बहुसंख्यकवाद के खतरे
जावेद अनीस
--------
--------
नयी सरकार के गठन के बाद पिछले एक सालों में लगातार ऐसी घटनायें और कोशिशें हुई हैं जो ध्यान खीचती हैं, इस दौरान धार्मिक अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा बढ़ी है और उनके बीच असुरक्षा की भावना मजबूत हुई है, देश के लोकतान्त्रिक संस्थाओं पर हमले हुए हैं और भारतीय संविधान के उस मूल भावना का लगातार उलंघन हुआ है जिसमें देश के सभी नागरिकों को सुरक्षा, गरिमा और पूरी आजादी के साथ अपने-अपने धर्मों का पालन करने की गारंटी दी गयी है। संघ परिवार के नेताओं से लेकर केंद्र सरकार और भाजपा शासित राज्यों के मंत्रियों तक हिन्दू राष्ट्रवाद का राग अलापते हुए भडकाऊ भाषण दिए जा रहे हैं, नफरत भरे बयानों की बाढ़ सी आ गयी है, पहले छः महीनों में “लव जिहाद”, “घर वापसी” जैसे कार्यक्रम चलाये गये, 2015 में गणतंत्र दिवस के दौरान केंद्र सरकार द्वारा जारी विज्ञापन में भारतीय संविधान की उद्देशिका में जुड़े ‘धर्मनिरपेक्ष‘ और ‘समाजवादी‘ शब्दों को शामिल नहीं किया गया था। केंद्र के एक वरिष्ठ मंत्री ने इस विज्ञापन को सही ठहराया। भाजपा की सहयोगी पार्टी शिवसेना ने तो इन शब्दों को संविधान की उद्देशिका से हमेशा के लिए हटा देने की वकालत ही कर डाली थी। दरअसल मोदी सरकार के सत्ता में आते ही संघ परिवार बड़ी मुस्तैदी से अपने उन एजेंडों के साथ सामने आ रहा है, जो काफी विवादित रहे है, इनका सम्बन्ध धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों, इतिहास, संस्कृति, धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के करीब नब्बे साल पुराने सपने से है।
इसमें कोई शक नहीं कि मोदी सरकार आजाद भारत की पहली बहुसंख्यकवादी व सम्पूर्ण दक्षिणपंथी सरकार है तभी तो विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंघल का कहते हैं कि “दिल्ली में 800 सालों के उपरान्त पृथ्वीराज चौहान के बाद पहली हिंदुओं की सरकार बनी है और सत्ता हिंदू स्वाभिमानियों के हाथ आई है।” ज्ञात हो कि पृथ्वीराज चौहान को अंतिम हिन्दू सम्राट माना जाता है।
भारत के प्रख्यात न्यायविद फली एस. नरीमन जैसी शख्सियत ने मोदी सरकार को शुरूआती दिनों में ही बहुसंख्यकवादी बताते हुए चिंता जाहिर की थी कि बीजेपी-संघ परिवार के संगठनों के नेता खुलेआम अल्पसंख्यकों के खिलाफ बयान दे रहे हैं लेकिन पार्टी और सरकार के सीनियर लीडर इस पर कुछ नहीं कहते हैं। मुल्क में जिस तरह के हालात हैं उनसे नरीमन की चिंता बहुत वाजिब हैं। खुद नरेंद्र मोदी ने जबसे प्रधानमंत्री बने हैं तबसे दो मौकों पर भारत में धर्मनिरपेक्षता और इसमें विश्वास करने वाले लोगों पर सवाल खड़े करके इसका मजाक उड़ा चुके हैं, सबसे पहले अपनी जापान यात्रा के दौरान उन्होंने वहां सम्राट अकीहितो को अपनी तरफ से हिंदू धर्म की पवित्र ग्रंथ ‘भगवद्गीता’ की एक प्रति तोहफे के तौर पर देने को लेकर ‘धर्मनिरपेक्ष मित्रों’ पर चुटकी लेते हुए कहा था कि “हो सकता है कि इससे हंगामा खड़ा हो जाए और और टीवी पर बहस होने लगें।