इतना आसान नहीं है कशमीर समस्या का हल,संदर्भ: भूषण पर हमला
-राम पुनियानी
उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ वकील और “टीम अन्ना“ के सदस्य प्रशांत भूषण पर 12 अक्टूबर 2011 को हुए नितांत निंदनीय हमले ने कई प्रश्नों को जन्म दिया है। हमले के तुरंत बाद, शिवसेना जैसे “अति राष्ट्रवादी“ संगठनों ने हमलावरों को बधाई दी। इससे एक बार फिर यह साफ हो गया है कि हमारे समाज में कुछ मुद्दों को लेकर कितनी अधिक असहिष्णुता है। यह बात कश्मीर के मुद्दे के अलावा उन अन्य सभी मुद्दों के बारे में सही है जिन्हें विभाजनकारी राजनीति करने वाली ताकतें समय-समय पर उठाती रहती हैं।
प्रशांत भूषण पर हमला, उनके एक वक्तव्य के बाद हुआ। इस वक्तव्य में उन्होंने कहा था कि संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा दशकों पूर्व कश्मीर में जनमत संग्रह करवाने के प्रस्ताव पर अमल ही कश्मीर समस्या के स्थायी हल का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। भूषण पर कायराना हमले के बाद टीम अन्ना के आपसी मतभेद भी सामने आ गए। टीम के अधिकांश सदस्यों ने न केवल भूषण के वक्तव्य से किनारा कर लिया बल्कि उन्हें टीम से निष्कासित करने की चर्चा भी होने लगी। अन्ना हजारे ने राष्ट्रवाद और इतिहास पर अपनी “गहरी पकड़“ प्रदर्शित करते हुए यह घोषित कर दिया कि कश्मीर, अनादिकाल से भारत का अविभाज्य हिस्सा रहा है। कश्मीर को भारत का अविभाज्य हिस्सा बताने वाले कुछ लोगों ने यह भी फरमाया कि भूषण देषद्रोही हैं क्योंकि उनका मत, भारतीय संविधान के विरूद्ध है।
ऐतिहासिक व संवैधानिक दृष्टि से कश्मीर का मुद्दा उतना सीधा नहीं है जितना कि उसे बताया जाता है। हम सभी यह जानते हैं कि कबीलाईयों के भेष में पाकिस्तानी सैनिकों के आक्रमण के बाद, कश्मीर भारत का हिस्सा बना। वहां की जनता पाकिस्तान में शामिल नहीं होना चाहती थी और उसकी इस इच्छा को शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कांफ्रेस ने स्वर दिया। इस विकट परिस्थिति में कश्मीर के शासक महाराजा हरिसिंह ने भारत के साथ विलय की संधि पर हस्ताक्षर किए। इस संधि को कश्मीर की जनता द्वारा अनुमोदित कराया जाना था और इसके लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा सुझाया गया जनमत संग्रह प्रस्तावित था। अतः सबसे पहले तो यह साफ-साफ समझ लिया जाना चाहिए कि कश्मीर अनादिकाल से भारत का हिस्सा नहीं था। वह सन् 1948 में भारत का हिस्सा बना। कश्मीर के महाराजा के साथ हुई संधि में यह प्रावधान है कि संचार, मुद्रा, विदेशी मामलों और रक्षा के अतिरिक्त अन्य सभी विषयों में कश्मीर को पूर्ण स्वायत्ता प्राप्त रहेगी।
समस्या तब शुरू हुई जब भारत की साम्प्रदायिक ताकतों, विशेषकर हिन्दू महासभा के शयामाप्रसाद मुकर्जी, ने यह मांग उठाना शुरू की कि कश्मीर को जबरदस्ती भारत के अन्य राज्यों के समकक्ष दर्जा दिया जाए। इन ताकतों के दबाव में आकर केन्द्र सरकार ने शनैः-शनैः कश्मीर की स्वायत्ता का अतिक्रमण करना शुरू कर दिया और वहां होने वाले चुनावों में धांधलियां की जाने लगीं। इससे कश्मीर के लोगों में भारत के प्रति अलगाव का भाग उत्पन्न हुआ। शेख अब्दुल्ला भी भारत सरकार के बदलते रूख से निराश हो चले और उन्होंने भारत में विलय के अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने की बात सार्वजनिक रूप से कह दी। नतीजतन, उन्हें जेल में डाल दिया गया जहां वे सत्रह सालों तक रहे।
कश्मीर के युवावर्ग में भारत के प्रति बढ़ते असंतोष व अलगाव का पाकिस्तान के सत्ताधारी वर्ग ने अपने हित साधने के लिए उपयोग करना शुरू कर दिया। कश्मीर घाटी में असंतोष भड़काने के पाकिस्तान के अभियान को अमरीका का पूरा समर्थन प्राप्त था। अमरीका, कच्चे तेल के संसाधनों पर कब्जा करने की अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए पाकिस्तान को प्यादे की तरह इस्तेमाल करता रहा। सन् 1980 के दशक में अल्कायदा घाटी में सक्रिय हो गया और इससे स्थितियां बद से बदतर हो गईं। कश्मीरियत का स्थान साम्प्रदायिकता ने ले लिया। कश्मीरियत दरअसल बौद्ध, वेदांत और सूफी परंपराओं की शिक्षाओं का मिला-जुला स्वरूप है। कश्मीर में बढ़ती हिंसा और अतिवादियों के मजबूत होते जाने का एक असर यह हुआ कि कश्मीरी पंडितों को घाटी से पलायन करना पड़ा। बड़ी संख्या में मुसलमान परिवारों को भी घाटी छोड़नी पड़ी।
