बढ़ रही है पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी
- जावेद अनीस
"में लडूंगी, जीतूंगी और आगे बढूंगी"
“इस बार सरपंच पद अनारक्षित महिला वर्ग का है,
कई उम्मीदवार होंगें, मैं भी एक उम्मीदवार हूँ, मैं आपके बीच की ही एक सामान्य
नागरिक हूँ, ना मेरे पास धनबल है,ना बाहुबल और ना ही राजनीतिक छल, बस मेरे पास तो
आपका जनबल है जिसके विश्वास से मैंने चुनाव में उतरने का फैसला किया है।” उपरोक्त
मजमून हाल ही में संपन्न मध्यप्रदेश पंचायत चुनाव में चुनाव लड़ चुकीं श्रीमती
पदमावती के चुनावी पर्चे का है, एक पेज के इस पर्चे में आगे उन्होंने कई चुनावी वायदे
भी किये थे जिसमें आवासीय पट्टे,राशन की दूकान,गरीबी रेखा,सामजिक सुरक्षा पेंशन
में नाम जुड़वाने,आगंनबाडी, सौ दिन का रोजगार और शौचालय जैसे जमीने से जुड़े और वास्तविक
मुद्दे शामिल थे।
महिला जनप्रतिनिधियों से साथ दशकों से काम कर रहे सामाजिक
कार्यकर्ता इस बात की तस्दीक करते हैं कि जहाँ भी महिलाओं को पुरुषों के प्रभाव के
बिना चुनाव लड़ने का मौका मिलता हैं वहां वे इसी तरह से लोगों के जीवन से जुड़े
मुद्दों को अपना चुनावी एजेंडा बनाने का प्रयास करती हैं।
यही नहीं
महिलायें नयी राजनीतिक संस्कृति की मिसाल भी पेश कर रही है, शहडोल जिले की कुसिया बाई
पूर्व में तीन बार सरपंच रह चुकी है, इस बार भी वे चुनाव लड़ी थीं, उनके घर की
दीवार उनके विरोधी प्रत्याशियों के पोस्टर-पम्फलेट से पटे पड़े थे लेकिन उनका खुद
का पोस्टर – बैनर दिखाई नहीं पड़ता था, पूछने पर निरुत्तर करने वाला जवाब देते हुए
कहती हैं कि “अपने घर पर खुद का ही पोस्टर–बैनर लगाने से क्या फायदा, यहाँ तो सब
जानते हैं कि हम चुनाव लड़ रहे हैं।” हालिया चुनाव में सतना जिले के रामपुर बाघेलान से जनपद पंचायत
सदस्य के लिए चुनाव लड़ चुकीं कला दाहिया और सरस्वती सिंह की कहानी तो और दिलचस्प
हैं, ये दोनों एक ही सीट से चुनाव लड़ रही थीं और चुनावी प्रतिद्वन्दी होते हुए भी अकसर एक ही साथ चुनाव प्रचार करते
हुई दिख जाती थीं, दोनों का तर्क होता था कि हम दोनों अरसे से एक दुसरे की
सहेलियां हैं और फिर यह तो मात्र एक चुनाव है, चुनाव तो आते-जाते रहते हैं हमें तो
हमेशा एक ही गावं में साथ रहना है और फिर जनता जिसको ज्यादा वोट देगी वही जीतेगा,
ऐसे में एक दूसरे के बीच दुश्मनी पाल लेना कोई मायने नहीं रखता है।
विकेंद्रीकरण
और समावेशी विकास के बीच गहरा संबंध है। समावेशी विकास का मुख्य उद्देश्य नागरिकों
में यह एहसास लाना है कि एक नागरिक के तौर पर उनके जेंडर, जाति, धर्म या निवास स्थान के साथ किसी भी प्रकार के
भेदभाव के बिना नीति निर्धारण की प्रक्रिया में सभी की भागेदारी महत्वपूर्ण है। हमारे
देश में आजादी के बाद ही महिलाओं की समानता और उनकी सभी स्तरों पर भागीदारी का
विचार सामने आ सका लेकिन इस विचार को जमीन पर उतरने में हम फिसड्डी साबित हुए हैं। सत्ता में महिलाओं की भागीदारी के संबंध में आई हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत
का स्थान 103 वाँ है।
जबकि हमारे पड़ोसी पाकिस्तान,चीन,नेपाल और अफगानिस्तान
की स्थिति हमसे बहुत बेहतर है जो क्रमश: 64वें, 53 वें 35वें और 39वें स्थान पर
हैं। इस मामले में अफ्रीका के सबसे ग़रीब और पिछड़े समझे जाने वाले कई मुल्क हमसे
आगे हैं।
