मुस्लिमों की मुश्किलें बढ़ा दीं तबलीगियों ने
सबा नकवी
लेखक युवल नोह
हरारी ने अपनी सबसे ज्यादा बिकने वाली किताब ‘21वीं सदी के लिए 21 सबक’ में दलील देते हुए कहा है कि होमोसेपियन्स (आधुनिक मानव) ‘सत्य युग’ के बाद वाली वह
प्रजाति है, जो पहले गल्प
गढ़ती है और फिर उस पर यकीन करने से खुद को ऊर्जा मिलती महसूस करती है। हरारी का
कहना है ः ‘पृथ्वी पर मनुष्य
एकमात्र ऐसा जीवित प्राणी है जो गल्प कथाएं पैदा करता है और लाखों-करोड़ों लोग उस
पर यकीन करने भी लगते हैं। मजेदार बात यह कि जब हजारों लोग एक गढ़ी गई कहानी पर
यकीन करने लगते हैं, लेकिन असलियत
सामने आने पर हम उसे झूठी खबर (फेक न्यूज़) कहते हैं, वहीं जब करोड़ों
लोग किसी एक गल्प पर सैकड़ों-हजारों सालों से यकीन करते आ रहे हों, तो यथार्थ जानने
के बावजूद उसे हम ‘धर्म’ कहकर मान्यता
देते रहते हैं।’ उन्होंने आगे कहा
कि ‘‘धर्म’ भले ही करोड़ों
मनुष्यों को सांत्वना दे सकता हो, यही वास्तव में उसका काम है, लेकिन जब वास्तविकता के सोपान पर ‘धर्म’ और ‘असत्य खबर’ को समकक्ष रखा
जाए, तो वही लोग नाराज
हो जाएंगे।’
वर्ष 1927 में वर्तमान
हरियाणा के मेवात क्षेत्र में तबलीगी जमात की स्थापना हुई थी और यह इस्लाम के
सुन्नी संप्रदाय के लिए 20वीं सदी की सबसे
ताकतवर सुधारक लहर बनकर उभरी थी, विश्वभर में लाखों लोग अनुयायी बन गए थे। संक्षेप में बताएं
तो तबलीगियों ने अपने मिशन में दुनियाभर में घूम-घूमकर प्रचार करने को महत्व दिया, एक बार जिस देश
में वे पहंुचे तो उसकी सीमाओं में पड़ते सभी इलाकों तक पहंुच की और फिर एक के बाद
एक मुल्कों में वह प्रचार करने में लगे, जो उनके मुताबिक ‘इस्लाम पर अंतिम दर्शन’ है। इनका मकसद है, लगातार देशाटन करना और समागम करते रहना ताकि अपने जैसे और
आस्थावान तैयार किए जा सकें, वह भी धर्म के शुद्धतावादी रास्ते पर चलें।
अब यह साफ हो
चुका है कि दिल्ली स्थित तबलीगी जमात के मुख्यालय में मार्च के महीने में जो
धार्मिक समागम हुआ था वह भारत में कोरोना वायरस के फैलाव में सबसे बड़ा कारक सिद्ध
हुआ है। यहां गौरतलब है कि तबलीगी जो दूसरों को यह बताते नहीं अघाते कि जिंदगी को
कैसे जिया जाए, वे खुद ज्ञान-विज्ञान, आधुनिकता या फिर
सामान्य सामाजिक सरोकारों के विषयों पर किस कदर पैदल हैं। मीडिया की खबरें बताती
हैं कि तबलीगी जमात के मुखिया मौलाना साद ने अपने अनुयायियों को कहा कि उन्हें
डॉक्टरों की हिदायत पर अमल करते हुए सामाजिक दूरी बनाने की कोई जरूरत नहीं हैं क्योंकि
वे लोग इसी बहाने समागम से पैदा होने वाली ऊर्जा को बिखेरने पर आमादा हैं। मौलाना
साद का यह कथन किसी भी तरह अमेरिका के पेंटाकॉस्टल चर्च के पादरी के आख्यान से
जुदा नहीं है, जब उसने भी
गिरजाघर में इकट्ठा हुए लोगों से कहा था कि कोरोना वायरस एक अफवाह मात्र है, और केवल ईश्वर
में भरोसा ही उनको बचा सकता है। भारत में कोरोना के फैलाव में तबलीगियों की भूमिका
इसलिए इतनी बड़ी बन गई है कि उन्होंने दिल्ली स्थित अपने मुख्यालय पर ऐसे लोगों को
भी बुलाया, जिनकी यात्रा
इतिहास के बारे में उन्हें भली-भांति था कि ये उन देशों में विचरते रहे हैं, जहां कोरोना
संक्रमण ने भारत से पहले कोहराम मचा रखा है। हमारे देश के अलावा इन तबलीगियों की
वजह से मलेशिया और पाकिस्तान में भी कोरोना वायरस खासा फैला है।
दुनिया के कई
अन्य शुद्धतावादी धार्मिक समूहों की भांति तबलीगी भी इस सिद्धांत पर यकीन करते हैं
कि हम लोग अन्यों से बेहतर और खास लोग हैं, जबकि ज्यादातर मनुष्य (जिसमें अनेक मुस्लिम भी हैं) एक
अनजानी जिंदगी जी रहे हैं और झूठी मान्यताओं पर यकीन रखे हुए हैं। तबलीगी आसानी से
पहचानी जा सकने वाली विशिष्ट वेषभूषा पहनते और दाढ़ी रखते हैं क्योंकि उनका यकीन
है कि यह स्वरूप ठीक वैसा है जैसा हजरत मोहम्मद के समय पर था। वे अपनी इस मान्यता
पर यकीन करते हुए कि हजरत मोहम्मद ने कहा था ः ‘कपड़ा ऐसा पहनिए जो जमीन से न रगड़ता हो’, लिहाजा वे
एड़ियों से ऊंचा पायजामा पहनते हैं।
हालांकि
तबलीगियों की अच्छी बात यह है कि वे ‘आंतरिक शुद्धता’ का प्रचार करते हैं और यह भी कि जिंदगी को सादे ढंग से जीया
जाए। अलबत्ता उनके अनुसार औरत पूरी तरह पर्दानशीं होकर तबलीगी प्रचार में मर्दों
के साथ हिस्सा ले सकती हैं। लेकिन दुनिया के बाकी इस्लामिक समूहों की भांति यह पंथ
भी ज्यादातर पुरुष प्रधान भाईचारा है। तबलीगियों को राजनीति से दूर रहना होता है।
लोगों का धर्मांतरण करने पर भी तबलीगी यकीन नहीं रखते, अलबत्ता अपने
तरीकों से मुस्लिमों को यह दिखाना चाहते हैं कि एक ‘नेक मुसलमान’ कैसे बना जाए।
भारतीय
उपमहाद्वीप के परिदृश्य में तबलीगी-सिद्धांत कालांतर में सूफियों द्वारा अपनाई रीत
से एकदम विपरीत ध्रुव पर है। इन सूफियों में सबसे ज्यादा मशहूर दिल्ली के
निजामुद्दीन औलिया हुए हैं,
जो 13-14वीं शताब्दी के
संत थे, जिनकी बख्शी
नेमतों में नई किस्म का भक्ति संगीत (कव्वाली), कविता-कलाम और भाषा का जन्म हुआ था। जिन लोगों को औलिया
साहिब की सलाहियतों का इल्म है उनके लिए यह दोहरा दुर्भाग्य है कि तबलीगियों का
वर्णन करते समय ‘निजामुद्दीन’ शब्द साथ जुड़
रहा है। यह सिर्फ इसलिए क्योंकि उनका मुख्यालय (मरकज़) दिल्ली के निजामुद्दीन
इलाके में स्थित है, जिसका नामकरण
चिश्ती घराने के महान सूफी हज़रत निजामुद्दीन को अकीदा पेश करने के लिए किया गया
है।
कोरोना वायरस के
फैलाव में तबलीगियों की भूमिका को लेकर पैदा हुए गुस्से भरे माहौल में हमें यह
नहीं भूलना है कि यह सूफीवाद ही था जो भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम के फैलाव में
सबसे ज्यादा सहायक हुआ था। सूफियों ने अनेकानेक स्थानीय परंपराओं को अपने पंथ में
समाहित किया था और कोई कितनी भी कल्पना कर ले लेकिन वे रूहानी शख्सियतें
शुद्धतावादी होने से कोसों दूर थीं। वह ऐसे उदारवादी थे, जिन्होंने खुद को
भारतीय त्योहारों के रंगों और संगीत से सराबोर करते हुए उभयनिष्ठ रब्बी प्यार, आस्था और समानता
की खोज की थी। तबलीगियों के प्रयासों का एक अंग इस्लाम को उन रीतियों से रहित कर ‘शुद्ध’ करना है, जो सूफी-संतों की
दरगाहों पर खासी लोकप्रिय हैं और वास्तव में भारतीय संस्कृति का द्योतक भी हैं।
तबलीगियों के मिजाज़ में कव्वाली का कोई स्थान नहीं है, न ही अनेकवाद के
लिए जगह है और मिश्रित रिवायतों या संस्कृति के लिए भी नहीं।
नि:संदेह विश्वभर
में आस्थावानों के समूह और धार्मिक समागम इस संक्रमण के फैलाव में सबसे बड़े कारक
सिद्ध हुए हैं। लेकिन भारत में तबलीगियों के कारण फैली संक्रमण-कड़ी का खमियाजा इस
देश में बसने वाली विश्व की तीसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी के लिए बहुत नुकसानदायक
सिद्ध हो सकता है, क्योंकि अधिकांश
मुसलमान अनियोजित क्षेत्र में काम करते हैं। वे भी लॉकडाउन से रोजगार पर पड़ी मार
से पहले से ही त्रस्त हैं। कुछ लोगों ने अपनी बेवकूफियों से पहले से घोषित दुश्मन
का ठप्पा झेल रहे एक संप्रदाय के लिए पूर्व के मुकाबले ज्यादा मुसीबतें बढ़ा दी
हैं। इस वस्तुस्थिति में टेलीविजन चैनलों के पैनल पर लगातार पेश होने वाले
कठमुल्लों की जाहिलाना या भड़काऊ बयानबाजी से मदद नहीं मिलने वाली।
लेखिका वरिष्ठ
पत्रकार हैं
साभार - दैनिक ट्रिब्यून
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