भारत में स्तनपान की चिंताजनक स्थिति
उपासना
बेहार
पूरी दुनिया में 1 अगस्त को
विश्व स्तनपान दिवस और अगस्त माह के प्रथम सप्ताह को स्तनपान सप्ताह के रूप में
मनाया जाता है। इस दौरान सरकारों और
सामाजिक संस्थानों द्वारा लोगों में स्तनपान से जुडी भ्रान्तियों को दूर करने और माँ के दूध
के महत्त्व को बताने
का प्रयास किया जाता है। नवजात
शिशुओं में रोगों से
लड़ने की शक्ति
नहीं होती है। यह शक्ति उसे माँ
के दूध से मिलती है,जिसमें ज़रूरी पोषक तत्व, एंटी बाडीज, हार्मोन, प्रतिरोधक कारक और अन्य ऐसे
आक्सीडेंट होते हैं, जो नवजात
शिशु के समग्र विकास और बेहतर स्वास्थ्य के
लिए ज़रूरी होते हैं। माँ का दूध शिशुओं को संक्रमणों,
कुपोषण, एनीमिया, अतिसार, रतौंधी जैसी बीमारियों से
बचाता है।
लेकिन हमारे देश में स्तनपान की स्थिति बहुत ही चिंताजनक है।
‘सेव
द चिल्ड्रेन’ संगठन की 2015 के ‘विश्व के माताओं की स्थिति’ रिपोर्ट में भारत को
मातृत्व सूचकांक पर 179 देशों की सूची में 140वें स्थान पर रखा गया है। वही पिछले साल वह 137वें
स्थान पर था। यानि की पिछले साल की तुलना में इस साल देश की स्थिति और भी खराब हुई
है. रिपोर्ट के मुताबिक मां और बच्चे की सेहत के नजरिए से
वर्ष 2011 में भारत 80
अल्प विकसित देशों की सूची में 75वें स्थान पर
था जो इस बार एक स्थान नीचे खिसक कर 76वें स्थान पर आ गया
है.
इसी तरह से इंटरनेशनल बेबीफूड एक्शन
नेटवर्क द्वारा 2010 में 33 देशों में “स्तनपान की स्थिति: विश्वव्यापी स्तर पर नवजात
शिशुओं और छोटे बच्चों संबंधी दुग्धपान नीतियों और कार्यक्रमों का पर्यवेक्षण” रिपोर्ट के अनुसार अन्य विकासशील देशों की तुलना में भारत की
स्थिति असंतोषजनक है. अध्ययन में शामिल किए गए एशिया, लैटिन अमेरिका और अफ्रीका के 33 देशों में
भारत का स्थान 25वां है। भारत को कुल 150 अंको में से सिर्फ 69 अंक मिले
हैं। जबकि हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान और बांग्लादेश हमसे बहुत बेहतर स्थिति के
साथ क्रमशः11वें और 12वें स्थान
पर हैं। वही श्रीलंका 124 अंक पाकर
प्रथम स्थान पर है.
आखिर क्या वजह हैं कि मातायें अपने बच्चों को सम्पूर्ण स्तनपान नहीं करा पा
रही हैं? इसका सबसे
बड़ा कारण माताओं में खून की कमी और उनका कुपोषित होना है. हमारा समाज एक पितृसतात्मक समाज है, जहाँ लड़के के जन्म पर
खुशियाँ मनाई जाती है वही कन्या के जन्म पर परिवार में मायूसी और शोक छा जाती है. भारतीय समाज का बच्चियों के प्रति नजरिया, सांस्कृतिक व्यवहार, पूर्वागृह ऐसा है जिसमें बचपन से ही लड़के और लडकियों की शिक्षा, खानपान और देखभाल में भेद किया जाता है. इसी के चलते लड़कों की अपेक्षा लड़कियां कुपोषण और एनिमिया
की ज्यादा शिकार होती हैं और जिसका
प्रभाव जब वो माँ बनती हैं तब उनके स्वास्थ्य पर
पड़ता है और वो सम्पूर्ण स्तनपान कराने में अक्षम
हो जाती हैं.
स्तनपान की समस्या कम उम्र में बच्चियों की शादी से भी जुड़ा हुआ है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया का ऐसा
छठा देश है, जहां बाल विवाह का प्रचलन सबसे ज्यादा है। भारत में 20 से 49 साल की
उम्र की करीब 27 फीसदी महिलाएं ऐसी हैं जिनकी शादी 15 से 18 साल की उम्र के बीच
हुई है। जुलाई 2014 में यूनिसेफ द्वारा “एंडिग चाइल्ड मैरिजः प्रोग्रेस एंड
प्रास्पेक्ट्स” शीर्षक से बाल-विवाह से संबंधित एक रिपोर्ट जारी की गयी है जिसके
अनुसार विश्व की कुल बालिका बधू की एक तिहाई बालिका बधू भारत में पाई जाती है
अर्थात प्रत्येक 3 में से 1 बालिका बधू भारतीय है। कम उम्र में शादी होने से उनके
स्वास्थ्य और पोषण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, बाल विवाह के कारण बच्चिया कम
उम्र में ही गर्भवती हो जाती हैं जिससे माता में कुपोषण और खून की कमी हो जाती है.