तमाम प्रयासों और दबाओं के बावजूद सांसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण विधेयक पारित नहीं हो सका है। लेकिन स्थानीय निकायों में महिलाओं को मौके मिल सके हैं। वर्ष 1956 में बलवन्त राय मेहता समिति की सिफारिशों के आधार पर त्रि-स्तरीय पंचायतीराज व्यवस्था लागू हुई थी। लेकिन पंचायतों में महिलाओं की एक तिहाई भागीदारी 1992 में 73 वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम पारित होने के बाद ही सुनिश्चित हो सकी। निश्चित रूप से 73 वां संवैधानिक संशोधन महिलाओं के सशक्त भागीदारी की दिशा में एक बड़ा कदम साबित हुआ है। हालांकि अभी भी एक वर्ग द्वारा इसपर सवाल खड़ा करते हुए कहा जा रहा है, कि महिलाएं इस जिम्मेदारी को उठाने में सक्षम नही हैं और उनमें निर्णय लेने की क्षमता का अभाव है। जबकि सच्चाई यह है कि हमारे समाज में सदियों से महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखा गया था और उनके सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में भागेदारी को दबाने का ही काम किया गया। लेकिन जब कभी भी महिलाओं को आगे आने का मौक़ा मिला है, उन्होंने अपने आप को साबित किया है। पंचायतों में महिलाओं की भागेदारी से न सिर्फ उनका निजी, सामाजिक और राजनीतिक सशक्तिकरण हो रहा है, बल्कि स्वशासन और राजनीति में भी गुणवत्तापरक एवं परिमाणात्मक सुधार आ रहे हैं।
एक मिसाल
मध्यप्रदेश के धार जिले की जानीबाई भूरिया की है जो 2010 चुनाव जीतकर सरपंच बनीं और गावं में नशे की बड़ी समस्या थी, उन्होंने पूरे
गांव में नशे पर पाबंदी लगा दी, फिर पहले घर-घर जाकर लोगों को समझाया, नहीं मानने
पर सार्वजनिक स्थल पर धूम्रपान करते पकड़े जाने पर 200 रु.
का जुर्माना लगा दिया गया। गुटखा-पाउच जब्त किए गये, इसके लिए उन्हें खासा विरोध
झेलना पड़ा लेकिन वे इसपर कायम रहीं, आज उनके इस अभियान का असर गावं में दिखने लगा
है और गावं में नशा कम हुआ है।
अनूपपुर
जिले के ग्राम पंचायत पिपरिया की आदिवासी महिला सरपंच श्रीमती ओमवती कोल के हिम्मत
की दास्तान अपने आप में एक मिसाल है,ओमवती कोल निरक्षर हैं, वंचित समूह की होने के
कारण वे शुरू से ही गांव के बाहुवलियों के निशाने पर थीं, उनपर तरह–तरह से दबाव
डालने, डराने धमकाने का प्रयास किया गया लेकिन उन्होंने दबंगों का रबर स्टाम्प
बनने से साफ़ इनकार कर दिया और अपने बल पर ग्राम में स्वच्छता को लेकर उल्लेखनीय
काम करते हुए गावं में खुले में शौच करने वालों को इससे होने वाले स्वास्थ्य
संबंधित समस्याओं और सामाजिक दुष्परिणाम
से जागरूक किया और उन्हें शासन से सहायता प्राप्त करके सस्ते और टिकाऊ शौचालय
बनवाने हेतु प्रेरित किया। उन्होंने शासन द्वारा प्रदत्त आर्थिक सहायता एवं तकनीकी
जानकारी की मदद से गांव की सड़कें बनवायी। शासन द्वारा उनके गावं को निर्मल ग्राम भी धोषित किया गया ।
महिलाओं ने
अपने भागीदारी और इरादों से पंचायतों में न सिर्फ विकास के काम किये हैं साथ ही
साथ उन्होंने विकास की इस प्रक्रिया में महिलाओं व गरीब-वंचित समुदायों को जोड़ने
का काम को भी अंजाम दिया है। इस दौरान उनका सशक्तिकरण तो हुआ ही है, उन्होंने
सदियों से चले आ रहे भ्रम को भी तोड़ा है कि महिलायें पुरुषों के मुकाबले कमतर होती
हैं और वे पुरुषों द्वारा किये जाने वाले कामों को नहीं कर सकती हैं।
पिछले