“ इसके बाद बर्लिन में उन्होंने संस्कृत भाषा को नज़रअंदाज़ किए जाने के लिए सेक्युलरवाद को ज़िम्मेदार ठहराया दिया था। भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने तो एक कदम आगे बढ़ते हुए भगवद् गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की वकालत कर डाली, हमारे देश का संविधान सेक्युलर है और सभी भारतीयों का राष्ट्रीय ग्रन्थ भारतीय संविधान है, सरकार से एक वरिष्ठ मंत्री द्वारा गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की वकालत करना देशहित में नहीं है। लेकिन संघ परिवार का सब से बड़ा एजेंडा तो आजादी के लडाई के दौरान निकले सेकुलर और प्रगतिशील “भारतीय राष्ट्रवाद” के जगह “हिन्दू राष्ट्रवाद” को स्थापित करना है। पिछले एक साल से लगातार लोकतान्त्रिक संस्थानों, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और उदारवादी व बहुलतावादी सोच पर चौतरफ़ा हमले किए जा रहे हैं, भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद रहे प्रशासनिक, क़ानूनी, वैज्ञानिक और शैक्षिक ढांचों के साथ छेड़छाड़ करके उन्हें कमजोर करने की कोशिश की जा रही है और यहाँ संघ के विचारधारा के साथ जुड़े लोगों की भर्तियाँ हो रही हैं, जिससे वर्चस्ववादी हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा को बढावा दिया जा सके और उदारवादी धर्मनिरपेक्ष सोच का दायरा सीमित हो जाए।
इस दौरान सबसे बड़ा हमला “अल्पसंख्यक” और “सेकुलरिज्म” के कांसेप्ट पर हुआ है, आर.एस.एस. के वरिष्ठ नेता दत्तात्रेय होसाबले के बयान पर ध्यान दीजिये जिसमें वे कहते हैं कि “भारत में कोई अल्पसंख्यक नहीं है यहाँ सब लोग ‘सांस्कृतिक, राष्ट्रीयता और डीएनए से हिंदू’ हैं।“ उनके मुखिया मोहन भागवत ने कई बार कहा है कि ‘भारत में जन्म लेने वाले सभी लोग हिंदू हैं. चाहे वे इसे मानते हों या नहीं, सांस्कृतिक, राष्ट्रीयता और डीएनए के तौर पर सब एक हैं।‘ बहुत ही दिलचस्प तरीके से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी होसाबले और भागवत की हाँ में हाँ मिलाते हुए नज़र आते हैं। पिछले ही दिनों मुसलमानों के एक प्रतिनिधिमंडल से मुलाक़ात के दौरान नरेन्द्र मोदी ने कहा कि ‘बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की राजनीति देश को पहले ही बहुत नुकसान पहुंचा चुकी है। वह ऐसी राजनीति में विश्वास नहीं रखते जो लोगों को मज़हब के आधार पर बांटती है।‘ भारत में अल्प धार्मिक समूहों को अल्पसंख्यक समूह का दर्जा यूँ ही नहीं मिला है,हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच-समझ कर यह प्रावधान किया था जिसके वजह से देश में सभी धार्मिक समुदाय बिना किसी डर और भेदभाव के अपने–अपने पंथो को मानने के लिए आजाद है और उनपर किसी दूसरे मजहब और कल्चर को थोपा भी नहीं जा सकता है। संघ के निशाने पर अल्पसंख्यकों मिला यह अधिकार और सुरक्षा हमेशा से निशाने पर रहा है।