केन्द्र की सत्ताधारी पार्टियां व गठबंधन लंबे समय तक कश्मीर के चुनावों को प्रभावित करने व उनमें धांधलियां करवाने में जुटी रहीं। वहां प्रजातंत्र का गला घोंट दिया गया। कश्मीरियों में व्याप्त असंतोष और उससे जनित हिंसा से मुकाबला करने के लिए भारत सरकार वहां सेना की उपस्थिति बढ़ाती गई। इस समय भी कश्मीर में बहुत बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक तैनात हैं। सेना की इतनी भारी मौजूदगी ने नागरिक जीवन को काफी हद तक प्रभावित किया है। कश्मीरी डर और आतंक के साये तले जी रहे हैं। सेना ने वहां कई तरह की ज्यादतियां की हैं। आज कश्मीर के लोग स्थानीय अतिवादियों, अल्कायदा-पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों और भारतीय सेना की ज्यादतियों- तीनों से पीडि़त हैं। उनका यही गुस्सा और कुंठा, पत्थर फेंकने वाली भीड़ों के रूप में सामने आ रही है।
इस विकट परिस्थिति से मुकाबला करने के लिए कई “हल“ सुझाए जा रहे हैं। अलगाववादी, “आजादी“ चाहते हैं। महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी “स्वराज“ चाहती है जबकि फारूख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस की मांग है कि कश्मीर को पुनः स्वायत्ता प्रदान की जाए। कश्मीर में जनमत संग्रह करवाने की मांग भी समय-समय पर उठती रही है परंतु साठ साल बाद जनमत संग्रह से कोई लाभ होगा, ऐसा नहीं लगता। पाकिस्तान अपने कब्जे वाले कश्मीर में अलग खेल खेल रहा है। पाकिस्तान इस इलाके को आजाद कश्मीर कहता है जबकि वहां आजादी नाममात्र की भी नहीं है।
भारत सरकार द्वारा कश्मीर के लिए तीन वार्ताकारों की नियुक्ति को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। इन वार्ताकारों ने अपनी रपट में क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं पर जोर दिया है। राजनैतिक मुद्दों की इस रपट में कोई चर्चा नहीं है। रपट में कहा गया है कि कश्मीर में रोजगार सृजन, शिक्षा के प्रसार व सामाजिक-आर्थिक बेहतरी के लिए अन्य योजनाएं लागू की जाएं। भूषण की कश्मीर में जनमत संग्रह करवाने की मांग भी एक तरह की अतिवादिता है यद्यपि घाटी के कई संगठन जनमत संग्रह के पक्ष में हैं। आज कश्मीर की स्थिति को समझने के लिए हमें कई पहलुओं पर ध्यान देना होगा। इनमें शामिल हैं अमरीका और पाकिस्तान के बीच संबंधों में आया बदलाव, कश्मीर में प्रजातांत्रिक प्रक्रिया का जड़ पकड़ना और वहां अतिवादी तत्वों की स्वीकार्यता बनी रहना। कश्मीर में बढ़ती अतिवादिता और वहां के लोगों के भारत के प्रति अलगाव का एक मुख्य कारण है कश्मीर को जबरदस्ती अन्य राज्यों के समकक्ष दर्जा देने का प्रयास। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने की मांग की जाती रही है। यह मात्र संयोग नहीं है कि साम्प्रदायिक ताकतों की मुख्य मांगों में यह मांग भी शामिल है।
हजारे और ठाकरे जैसे लोग या तो भारत के पिछले पांच-छःह दशकों के इतिहास को भूल रहे हैं या शायद वे उसे जानते-समझते ही नहीं हैं। वे राष्ट्रवाद की अपनी परिभाषा पर इतने मोहित हैं कि उन्हें और कुछ दिखलाई ही नहीं दे रहा है। आज ज़रूरत इस बात की है कि कश्मीर समस्या को उसके सही ऐतिहासिक व संवैधानिक परिपेक्ष्य में देखा जाए और सभी संबंधित पक्षों का लक्ष्य व प्रयास यही हो कि आम कश्मीरियों की व्यथा में कमी आए। वे खुली हवा में सांस ले सकें व सामान्य और खुशहाल जीवन जी सकें।
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
No comments: