मदरसे, आधुनिक शिक्षा और ताजा विवाद
जावेद अनीस
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हर फैसले का एक
परिपेक्ष होता है, महाराष्ट्र सरकार के उस फैसले को भी एक परिपेक्ष में देखने की
जरूरत है जिसमें निर्णय लिया गया है कि जो मदरसे महाराष्ट्र सरकार का पाठ्यक्रम
नहीं अपनायेंगे उन्हें स्कूल नहीं माना जाएगा, इसका मतलब है कि वहां पढ़ने वाले
बच्चों को 'आउट ऑफ स्कूल
चिल्ड्रेन' माना जाएगा। इसको लेकर
दलील दी गयी है कि इससे मदरसे के बच्चों को मेनस्ट्रीम शिक्षा व्यवस्था से जोड़ने
में मदद मिलेगी, गौरतलब है कि महाराष्ट्र में लगभग 1900 मदरसे हैं जहाँ
करीब 2
लाख बच्चे पढ़ते हैं। इससे पहले वहां के
अल्पसंख्यक विकास मंत्री यह घोषणा कर चुके हैं कि जो मदरसे तयशुदा
आधुनिक विषय नहीं पढ़ायेंगे उन्हें सरकारी ग्रांट नहीं दिया जाएगा। इस फैसले में
कुछ नया नहीं था और इसको लेकर कोई विवाद भी नहीं हुआ था क्योंकि यह सबको स्पष्ट है
कि सरकारी मदद उन्हीं मदरसों को मिलती है जो धार्मिक शिक्षा के साथ साथ तयशुदा
सरकारी पाठ्यक्रम भी पढ़ाते हैं। लेकिन महाराष्ट्र सरकार के हालिया फैसले पर
उँगलियाँ उठ रही है, भारत में मदरसों को लेकर अपनी तरह का यह पहला मौका है जब किसी सरकार द्वारा इस तरह का फैसला
लिया गया है। इसे दबाव बनाकर मदरसों पर आधुनिकीकरण थोपने के प्रयास के
तौर पर देखा जा रहा है,ऐसी भी सुगबुगाहटें उठ रही हैं कि यह फैसला संघ परिवार के
दबाव में लिया गया है जिसका मुस्लिम समुदाय और मदरसों के प्रति द्वेषपूर्ण रवैया आये
दिन सामने आता रहता है और जो अपने हिन्दुत्व के नजरिये को वर्तमान केंद्र सरकार व
भाजपा शासित राज्यों में लागू करने के लिए कमर कस चूका है।
इस फैसले का पहला परिपेक्ष्य यही है कि संघ
परिवार और उससे जुड़े लोग मदरसों को लेकर लगातार सवाल उठाते
रहे हैं, केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद यह सवाल लांछन में बदल गया है, उनके द्वारा
यह आरोप लगते रहे हैं कि मदरसों में धार्मिक कट्टरता की शिक्षा दी जाती है। यहाँ
तक कि यह भी आरोप लगाया गया है कि मदरसों के जरिये आतंकवादी तैयार किए जाते हैं,
पिछले दिनों भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने तो
मदरसों को आतंकवाद का गढ़ तक कह दिया था लेकिन हाल ही में “इंटेलिजेंस
ब्योरो” द्वारा केंद्र की भाजपा सरकार को एक रिपोर्ट सौपी गयी है जो इन दावों को खारिज करता है, रिपोर्ट के अनुसार भारत
के मदरसों में सिर्फ इस्लामी शिक्षा दी जाती है जिनका आतंकवाद से कोई सम्बन्ध नहीं
है। इसी तरह से पिछले दिनों मदरसों को समलैंगिकता का अड्डा
बता कर बदनाम करने की कोशिश की गयी थी, मदरसों को
सरकारी सहायता मिलने को लेकर भी सवाल खड़े किये जाते रहे हैं।
दूसरा परिपेक्ष शिक्षा के भगवाकरण का है, मध्यप्रदेश और
गुजरात जैसे भाजपा शासित राज्यों में यह प्रक्रिया पहले से ही चल रही है, हरियाणा
के स्कूलों के पाठ्यक्रम में भी गीता को अनिवार्य करने जैसे कदम उठाये जा चुके
हैं, स्कूलों में सरस्वती वंदना, गीता की पढ़ाई,
सूर्य नमस्कार
और इसी तरह की अन्य गतिविधियों के कारण अल्पसंख्यक
छात्र-छात्रायें अपने आप को अलग-थलग महसूस कर सकते हैं जिसका असर उनके शिक्षा
जारी रखने पर भी पड़ सकता है। केंद्र में भाजपा शासन आने के कुछ दिनों बाद ही मध्यप्रदेश के मोहनखेड़ा़ में हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचारकों के
"मंथन बैठक" में देशभर से जुटे प्रचारकों ने जोर दिया था कि अब
चूंकि देश में भाजपा की सरकार बन गई है इसलिए "बदलाव की शुरुआत शिक्षा के क्षेत्र से" होनी
चाहिए और विद्या भारती व वनवासी परिषद की तरह सरकारी स्कूलों में भी
"संघ विचारधारा" और "संस्कारों की शिक्षा" दी जानी चाहिए। जाहिर है
आने वाले वर्षों में शिक्षा के भगवाकरण करने की दिशा में केंद्र सरकार तेजी दिखा
सकती है।
“जब भी अध्यापक नाराज होते हैं,वे हमें मुल्ला
कह कर बुलाते हैं। हिंदू लड़के भी हमें मुल्ला कहते हैं क्योंकि हमारे पिता दाढ़ी
रखते हैं। जब वे हमसे इस तरह बात करते हैं तो हम अपमानित महसूस करते हैं।”
यह कहना है दिल्ली में रहने वाले जावेद
नाम के 10 वर्षीय मुस्लिम लड़के का जिसका खुलासा ह्यूमन राइट्स
वॉच की रिपोर्ट “वे कहते हैं हम गंदे है : भारत में हाशिए पर रह रहे लोगों
को शिक्षा से वंचित रखना” में हुआ है।
यही तीसरा परिपेक्ष्य है, मुस्लिम बच्चों
के प्रति स्कूल प्रबन्धनों का भेदभावपूर्ण रवैया कोरी कल्पना नहीं है,
दरअसल इधर इस बीच
समुदाय को लेकर पूर्वाग्रह बढ़े हैं।
इस तरह के भेदभाव एक ऐसे दूषित वातावरण का निर्माण करता है जिसके
कारण बच्चे स्कूल से
“ना समझ में आने वाले कारणों” से गैर
हाजिर हो सकते है।
हमारी व्यवस्था में संवेदनहीनता और निगरानी
की कमजोर कार्यप्रणाली ऐसे बच्चों की
पहचान कर पाने और इसे नियंत्रित करने में असफल
है।
दरअसल महाराष्ट्र
सरकार का यह फैसला जाने-अनजाने भारत में पूरे मदरसा डिसकोर्से को एकांगी बनाने की
कोशिश भी है, यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि भारत में मदरसों की शुरुआत मध्यकाल के
समय से ही हो गई थी और संभवतः सन् 1206 में दिल्ली में पहले मदरसे की स्थापना की
गयी थी, शुरुआत में मदरसों के शिक्षा का ढांचा इस प्रकार का रखा गया था जिससे शासन
के विभिन्न पदों के लिए प्रशिक्षित व्यक्ति मिल सकें। उस दौरान मदरसों को राज्य का
संरक्षण प्राप्त था और उनके पाठ्यक्रम में भूगोल,ज्योतिष,भौतिकशास्त्र, दर्शनशास्त्र इत्यादि
विषय शामिल किये गये थे। मुगलकालीन भारत में लोक सेवा के लिए मदरसे से ही लोग
निकलते थे यहीं के ही स्नातक प्रशासन के दो सबसे महत्वपूर्ण पदों “मुफ्ती” और
“काजी़” के पद के लिए योग्य माने जाते थे। ब्रिटिश शासन के दौरान
इंडियन सिविल सर्विसेस के अधिकारी रह चुके विलियम डब्लू हंटर ने “भारत के इंम्पीरियल गजट” में
मदरसों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि “उनके पास शिक्षा की एक ऐसी व्यवस्था थी जो हमारे द्वारा
स्थापित व्यवस्था से चाहे जिस कदर हीन रही हो, अभी
भी इस योग्य न थी कि तिरस्कृत की जाए... यह भारत में तबतक मौजुद किसी भी अन्य
शिक्षा व्यवस्था की तुलना में श्रेष्ठ थी। प्रोफेसर
अख्तरुल वासे भी इसी बात की तस्दीक करते
हैं जिनके अनुसार “पहले जीवन का कोई मैदान और समाज का कोई क्षेत्र
ऐसा नहीं था जो
मदरसों के प्रभाव क्षेत्र से से बाहर हो, धर्म
की व्याख्या करने वाले भी यहीं से पैदा होते थे और दुनिया के व्यापार, संस्कृति मामलों की जिम्मेदारी निभाने वाले, राजनीतिक
प्रणाली को चलाने वाले भी।“
इस स्थिति में बदलाव
1857 के विद्रोह के बाद आना शुरू हुआ जब 19 सदी के उत्तरार्ध में औपनिवेशिक
प्रशासन द्वारा मदरसों से राज्य के संरक्षण को हटा लिया गया और धार्मिक राजस्व
(अवकाफ) और न्याय व्यवस्था (फिकह) को खत्म करके उसकी जगह नयी व्यवस्था की स्थापना
कर दी गयी और इसके साथ ही मदरसों को राज्य द्वारा मिलने वाला संरक्षण भी बंद हो
गया। इस बारे में विलियम डब्लू
हंटर लिखते हैं कि “हमारे शासन के पहले पचहत्तर
वर्षो में हम अपना प्रशासन चलाने के लिए अधिकारी उत्पन्न करने के वास्ते उसी
व्यवस्था का उपयोग करते रहे। लेकिन इस बीच हमने लोक- शिक्षा की अपनी खुद की योजना
आरम्भ की और जैसे ही उसने नयी जमीन पर व्यक्तियों की एक पीढ़ी को प्रशिक्षित कर
लिया, हमने पुरानी मुस्लिम
व्यवस्था को किनारे फेंक दिया और मुस्लिम नौजवानों को सार्वजनिक जीवन का हर
क्षेत्र अपने लिए बंद दिखाई देने लगा।“
इसके बाद मदरसों के
नेचर में दो बड़े परिवर्तन देखने को मिलते हैं, पहला अब मदरसे प्रशासन चलाने के लिए
अधिकारी उत्पन्न करने का काम नहीं करते थे अब उनका मकसद इस्लाम के किसी खास मसलक (आंतरिक धड़े) के
जरुरतों को पूरा करना था और इनका पूरा फोकस दीनी तालीम तक सीमित हो गया, दूसरा बड़ी संख्या में राज्य से स्वतंत्र
मदरसों की स्थापना हुई।
आजादी के बाद मदरसों
से निकले स्नातकों के सामाजिक स्थिति और नौकरी के अवसर ओर भी कम हो गये। मदरसे अपने
विधाथियों को उस तरह की शिक्षा नहीं देते हैं जो कि भारतीय राज व्यवस्था और बाजार
की जरुरतों से मेल खा सके अतः उनके पास मदरसों में शिक्षक या मस्जिदों में इमामत
का ही विकल्प होता है। हालांकि कुछ चुनिंदा विश्वविधालयों जैसे लखनऊ विश्वविधालय, अलीगढ़ मुस्लिम
यूनिर्वसिटी एवं जामिया मिलिया इस्लामिया द्वारा मदरसा स्नातकों को चुनिन्दा खास
विषयों में उच्च शिक्षा में दाखिले का विकल्प भी दिया जाता है जहाँ उन्हें स्नातक
स्तर की शिक्षा पूरी करने का मौका मिल सकता है। लेकिन यहाँ तक पहुँचने वाले बच्चों
का अनुपात बहुत कम है। नतीजे के
तौर पर मदरसे और वहां से निकलने वाले
स्नातक पीछे छूट गये दिखायी देते हैं और उनमें बंद मानसिकता और समाज की मुख्य धारा
से अलगाव दिखायी देता है।
मदरसों में पढने वाले
बच्चों की संख्या को लेकर स्पष्टता नहीं है, सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार कुल
मुस्लिम बच्चों में से चार प्रतिशत ही मदरसों में जाते हैं जबकि कुछ अन्य अनुमानों
के अनुसार यह संख्या इससे ज्यादा है, जो भी हो लेकिन इसमें कोई विवाद नहीं है कि
मदरसों में पढने वाले ज्यादातर बच्चे मुस्लिम समाज के सबसे गरीब तबकों और पसमांदा समाज (पिछड़े मुसलमान) से ही होते हैं। ध्यान रहे भारत के मुस्लिम समुदाय को वैसी
एकरूपता नहीं है जिस तरह से इसे अमूमन पेश किया जाता है, मुसलमानों में लगभग 36 पिछड़ी जातियां
हैं, वे कई भाषायें बोलते हैं, उनके पहनावे और खान– पान में भी
काफी भिन्नता पायी जाती है, मसलक तो खैर कई हैं ही। आजादी के बाद मुस्लिम समुदाय की लीडरशिप
वैसे भी कमजोर रही है उसपर भी नेतृत्व अक्सर अशरफों(तथाकथित उच्च जाति के
मुसलमान)के हाथों में रही है जो बड़ी आबादी वाले पसमांदा मुसलामानों की हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं,हमेशा से ही इस नेतृत्व का
पूरा जोर केवल पहचान से जुड़े और भावनात्मक मुद्दों को सामने लाने पर ही रहा है,
जीवन से जुडी वास्तविक मुद्दों जैसे शिक्षा , रोजी-रोटी,स्वास्थ्य और सुरक्षा से
जुड़े मुद्दे पर उनकी खामोशी ही देखने को मिली है।
1998 में तत्कालीन एन.डी.ए. सरकार द्वारा मदरसों के
आधुनिकीकरण और उनकी डिग्रियों को मान्यता दिये जाने के लिए मदरसा आधुनिकीकरण
कार्यक्रम की शुरुवात की गई थी, वर्तमान में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा मदरसों में गुणवत्ता
शिक्षा संवर्धन योजना (एसपीक्यूईएम) चलायी जा रही है, जिसका उद्देश्य मदरसों जैसी पारम्परिक संस्थाओं को वित्तीय
मदद देकर उन्हें अपने पाठ्यक्रमों में विज्ञान, गणित, सामाजिक अध्ययन, हिंदी और अंग्रेजी की शिक्षा देने के लिए प्रोत्साहित करना
है, ताकि इन संस्थानों में पढ़ने वाले बच्चों को अकादमिक दक्षता
हासिल हो सके।
मोटे तौर पर देशभर में दो तरह के मदरसे हैं, पहले श्रेणी में दारुलउलूम
आते है जो उच्च शिक्षा देते हैं जैसे देवबंद, नदवा। इनका मूल उद्देश्य ही धार्मिक शिक्षा देना है, ये
मदरसे आमतौर पर सरकारी सहायता स्वीकार नहीं करते हैं। दूसरे श्रेणी में मदरसे या
मकतब आते हैं जो पांचवी से आठवीं तक की शिक्षा देते हैं, यह मदरसे सरकारी सहायता व
अनुदान लेते है और आधुनिक विषय भी पढ़ाते हैं।
मोदी सरकार द्वारा भी मदरसा आधुनिकीकरण को अपने ऐजेड़े में
शामिल किया गया है और इसके लिए चालू वित्त वर्ष 2014-15 के बजट में 100 करोड़
रुपये आवंटित भी किये गये हैं, दिसंबर 2014 में एक आरटीआइ कार्यकर्ता द्वारा
केन्द्र सरकार से मदरसा में शिक्षा के आधुनिकीकरण के संबंध में मांगी गयी जानकारी के
जवाब में केंद्र सरकार ने बताया है कि मदरसों
के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया स्वैच्छिक है।
लेकिन इन अनुदान प्राप्त मदरसों की स्थिति बहुत खराब है,ऐसे
गिने–चुने मदरसे ही होंगें जो शिक्षा अधिकार कानून में दिये गये सभी सूचकांकों पर
खरे उतरते हों, इसकी कई वजहें है, सबसे बड़ी वजह यह है कि “एसपीक्यूईएम” को बहुत ही गैर-प्रोफेशनल तरीके से चलाया जा
रहा है,इसके क्रियान्वयन के लिए सिस्टम और प्रभावी तौर–तरीकों का अभाव है, मदरसों को
दिया जाने वाला अनुदान भी बहुत कम है, जिसके नतीजे में वहां की बुनियादी सुविधायें
निम्नतर होती है, कम तन्खवाह के कारण योग्य शिक्षक भी नहीं मिल पाते हैं, कोई ठोस
मानक नहीं है, कोई भी अनुदान के लिए मदरसा खोल सकता है, माँनिटरिंग और जवाबदेही का
घोर अभाव है, सब कुछ सेटिंग और लिंक के भरोसे छोड़ दिया गया है।
इसलिए जरूरी हो जाता है कि पहले इन रुकावटों को दूर किया
जाए, कोई भी अगर मदरसा चलाना चाहता है तो उसके लिए बुनियादी मानक तय किये जाने
चाहिए और यह सुनिश्चित हो कि कोई भी मदरसा एक छोटे से कमरे में कक्षा आठवीं तक की
पढाई ना करा सके, इसके अलावा माँनिटरिंग का एक सिस्टम बनाया जाए और उसका कड़ाई से
पालन किया जाए। अनुदान राशि भी बढ़ाये जाने की जरूरत है जिससे मदरसे अपने यहाँ
बुनियादी सुवधाओं की कमी को पूरा कर सके और उनके पास योग्य शिक्षकों की नियुक्ति
के लायक बजट हो।
दूसरी तरफ दारुलउलूम जैसे बड़े मदरसों को भी मुख्यधारा की
शिक्षा से जोड़ने की जरूरत है। जिस तरह से अलीगढ़ मुस्लिम यूनिर्वसिटी एवं जामिया जैसे
विश्वविद्यालय मदरसा स्नातकों को अपने यहाँ पढ़ाई ज्वाइन करने का मौका देते हैं उसी
तरह से अन्य विश्वविद्यालयों में भी इसका विकल्प दिया जा सकता है।और निश्चित रूप से
मदरसों को भी अपने आप में बदलाव लाने की जरूरत है।
मान्यता समाप्त कर देना कोई विकल्प नहीं है, मदरसे हकीकत
हैं और इसे नकारा नहीं जा सकता है, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में सरकारों का यह कर्तव्य है कि वह देश के सबसे बड़े
अल्पसंख्यक समूह को अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद करें । उनमें जो शिक्षा का अभाव है उसे दूर करने में उनका सहयोग
करें । यह मात्र मदरसों में आधुनिकिकरण कार्यक्रम चलाकर और जो आधुनिकरण ना मानते हो
उन्हें नकार कर हासिल नहीं किया जा सकता है, इसके लिए ज्यादा और ठोस काम करने
होंगें, मुस्लिम बसाहटों में अच्छे स्कूल खोलने होंगें और सबसे ज्यादा जिस बात की
जरूरत है वह यह है कि हुकूमतों को अपने नागरिकों को समुदायों के रूप में देखने की
आदत बदल डालनी होगी और उन्हें सभी को भारत के नागरिक के नजरिये से देखना होगा।
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सन्दर्भ
हंटर, विलियम डब्ल्यू (2007): भारतीय
मुसलमान, प्रकाषन संस्थान,नई
दिल्ली.
इंजीनियर,असग़र अली (2001): इस्लाम वुमेन एंड जैंडर जस्टिस, ज्ञान पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली.
Hartung,Jan-peter, Reifeld, Helmut (Edt.) (2006) : Islamic Education Diversity &
National Identity : Dini Madaris in India Post 9/11, Sage Publications,
New Delhi.
Wasey,Akhtarul(Edt.)(2005):Madrasas in
India:Trying to be Relevant,Global Media Publication, New Delhi.
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