हाल
ही में केन्द्रीय महिला और बाल कल्याण विकास मंत्री मेनका गाँधी ने राज्यसभा में
बताया कि देश में 15 से 49 वर्ष की 55.3 प्रतिशत महिलायें खून की कमी से ग्रसित
हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की वर्ष 2008 की रिपोर्ट में भी ये बात निकल कर आई कि भारत
में खान-पान में पोषक तत्वों की कमी के कारण 55 प्रतिशत
गर्भवती महिलाएं में
एनीमिया के लक्षण पाये गये थे, रिपोर्ट के
अनुसार 1999 में 51.8 प्रतिशत विवाहित महिलाएं एनीमिया
से पीड़ित थी जिनकी संख्या 2006 में
बढ़कर 56.2 प्रतिशत हो गयी। सबसे खराब हालात
आसाम की थी जहां 72 प्रतिशत
विवाहित महिलाएं एनीमिया का शिकार थी जबकि राजस्थान में 69.8, हरियाणा में 68 तथा कर्नाटक व मध्यप्रदेश में 72 प्रतिशत महिलाओं में हीमोग्लाबिन
का स्तर कम पाया गया था।
महिलाओ के एनीमिक और कुपोषित होने के कारण स्तन में कम दूध
आता है या दूध बनता ही नहीं है जिसकी वजह से नवजात को सही समय और पर्याप्त मात्रा में माँ का दूध नहीं मिल पाता है, जो बच्चों में कुपोषण की समस्या के कई कारणों मे प्रमुख है. मेनका गाँधी ने राज्यसभा में बताया कि देश में 5 साल से कम आयु के 42.5
प्रतिशत बच्चे कुपोषित और 69.5 प्रतिशत बच्चे खून की कमी से ग्रसित हैं हैं,
जिसमें मध्यप्रदेश में सबसे अधिक लगभग 60 प्रतिशत, झारखंड में 56.5 प्रतिशत,बिहार
में 55.9 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं.
‘सेव द
चिल्ड्रन’ संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक मां का दूध पी रहे बच्चों के बचने की संभावना स्तनपान से वंचित
बच्चों की तुलना में छह गुना ज्यादा होती है. हालांकि देश में केवल 40 प्रतिशत बच्चों को ही सम्पूर्ण स्तनपान मिलता है. राष्ट्रीय
स्वास्थ्य परिवार कल्याण सर्वेक्षण 2005-2006 के अनुसार भारत में केवल 23% माताएँ ही
शिशु के जन्म के एक घंटे के भीतर स्तनपान करा पाती हैं। अगर नवजात के जन्म के
एक घंटे के भीतर स्तनपान करने की दर बढ़ा दी
जाये तो शिशु और 5 साल से कम आयु के बच्चों की मृत्यु के अनुपात को कम किया जा सकता है और हर साल
भारत में क़रीब दस लाख शिशुओं की जान बचाई जा सकती है।
देश में स्तनपान को लेकर अनेक मिथक भी हैं, कुछ गलत रीतिरिवाज, परम्परायें है जैसे पीले दूध को
हानिकारक मानना, कोलोस्ट्रम को फेंक देना, स्तनपान
में विलम्ब करना, स्तनपान से
पहले शहद या अन्य भोजन देना इत्यादि बातें प्रचलन में हैं.
सम्पूर्ण स्तनपान को बढ़ाने के लिए स्वास्थ्य व्यवस्था पर ज्यादा निवेश करने की जरुरत है, आगंनबाडी, अस्पताल, क्लिनिकों में आने वाली
गर्भवती महिलाओं और उनके परिवार के सदस्यों
को स्तनपान के लाभों के बारे में बतलाया जाना चाहिए. अभिभावकों
को बाल विवाह के दुष्परिणामों के प्रति जागरुक करना होगा साथ ही साथ सरकार को भी
बाल विवाह के खिलाफ बने कानून का जोरदार ढंग से प्रचार-प्रसार तथा कानून का कड़ाई
से पालन करना होगा. स्तनपान को लेकर फैले मिथक को दूर करना होगा जिसके लिए गावं की महिला मंडली, स्वयं सहायता समूह को इस सम्बन्ध में सही जानकारी देकर उन्हें चेंज मेकर बनाया जा सकता है. साथ ही साथ बालिकाओं के पोषण, स्वास्थ्य के अधिकार को सुनिश्चित करते हुए
उनके प्रति हो रहे भेदभाव को रोकना होगा।
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