हाल ही में विभिन्न सामाजिक संगठनों द्वारा ‘365 दिन-मोदी के शासन में प्रजातंत्र और धर्मर्निरपेक्षता’ के नाम से जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार 26 मई 2014 से लेकर जून 2015 तक ईसाइयों पर 212 हमले के मामले और मुसलमानों पर 175 हमले के मामले सामने आए हैं।इन हमलों में कम से कम 43 लोग मारे गए हैं।इसी दौरान भड़काऊ भाषण के 234 मामले भी सामने आए हैं।इस रिपोर्ट में दर्ज 90% से अधिक मामले उन 600 हिंसक वारदातों से अलग हैं जिनका अगस्त 2014 में इंडियन एक्सप्रेस अख़बार ने ख़ुलासा किया था ।
उपरोक्त रिपोर्ट के अनुसार अब रणनीति बदल गई है और संघ परिवार को इस बात का एहसास हो गया है कि बड़े पैमाने पर हिंसा अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित करती है और इसलिए अब बहुत ही सुनियोजित ढंग से पूरे भारत में स्थानीय स्तर पर हिंसा और नफ़रत फैलाने की राजनीति की जा रही है जिससे लोंगों को बांटा जा सके और अल्पसंख्यकों को ओर हाशिए पर धकेला जा सके।
पिछले एक साल के दौरान मोदी सरकार द्वारा उठाये गये क़दमों और लिए गये फैसलों तथा संघपरिवार के हरकतों से यह आशंका सही साबित हुई है कि राष्ट्र के तौर पर हम ने अपना रास्ता बदल लिया हैभारतीय समाज की सबसे बड़ी खासियत विविधतापूर्ण एकता है, यह जमीन अलग अलग सामाजिक समूहों, संस्कृतियों और सभ्यताओं की संगम स्थली रही है और यही इस देश की ताकत भी रही है। सहनशीलता, एक दूसरे के धर्म का आदर करना और साथ रहना असली भारतीयता है और हम यह सदियों से करते आये हैं।
आजादी और बंटवारे के जख्म के बाद इन विविधताओं को साधने के लिए सेकुलरिज्म को एक ऐसे जीवन शैली के रुप में स्वीकार किया गया जहाँ विभिन्न पंथों के लोग समानता, स्वतंत्रता, सहिष्णुता और सहअस्तित्व जैसे मूल्यों के आधार पर एक साथ रह सकें। हमारे संविधान के अनुसार राज्य का कोई धर्म नहीं है, हम कम से कम राज्य व्यवस्था में धर्मनिरपेक्षता की जड़ें काफी हद तक जमाने में कामयाब तो हो गये थे। लेकिन अब इसपर बहुत ही संगठित तरीके से बहु आयामी हमले शुरु हो चुके हैं, हिन्दू संस्कृति को पिछले दरवाजे से जनता पर लादने का तरीका अपनाया जा रहा है।
जरुरत इस बात की है कि हमारी विविधता और बहुलता पर हो रहे इस बहु आयामी हमले और इससे होने वाले नुक़सान से लोगों को सचेत कराया जाए और संविधान, लोकतान्त्रिक, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों, संस्थाओं पर हो रहे हमले का एकजुट होकर विरोध किया जाए।
हिंदी के मशहूर साहित्यकार असग़र वजाहत अपने पाकिस्तान के यात्रा संस्मरण पर लिखी गयी किताब “पाकिस्तान का मतलब क्या” का अंत इन पंक्तियों के साथ करते हैं “मैं एक इस्लामी मुल्क देख आया हूँ. मैं मुसलमान हूँ. अब मैं लौट कर लोकतंत्र में आ गया हूँ. चाहे जितनी भी ख़राबियां हों लेकिन मैं इस लोकतंत्र में पाकिस्तान का ‘हिन्दू’ या ‘ईसाई’ नहीं हूँ. मैं काद्यानी भी नहीं हूँ …. मैं जो हूँ वो हूँ …. मुझे न अपने धार्मिक विश्वासों की वजह से कोई डर है और न अपने विचारों की वजह से कोई खौफ है …..मैंने एक गहरी साँस ली ….
हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हिन्दुस्तान के सन्दर्भ में असग़र वजाहत यह पंक्तियाँ सही साबित ना होने पायें और हम एक और पकिस्तान ना बन जायें ।
No comments: