योगिक मैडनेस
अगर
आदित्यनाथ को सीएम बनाना जनमत का सही आकलन नहीं है तो भी हम गंभीर संकट में हैं।
इससे लोकतंत्र की सीमाएं उजागर होती हैं और पता चलता है कि ये कैसे केवल खंडहर
बनकर भर रह सकता है।
प्रताप भानु मेहता
उत्तर प्रदेश में योगी
आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया जाना एक घृणित और अमंगलसूचक कदम है। घृणित इसलिए
क्योंकि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने एक ऐसे आदमी को सीएम चुना है जिसे यूपी की
राजनीति में व्यापक तौर पर विभाजनकारी, गालीगलौज करने वाले सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने वाले
शख्सियत के तौर पर जाना जाता है। वो एक ऐसे नेता हैं जिन्हें अपने राजनीतिक जीवन
में उग्र हिंदू सांप्रदायिकता, प्रतिक्रियावादी
विचारों और राजनीतिक विमर्शों में नियमित टकराव और ठगी का चेहरा माना जाता रहा है।
वो एक ऐसे इको-सिस्टम का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसमें हिंसा की सबसे निकृष्ट बचाव
ज्यादा दूर नहीं रहता।
अमंगलकारी इसलिए क्योंकि इससे सीधा संकेत गया है कि यूपी और
अन्यत्र जगहों पर पहले ही हाशिए पर रह रहे अल्पसंख्यकों को अब सांस्कृतिक, सामाजिक और प्रतीकात्मक समर्पण की तरफ बढ़ाया जाएगा। इसका
सीधा संकेत है कि भाजपा अब अतिवाद से प्रभुत्व कायम करेगी। उसकी राजनीति आशा के बजाय विद्वेष से, बहुलता के
बजाय सामूहिक अहमन्यता से, मेल-मिलाप
के बजाय नफरत से और सौम्यता के बजाय हिंसा से अपना वर्चस्व कायम करेगी। भाजपा का
घमंड अब जड़ जमा चुका है। उसे लगता है कि वो जो चाहे वो कर सकती है और अब वो अपने
मंसूबे पूरा करना चाहती
है।
भारतीय प्रधानमंत्री को चुनाव नतीजों ने अभूतपूर्व बहुमत
दिया था। ये सच है कि हमारे जैसे बहुत से लोग जिन्होंने ऐसे नतीजों का अनुमान नहीं
किया था वो समझ नहीं पा रहे हैं कि ये बहुमत किस चीज का प्रतिनिधत्व करता है। हम
इतना ही जानते हैं कि आम जनता ने मोदी पर उनके प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले बहुत
ज्यादा भरोसा किया है। उन्हें आगे बढ़कर नेतृत्व करने का श्रेय मिला है। लेकिन
उन्होंने इस जनमत का ये मतलब निकाला कि उनकी पार्टी को अपने सबसे कुत्सित मंसूबे
पूरा करने का अधिकार और लाइसेंस मिल गया है। आदित्यनाथ का सीएम के रूप में चयन
केवल यूपी के लिए संदेश नहीं है, ये
संदेश है प्रधानमंत्री के झुकाव और फैसले का। अपने राजनीतिक विजय के क्षण में
उन्होंने भारत को पराजित करने का फैसला लिया।
भाजपा के समर्थक इस चयन के बचाव के लिए पार्टी के अंदरूनी
लोकतंत्र के मुखौटे के पीछे छिप रहे हैं। हाँ, ये सच है कि आदित्यनाथ के चयन के पीछे विधायक दल की सहमति
की औपचारिक मुहर है। मोदी की शक्ति को देखते हुए ये तर्क गले नहीं उतरता। अगर
आदित्यनाथ इतने ही लोकप्रिय विकल्प थेे तो चुनाव से पहले उन्हें सीएम उम्मीदवार
क्यों नहीं घोषित किया गया? अगर सीएम
उम्मीदवार के तौर पर उनके पूरे प्रदेश में स्वीकार्य होने को लेकर सुब्हा था तो
बहुमत मिल जाने से वो स्वीकार्य नहीं हो जाते। तो इसका एक ही निष्कर्ष है, ये ‘एक तरह” दोमुंहापन है। “एक तरह” का
इसलिए क्योंकि प्रधानमंत्री के भाषणों और भाजपा के घोषणापत्र में उसकी वैचारिक
तरंगे साफ दिख रही थीं।
आदित्यनाथ को चयन को जायज
ठहराने वाला कोई भी तर्क इस देश को बीमार बनाएगा। अगर इस जनमत का मतलब यही है कि
विधायकों ने आदित्यनाथ को चुना है तो समझ लीजिए की भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद में
दीमक लग चुकी है। यानी ये कहा जा सकता है कि भारत इस कदर सांप्रदायिक हो चुका है
कि आदित्यनाथ जैसा सांप्रदायिक व्यक्ति लोकप्रिय चयन है। ऐसे में हमें लोकतांत्रिक
आशावाद के अवशेषों का भी त्याग कर देना चाहिए कि जनता भले ही गलती से भूलवश किसी
गलत आदमी को चुन ले, कुछेक मौकों
पर किसी अपराध के लिए माफ कर दे लेकिन वो इसके बुनियादी मूल्यों को पूरी तरह नष्ट
करने वालों को वोट नहीं देगी।
भारतीय लोकतंत्र में आम नागरिक की भूमिका देखते हुए
मनुष्यविरोधी होने से अपने आप को रोकना काफी कठिन है। प्रभुवर्ग के कई लोग खुद से
