही परिवर्तन लाया जा सकता है।
अरब देशों के करोड़ों नागरिकों को उम्मीद है कि उनके देशों में बरसों से छाया तानाशाही का अंधेरा दूर होगा और प्रजातंत्र का सूरज उगेगा। परंतु पष्चिमी देश , अरब नागरिकों को गलत और ओसामा को सही सिद्ध करना चाहते हैं।
सच तो यह है कि अमरीका को ओसामा की जरूरत है और ओसामा को अमरीका की। दोनों एक-दूसरे के खिलाफ घृणा फैलाकर व हिंसा कर अपना-अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।
(लेखक मुंबई स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं और कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं।)
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