‘कोई कही भी, कभी भी अल्पसंख्यक हो सकता है’

( जिन्दगी मे कभी-कभी ऐसे मोड़ भी आते है कि जिन्दगी का रास्ता ही बदल जाता है , साथी उपासना की जिन्दगी का ऐसा वाकया जिसने उनकी जिन्दगी को एक नया मोड़ दिया ....यहा हम उनके ही शब्दों मे उनका अनुभव आप सभी के साथ साँझा कर रहे है. युवा संवाद की आप  सभी साथियो से गुजारिस है कि आप भी अपना ऐसा कोई अनुभव युवा संवाद के ई-मेल पर भेज सकते है, ताकि उसे सभी  के  साथ साँझा किया जा सके.  )

 ‘कोई कही भी, कभी भी अल्पसंख्यक हो सकता है
भीड़ 

जिंदगी अपनी रफ्तार से चलती रहती है,लेकिन कुछ वाकये दिल-दिमाग पर इतनी गहरी छाप छोड़ते हैं कि  वे हमेशा याद रहते हैं।  मेरी जिंदगी का वह वाकया भी मेरी नजरों के सामने अक्सर  तैर जाता है जब मैं बहुसंख्यक समुदाय की होने के बावजूद अल्पसंख्यक हो गई थी। सांप्रदायिक तनाव के माहौल में अल्पसंख्यक होना कैसे आपको भय,असुरक्षा और अविश्वास से भर देता है, यह मैने तभी जाना था। तभी से मैने निश्चय किया कि मै सभी वर्गो की समानता के लिए काम करुंगी। 

यह वाक्या 2004 का है। एक इंटर्नशिप  के लिए मैने ‘नेशनल सेंटर फॅार एडवोकेसी स्टड़ी’, पुणे में दाखिला लिया। इंटर्नशिप के दौरान ही मुझे 6 महीने के लिए हैदराबाद स्थित एक गैरसरकारी संगठन ‘कोवा’ में काम करने का मौका मिला। ‘कोवा’ संस्था हैदराबाद में सामाजिक सरोकारों के लिए काम करती है। उनका ऑफिस मुस्लिम बहुल इलाके चारमीनार में मक्का मस्जिद के बिलकुल करीब है। ‘कोवा’ संस्था की ओर से मेरे रहने का इंतजाम उसी इलाके में एक हिन्दू परिवार के साथ किया गया था। 

अभी वहां मुझे काम करते हुए कुछ ही अरसा हुआ था कि एक रात गुजरात के एक राजनेता की हत्या के आरोप में गुजरात पुलिस बिना हैदराबाद पुलिस की इजाजत के कुछ मुस्लिम युवाओं को गिरफ्तार करके ले गई। इस घटना ने पूरे इलाके में सनसनी फैल गई। स्थानीय लोगों के तीखे विरोध के चलते पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई। इससे माहौल ओर गरमा गया। जिस परिवार के साथ मैं रहती थी वहां सिर्फ तेलुगु अखबार आता था, इसलिए घटना की पूरी पूरी जानकारी मुझे नहीं मिल पाई।

जब मैं ऑफिस जाने के लिए घर से निकली तो पुलिस बल की भारी मौजुदगी,बंद दुकानें और सुनसान सड़कें देखकर मेरी जान सूख गई। मै तेज कदम बढ़ाते हुए चार मीनार बस स्टैड़ पहुंची। बसों और मुसाफिरों की गहमागहमी से गुलजार रहने वाला यह बस स्टैड़ आज वीरान पड़ा था। यहां न बसें थी न उसका इंतजार करते लोग। जैसे तैसे ऑफिस पहुंचने पर मुझे पूरा सूरते हाल समझ में आया।

उस दिन शुक्रवार था। मक्का मस्जिद के आसपास भारी पुलिस बल तैनात था । लोग धीरे-धीरे नमाज के लिए इकटठा होने लगे। जैसे ही नमाज खत्म हुई  लोगों ने गुजरात पुलिस के खिलाफ नारे लगाते हुए पथराव शुरु कर दिया। देखते ही देखते अफरा तफरी मच गई। पुलिस की सख्ती ने लोगों को ओर भड़का दिया। माहौल बिगड़ चुका था और मुझे बहुत डर लग रहा था। 

हमारे बॉस ने ऑफिस में मौजूद सभी लोगों को बुलाया और कहा कि संस्था के पुरुष कर्मचारी पहले गुस्साई भीड़ से बात करेगें, अगर भीड़ नही मानती तो फिर महिला कर्मचारी उनके  सामने जा कर एक श्रृंखला बनायंगी और उन्हें आगे बढ़ने से रोकेंगी,महिलाओं को देखकर लोग जरुर हट जायेगें। पुरुष कर्मचारी भीड़ को समझाने गए और महिला कर्मचारी छत पर चढ़ कर स्थिति का जायजा लेने लगी। हम सभी लोग बहुत घबराये हुए थे। गुस्साए लोगों को समझाने में हमारे दो साथी घायल हो गए। बड़ी मुशकिल से भीड़ छंटी। हमें लगा कि चलो, अब स्थिति कुछ संभलने लगेगी।

लेकिन रात को एक बार फिर तनाव बढ़ने लगा। सैकड़ों की संख्या में लोग मस्जिद के पास इकटठे हो गए। आक्रोषित भीड़ ने तेज पथराव के साथ ही नारेबाजी शुरु कर दी। रात के सन्नाटे में दो ही आवाजें आ रही थी, एक पुलिस के सायरन की और दूसरी भीड़ द्वारा की जा रही नारेबाजी की। मै उस रात खुद को बहुत असुरिक्षत,डरा हुआ और असहाय महसूस कर रही थी। मै चूंकि मुस्लिम बहुल इलाके में रहती थी, इसलिए मेरे सहकर्मी काफी चिंतित थे, उन्होनें मुझे फोन पर ढ़ाढस बंधाया। बहुसंख्यक समाज की होने के बावजूद हालात ने मुझे अल्पसंख्यक बना दिया था। मैं सारी रात यही सोचती रही कि बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक होना महज आंकड़ों का खेल है, कोई कहीं भी और कभी भी अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक हो सकता है।

इस वाकये ने मेरी सोच,काम तथा जिंदगी का रुख बदल दिया। उसी दिन मैने सांप्रदायिकता,असमानता और संकीर्णता के खिलाफ काम करने का निश्चय  किया। 
उस निश्चय से शुरु हुई मेरी यात्रा आज भी जारी है। 
- उपासना बेहार  

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