दिनों मध्य प्रदेश और राजस्थान सरकारों के फैसलों ने भागीदारी के इन दरवाजों को बन्द करने का काम किया है, राजस्थान सरकार ने एक अध्यादेश जारी किया है जिसके
अनुसार केवल साक्षर लोग ही चुनाव लड़ सकते
हैं। सरपंच पद के लिए कम से कम आठवीं कक्षा(अनुसूचित तबकों के लिए पांचवी कक्षा) और
जिला परिषद एवं पंचायत समिति के चुनाव लड़ने के लिए कम से कम दसवीं पास होना अनिवार्य
कर दिया गया है। इस फैसले का सबसे ज्यादा असर गेंदाबाई इवनाती जैसी बेहतरीन
काम कर रही महिला जनप्रतिनिधियों पर पड़ेगा जिनके
लिए पचास फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है और वे पढ़ी लिखी नहीं होते हुए भी
काबलियत रखती हैं। गेंदाबाई खुद कहती है कि
“हमने पहले कभी ऐसी बात सोची भी नहीं थी
कि महिला को भी आधो में आधो अधिकार बनता है, लेकिन जब कानून हमारे साथ है तो हम भी आगे बढ़ने का साहस कर रहे
हैं और अब महिलायें पुरूष सीट (अनारक्षित
) पर भी चुनाव लड़ने का साहस कर सकती हैं ।
इधर पंचायत चुनाव से ठीक पहले मध्य प्रदेश सरकार द्वारा
निर्विरोध पंचायतों को पांच लाख रूपए का ईमान देने तथा विकास कार्यों के लिए 25 प्रतिशत अधिक धनराशि उपलब्ध कराई जाने की
घोषणा की गयी है, जो एक तरह से जनता के वोट देने के
लोकतांत्रिक अधिकारों पर कुठाराघात है दूसरी तरफ अभी भी हमारा समाज अलोकतांत्रिक हैं
और सामाजिक व्यवस्था में गैर–बराबरी कायम है, उससे पंचायत राज अधिनियम द्वारा वंचित
समूहों के अधिकारों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। निर्विरोध
चुनाव की असली कहानी मध्यप्रदेश के एक ग्राम पंचायत के उदाहरण से समझी जा सकती है जहाँ गावं के प्रमुख
दबंग व्यक्तियों के द्वारा निर्विरोध सरपंच लाने के लिये हुई बैठक में एक भी महिला
सदस्य को नहीं बुलाया गया, हालांकि यह महिला सीट थी। बैठक में सभी पुरुषों ने
मिल बैठ कर यह निर्णय लिया कि किसकी पत्नी को सरपंच बनाया जाये और इस तरह से निर्विरोध पंचायत चुनाव संपन्न हुआ।
निश्चित
रूप से अभी भी महिलाओं को उनके राजनीतिक सशक्तिकरण की सफर में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। निर्वाचित हो
जाने के बाद भी उन्हें जेण्डर आधारित
भेदभाव,
जातिगत भेद, निम्न और दूसरी पारम्परिक और
गैरबराबरी आधारित सामाजिक संरचनाओं से जुझना पड़ता है। इसी तरह से पंचायतीराज
संस्थान व्यवस्थागत प्रणाली और अपने दायित्वों की पूर्ण जानकारी ना होना भी उनके लिए
एक चुनौती है। पति,परिवार के अन्य सदस्यों या गावं के किसी अन्य दबंग व्यक्ति
द्वारा संचालित होने का खतरा तो बना ही रहता है। अभी भी बड़े पैमाने पर ‘‘प्रधान पति’’ या ‘‘सरपंच पति’’
का चलन एक कड़वी सच्च्याई है। चुनाव प्रचार में अभी भी श्रीमती
पदमावती जैसी महिलाओं को अपने पति की तस्वीर और नाम के उपयोग की मजबूरी बरकरार है
।
इन सब के
बावजूद उनकी उपलब्धियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, आधो में आधो अधिकार का
नारी सच हकीकत में उतर रहा है। हाल ही में मध्य प्रदेश संपन्न हुए जिला अध्यक्ष के
चुनाव में कुल पचास जिलों में से करीब चालीस जिलों पर महिलाओं ने जीत दर्ज की है । लेकिन अभी भी महिलाओं के सशक्तिकरण और भागीदारी
का सफर लम्बा है इस दिशा में ओर ज्यादा प्रयास
करना पड़ेगा, यह लड़ाई अभी कई ओर मोर्चों पर लड़ी जानी बाकि है।
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