हारते हुए इसके शिकार हो चुके हैं। ये लोकतांत्रिक सम्मान ही जिसकी वजह से हमने
राजनीतिक बुराइयों को वैधानिकता मिलने की संभावना को हमने कम करके आंका। लोकतांत्रिक मूल्यों में यकीन रखते हुए लोकतांत्रिक जनमत का
खिलाफ होना आसानी राजनीतिक कदम नहीं है। अगर आदित्यनाथ लोकप्रिय चयन है तो भारतीय
लोकतंत्र का संकट और गहरा गया है। ऐसा लगने लगा है कि कट्टरपंथियों और लोकतांत्रिक
मनुष्टविरोधीयों के बीच होड़ चल रही है। ये दोनों ही विचार लोकतंत्र के लिए खतरनाक
हैं।
दूसरी तरफ अगर आदित्यनाथ को सीएम बनाना जनमत का सही आकलन नहीं
है तो भी हम गंभीर संकट में हैं। इससे लोकतंत्र की सीमाएं उजागर होती हैं और पता
चलता है कि ये कैसे केवल खंडहर भर बनकर रह सकता है। किसी भी हाल में जब तक भारत
में कोई नया सृजनात्मक वैचारिक पुनरुत्पादन न हो जाए भारत एक ऐसा लोकतंत्र होगा जो
सत्ता के नशे में चूर होगा।
“हर संत का एक अतीत होता है और पापी का एक भविष्य”, इस उक्ति का भारतीय राजनीति में बड़े राजनीतिक अपराधों को
माफ करने के लिए अक्सर प्रयोग किया जाता है। और ये कहा जाना चाहिए कि इसका प्रयोग
राजीव गांधी से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री तक के लिए किया जाता रहा है जिसकी वजह से
वो कई राजनीतिक जवाबदेहियों से
बच गए। लेकिन भारतीय लोकतंत्र की स्याह गुफाओं में भी पापियों को खुद को बदलने का
मुखौटा लगाना पड़ता है। उन्हें ये जाहिर करना पड़ता है कि वो केवल दागी नहीं है
कुछ और भी हैं। आदित्यनाथ के राजनीतिक करियर में जो बात सबसे स्तब्ध करने वाली है
वो ये है कि आज तक उन्होंने आज तक इस बात का रत्तीभर संकेत नहीं दिया कि वो किसी
बड़े विचार, सभ्यता के बारे में
बोलने की जरूरत समझते हैं। वो लोगों में डर पैदा करने और हिंसा को जायज ठहराने से
दूरी बनाने का संकेत कभी नहीं देेते। अगर आपको लगता है कि राजनीति का गोरखपुर मॉडल
विकास का अगुआ है तो ये केवल और केवल नफरत और विद्वेष के अवेशषों के कारण है।
आदित्यनाथ के इस दावे में दम है कि भाजपा जाति से ऊपर की
राजनीति कर रही है। खासकर जाति से ऊपर उठने के परंपरागत अर्थों में। लेकिन इससे हम
इस असहज कर देने वाले नतीजे पर पहुंचे हैं कि “जाति से ऊपर उठने” की ये गोलबंदी कहीं ज्यादा घातक “सांप्रदायिक राजनीति” का भरोसा करती है। इस वक्त की राजनीतिक चुनौतियों बहुत बड़ी
हैं। मोदी के सत्ता में आने से बहुत से दुष्ट चरित्रों को शक्ति मिल गयी है। अब
भारत के सबसे बड़े प्रदेश में उन्हें सत्ता की कमान मिल गयी है। उन्हें ये इसके भी
पूरे संकेत मिल गए हैं कि उन्हें राज्य को अपने प्रतिरूप में बदलना है।
इसकी सीधी परिणीति राम मंदिर के मुद्दे को आगे बढ़ाने के
रूप में होगी। ऐसा लग नहीं रहा है कि भाजपा के निर्विवाद प्रभुत्व के सामने
विपक्षी दल खड़े हो पाएंगे और इससे स्थिति और खराब होती है। भारतीय लोकतंत्र के
सेफ्टी वाल्व धीरे-धीरे बंद हो रहे हैं। हमें नहीं पता कि इस दमघोंटू वातावरण के
क्या राजनीतिक नतीजे होंगे। वैश्विक राजनीति में भारत के दुश्मन इस समय बहुत खुश
हो रहे होंगे। जब हमें एक समझदार नीति की जरूरत थी तो हमने अपने अंदर को सबसे बड़ी
बुराई को ताकतवर बना दिया।
नाथों की अलग आध्यात्मिक परंपरा रही है। लेकिन उग्र नाथ
योगियों का राजनीतिक इतिहास विखंडनकारी रहा है। नाथों को औरंगजेब तक ने संरक्षण
दिया था। वो मेरे गृहनगर जोधपुर में काफी प्रभावी रहे हैं। 19वीं सदी के राजा मानसिंह उनके शिष्य थे। वो अपनी रियासत को
नाथों को “अर्पण” बताते थे। राजा मान सिंह प्रतिभाशाली थे। वो खुद को कवि, राजा और योगी मानते थे। कमी बस ये थी कि वो आत्ममुग्ध आदर्श
राजा नहीं थे। उन्हें अक्सर पागलपन के दौरे पड़ते थे। वो पैरानॉयड थे। उनके पास
शक्ति थी लेकिन वो उस पर काबू नहीं रख पाए। अब एक बार फिर राजनीति नाथों को “अर्पण” हो
गयी है। पागलपन अब ज्यादा दूर नहीं होगा।
(ये लेख इंडियन एक्सप्रेस अखबार में “योगिक मैडनेस” शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। लेखक सीपीआर
दिल्ली के प्रेसिडेंट और इंडियन एक्सप्रेस के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं।)
साभार - जनसत्ता
No comments: