विकल्प की पत्रकारिता को छोड़ अब विलय और विलीन होने की पत्रकारिता का दौर है :- रवीश कुमार
(वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार को पहले कुलदीप नैयर पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किया गया है. सम्मान समारोह में उन्होंने यह वक्तव्य दिया.)
उम्र हो गई है तो सोचा कुछ लिखकर लाते हैं. वरना मूड और मौका कुछ ऐसा ही था कि बिना देखे बोला जाए. ख़ासकर एक ऐसे वक़्त में जब राजनीति तमाम मर्यादाओं को ध्वस्त कर रही है, अपमान के नए-नए मुहावरे गढ़ रही है.
एक ऐसे वक़्त में जब हमारी सहनशीलता कुचली जा रही है ठीक उसी वक़्त में ख़ुद को सम्मानित होते देखना दीवार पर टंगी उस घड़ी की तरफ़ देखना है जो टिक-टिक करती है. टिक-टिक करने वाली घड़ियां ख़त्म हो गई हैं.
इसलिए हमने आहट से वक़्त को पहचानना बंद कर दिया है, इसलिए हमें पता नहीं चलता कि हमारे बगल में कब कौन-सा ख़तरनाक वक़्त आकर बैठ गया है. हम बेपरवाह हो गए हैं.
हमारी संवेदनशीलता ख़त्म होती जा रही है कि वो सुई चुभाते जा रहे हैं और हम उस दर्द को बर्दाश्त करते जा रहे हैं. हम सब आंधियों के उपभोक्ता बन गए हैं, कनज़्यूम करने लगे हैं.
जैसे ही शहर में तूफान की ख़बर आती है. बारिश से गुड़गांव या दिल्ली डूबने लगती है या चेन्नई डूबने लगती है, हम मौसम समाचार देखने लगते हैं. मौसम समाचार पेश करने वाली अपनी शांत और सौम्य आवाज़ से हम सबको धीरे-धीरे आंधियों और तूफान के कन्ज़्यूमर में बदल रही होती है और हम आंधी के गुज़र जाने का बस इंतज़ार कर रहे होते हैं.
अगली सुबह पता चलता है कि सड़क पर आई बाढ़ में एक कार फंसी थी और उसमें बैठे तीन लोग पानी भर जाने से दम तोड़ गए दुनिया से.
वो कभी आपकी जेब की तलाशी लेती है, कभी आपके पन्ने पलटकर देखती है. आप जानते हैं कि आप चोरी नहीं करते हैं लेकिन हर थोड़े-थोड़े समय के बाद उड़न दस्तों की टोली आकर उस दहशत को फिर से फैला जाती है.
आपको लगता है कि अगले पल आपको चोर घोषित कर दिया जाएगा. आपको लगता है कि ऐसा नहीं हो रहा है तो आसपास नज़र उठाकर देखिए कि कितने लोगों को मुक़दमों में फंसाया जा रहा है.
ये वही फ्लाइंग स्क्वाड हैं जो आते हैं आपकी जेब की तलाशी लेते हैं और वे कभी चोर को नहीं पकड़ते लेकिन आपको चोर बनाए जाने का डर आपके भीतर बिठा देते हैं.
तो मुक़दमे, दरोगा, इनकम टैक्स आॅफिसर… ये सब आज कल बहुत सक्रिय हो गए हैं. इनकी भूमिका पहले से कहीं ज़्यादा सक्रिय है और न्यूज़ एंकर हमारे समय का सबसे बड़ा थानेदार है.
वो हर शाम को एक लॉकअप में बदल देता है और जहां विपक्ष, विरोध की आवाज़ या वैकल्पिक आवाज़ उठाने वालों की वो धुलाई करता है उस हाजत (जेल) में बंद करके. अभी तक आप फर्स्ट डिग्री, थर्ड डिग्री, फेक डिग्री में फंसे हुए थे वो आराम से हर शाम थर्ड डिग्री अप्लाई करता है.
आने वाला समाज और इतिहास जब ये आंधी और तूफान गुज़र जाएगा और एंकर को गुंडे और उनकी गुंडई की भाषा और भाषा की गुंडई उस पर लिख रहा होगा तो आप लोग इस शाम के लिए याद किए जाएंगे कि आप लोग एक एंकर का सम्मान कर रहे हैं.
ये शाम इतनी भी बेकार नहीं जाएगी. हां, आप जनादेश नहीं बदल सकते हैं, पर वक़्त का आदेश अगर वो भी है तो ये भी है. शुक्रिया गांधी शांति प्रतिष्ठान का, इस पुरस्कार में पत्रकारों को पसीना है. अपने पेशे की वजह से कुछ भी मिल जाए तो समझिए दुआ कुबूल हुई.
हम सब कुलदीप नैयर साहब का आदर करते रहे हैं. करोड़ों लोगों ने आपको पढ़ा है सर! आपने उस सीमा पर जाकर मोमबत्तियां जलाई हैं जिसके नाम पर इन दिनों रोज़ नफरत फैलाई जा रही है.
इस मुल्क में उस मुल्क नाम इस मुल्क के लोगों को बदनाम करने के लिए लिया जा रहा है. शायद वक़्त रहते गुज़रे ज़माने ने आपकी मोमबत्तियों की अहमियत नहीं समझी होगी. उसकी रोशनी को हम सबने मिलकर थामा होता तो वो रोशनी कुछ लोगों के जुनून का नहीं ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की समझ का उजाला बनती.
शेक्सपीयर के कहानी के नायक के ख़िलाफ़ ये जनादेश आया है आपकी यूपी में. हम रोमियो की आत्मा की शांति के लिए भी प्रार्थना करते हैं. आप सब जीवन में कभी किसी से मोहब्बत की है तो अपनी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कीजिएगा.
उम्मीद करता हूं कि अमेरिका के किसी चुनाव में प्रेमचंद के नायकों के ख़िलाफ़ भी कभी कोई जनादेश आएगा. क्या पता आ भी गया हो. एंटी होरी, एंटी धनिया दल नज़र आएंगे.
अनुपम मिश्र जी हमारे बीच नहीं हैं, हमने इस सच का सामना वैसे ही कर लिया है जैसे समाज ने उनके नहीं होने का सामना उनके रहते ही कर लिया था. काश मैं ये पुरस्कार उनके सामने लेता, उनके हाथों से.
जब भी कहीं कोई साफ़ हवा शरीर को छूती है, कहीं पानी की लहर दिखती है मुझे अनुपम मिश्र याद आते हैं. वे एक ऐसी भाषा बचा कर गए हैं जिसके सहारे हम बहुत कुछ बचा सकते हैं.
हम संभावनाओं का निर्माण नहीं करते हैं. वो कहां बची हुई है, किस-किस में बची है, किस-किस ने बचाई है, उसकी तलाश कर रहे हैं. ऐसे लोगों के भीतर की जो संभावनाएं हैं वो अब मुझे कभी-कभी कातर लगती हैं.
हम कब तक बचे हुए की चिंता में जीने का स्वाद भी भूल रहे हैं, बचाने का हौसला खो दे रहे हैं. अपने अकेले की संभावनाओं को दूसरों से जोड़ के चल… अंतर्विरोधों का रामायण पाठ बहुत हो गया. जिससे मिलता हूं वो किसी न किसी अंतर्विरोध का अध्यापक लगता है.
अगर आप राजनीति में विकल्प खोजना चाहते हैं तो अंतर्विरोधों को सहेजना सीखिए. बहुतों को उनके समझौतों ने और अधमरा कर दिया है. आज जो भी समय है उसे लाने में उनकी भी भूमिका है, जिनके पास बीते समय में कुछ करने की जवाबदेही थी.
उन लोगों ने धोख़ा दिया. बीते समय में लोग संस्थानों में घुसकर उन्हें खोखला करने लगे. चंद मिसालों को छोड़ दें तो घुन का प्रवेश उनके दौर में शुरू हुआ. विकल्प की बात करने वालों का समाज से संवाद समाप्त हुआ.
समाज भी बदलाव के सिर्फ़ एक ही एजेंट को पहचानता है, राजनीतिक दल. बाकी एजेंटों पर भी राजनीति ने कब्ज़ा कर लिया है. इसलिए राजनीति से भागने का अब कोई मतलब नहीं. अगर कोई एक साल के काम को सौ साल में करना चाहता है तो अलग बात है.
आप सभी के राजनीतिक दलों को छोड़कर बाहर आने से राजनीतिक दलों का ज़्यादा पतन हुआ है. वहां परिवारवाद हावी हुआ, कॉरपोरेट हावी हुआ. सांप्रदायिकता से डरने की शक्ति न पहले थी और न अब है.
ये उनके लिए अफ़सोस हम क्यों कर रहे हैं? अगर ख़ुद के लिए है तो सभी को ये चुनौती स्वीकार करनी चाहिए. मैंने राजनीति को कभी अपना रास्ता नहीं माना लेकिन जो लोग इस रास्ते पर आते हैं उनसे यही कहता हूं, राजनीतिक दलों की तरफ़ लौटिए, इधर-उधर मत भागिए.
सेमिनारों और सम्मेलनों से बाहर निकलने का वक़्त आ गया है. वे अकादमिक विमर्श की जगहें हैं, ज़रूरी जगहें हैं लेकिन राजनीतिक विकल्प की नहीं हैं. राजनीतिक दलों में फिर से प्रवेश का आंदोलन करना पड़ेगा. फिर से उन दलों की तरफ लौटिए और संगठनों पर कब्ज़ा कीजिए. वहां जो नेता बैठे हैं वे नेतृत्व के लायक नहीं हैं उन्हें हटा दीजिए.
ये डरपोक लोग हैं… बेईमानी से भर चुके लोग हैं… उनके बस की बात नहीं है. उनकी कायरता, उनके समझौते समाज को दिन-रात तोड़ने का काम कर रहे हैं. एक छोटी से चिंगारी आती है उनके समझौतों के कारण सब कुछ जलाकर चली जाती है.
हम सब के पास अब भी इतना मानव संसाधन बचा हुआ है और इस कमरे में जितने भी लोग हैं वे भी काफी हैं कि हम राजनीति को बेहतर बना सकते हैं.
पत्रकारिता के लिए पुरस्कार मिल रहा है. उस पर भी चंद बात कहना चाह रहा हूं.
मीडिया को बहुत भूख लगी हुई है. विकल्प की पत्रकारिता को छोड़ अब विलय और विलीन होने की पत्रकारिता का दौर है. सत्तारूढ़ दल की विचारधारा उस विराट के समान है जिसके सामने ख़ुद को बौना पाकर पत्रकार समझ रहा है कि वो भगवान कृष्ण के मुख के सामने खड़ा है.
भारत की पत्रकारिता या पत्रकारिता संस्थान इस वक़्त अपनी प्रसन्नता के स्वर्ण काल में भी हैं. आपको यकीन न हो तो कोई भी अख़बार या कोई भी न्यूज़ चैनल देखिए. आपको वहां उत्साह और उल्लास नज़र आएगा. उनकी ख़ुशी पर झूमिए तो अपनी तकलीफ़ कम नज़र आएगी.
सूटेड-बूटेड एंकर अपनी आज़ादी गंवाकर इतना हैंडसम कभी नहीं लगे. एंकर सरकार की तरफदारी में इतनी हसीन कभी नहीं लगीं. न्यूज़ रूम रिपोर्टरों से ख़ाली हैं.
एंकर पार्टी प्रवक्ता में ढलने और बदलने के लिए अभिशप्त हैं. वे पत्रकार नहीं हैं, सरकार के सेल्समैन हैं. जब भी जनादेश आता है पत्रकारों को क्यों लगता है कि उनके ख़िलाफ़ आया है. क्या वे भी चुनाव लड़ रहे थे? क्या जनादेश से पत्रकारिता को प्रभावित होने की ज़रूरत है?
मगर कई पत्रकार इसी दिल्ली में कनफ्यूज़ घूम रहे हैं कि यूपी के बाद अब क्या करें? आप बिहार के बाद क्या कर रहे थे? आप सतहत्तर के बाद क्या कर रहे थे? आप सतहत्तर के पहले क्या कर रहे थे? 1947 के पहले क्या कर रहे थे और 2025 के बाद क्या करेंगे?
इसका मतलब है कि पत्रकार अब पत्रकारिता को लेकर बिल्कुल चिंतित नहीं है. इसलिए काम न करने की तमाम तकलीफ़ों से आज़ाद आज के पत्रकारों की ख़ुशी आप नहीं समझ सकते, आपके बस की बात नहीं है.
आप पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं. जाकर देखिए वे कितने प्रसन्न हैं, कितने आज़ाद महसूस कर रहे हैं किसी श्मशान, किसी राजनीतिक दल और सरकार में विलीन होकर. उनकी ख़ुशी का कोई ठिकाना आप नाप नहीं सकते.
अगर आपको लड़ना है तो अख़बार और टीवी से लड़ने की तैयारी शुरू कर दीजिए. पत्रकारिता को बचाने की मोह में फंसे रहने की ज़िद छोड़ दीजिए. पत्रकार नहीं बचना चाहता. जो थोड़े-बहुत बचे हुए हैं उनका बचे रहना बहुत ज़रूरी नहीं.
उन्हें बेदख़ल करना बहुत मुश्किल भी नहीं है. मालूम नहीं कि कब हटा दिया जाऊं. राह चलते समाज को बताइए कि इसके क्या ख़तरे हैं. न्यूज़ चैनल और अख़बार राजनीतिक दल की नई शाखाएं हैं.
एंकर किसी राजनीतिक दल में उसके महासचिव से ज़्यादा प्रभावशाली है. राजनीतिक दल बनने के लिए बनाने के लिए भी आपको इन नए राजनीतिक दलों से लड़ना पड़ेगा. नहीं लड़ सकते तो कोई बात नहीं. जनता की भी ऐसी ट्रेनिंग हो चुकी है कि लोग पूछने आ जाते हैं कि आप ऐसे सवाल आप क्यों पूछते हैं?
स्याही फेंकने वाले प्रवक्ता बन रहे हैं और स्याही से लिखने वाले प्रोपेगेंडा कर रहे हैं. ये भारतीय पत्रकारिता को प्रोपेगेंडा काल है. मगर इसी वर्तमान में हम उन पत्रकारों को कैसे भूल सकते हैं जो संभावनाओं को बचाने में जहां-तहां लगे हुए हैं.
मैं उनका अकेलापन समझ सकता हूं. मैं उनका अकेलापन बांट भी सकता हूं. भले ही उनकी संभावनाएं समाप्त हो जाएं लेकिन आने वाले वक़्त में ऐसे पत्रकार दूसरों के लिए बड़ा उपकार कर रहे हैं.
आप उन लोगों से इस तकलीफ के बारे में पूछिए जो आज भी न्यूज़ रूम में हैं और टेलीविजन के न्यूज़ एंकर को आज भी रोज़ दस चिट्ठियां आती हैं. हाथ से लिखी हुई आती हैं. उनकी ख़बरें जब नहीं होती होंगी तो वे किस तकलीफ से गुज़रते होंगे और कहां-कहां लिखते होंगे.
ये समाज पत्रकारों को गाली दे रहा है, ऐसे लोगों की तकलीफ को और बढ़ा रहा है. वे अपने ही हिस्से में जो बेचैन हैं उनकी बेचैनियों को उनकी बेचैनियों के साथ उन्हें मार देने की योजना में वो शामिल हो रहा है.
…तो कई बार समाज भी ख़तरनाक हो जाता है.
बहरहाल जो भी पत्रकारिता कर रहा है, जितनी भी कर रहा है, उसके प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूं. जब भी सत्ता की चाटुकारिता से ऊबे हुए या धोख़ा खाए पत्रकारों की नींद टूटेगी और जब वे इस्तेमाल के बाद फेंक दिए जाएंगे उन्हें ऐसे ही लोग आत्महत्या से बचाएंगे.
तब उन्हें लगेगा कि ये वो कर गया है ये मुझे भी करना चाहिए. इसी से मैं बचूंगा. इसलिए जितना हो सकता है संभावनाओं को बचा कर रखिए. अपने समय को उम्मीद और हताशा के चश्मे से मत देखिए.
हम उस पटरी पर है जिस पर रेलगाड़ी का इंजन बिल्कुल सामने है. उम्मीद और हताशा के सहारे आप बच नहीं सकते. उम्मीद ये है कि रेलगाड़ी मुझे नहीं कुचलेगी और हताशा ये है कि अब तो ये मुझे कुचल ही देगी. वक़्त बहुत कम है और इसकी रफ्तार बहुत तेज़ है.
आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया.
No comments: