वैश्वीकरण: चुनौतियां एवं विकल्प


                                  -प्रदीप सिंह 
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ब हम किसी परिघटना कि व्याख्या करते है तो सबसे पहले यही प्रश्न खड़ा होता है कि कहाँ से शरू  करें ? मसला अगर वैश्वीकरण की व्यापक और जटिल परिघटना की व्याख्या का हो तो यह समस्या और बढ़ जाती है। वैश्वीकरण जिसे हम भूमंडलीकरण,जगतीकरण आदि नामों से भी जानते हैं, आखिर इस प्रत्यय का अर्थ क्या है? सवाल यह भी है कि किस चीज  का वैश्वीकरण हो रहा है और किसका नहीं

अक्सर जब इस विषय पर चर्चा होती है तो यही दो बातें सामने आती हैं या तो आप इसके पक्ष में हैं या विपक्ष में। वैश्वीकरण पक्ष-विपक्ष अब हमारे सामूहिक सहजबोध का हिस्सा बन गया है। वैश्वीकरण का यह सहजबोध हमारे जीवन में इस कदर रच बस गया है कि सभी समझते हैं कि हम इसे पहले से समझते है। 
समाज में होने वाली प्रत्येक सामाजिक घटना के लिए वैश्वीकरण को जिम्मेदार ठहराने कि प्रवृत्ति भी आम हो गई है। अक्सर हमारे देश  में होने वाले दलितों, महिलाओं के उत्पीड़न तथा साम्प्रदायिक नरसंहार के लिए भी वैश्वीकरण को दोशी  ठहराया जाता है। 

यह बात तो सही है कि वैश्वीकरण के तहत चल रही आर्थिक एवं सांस्कृतिक प्रक्रियाओं ने शोषण  के नए रूपों को जन्म दिया है, लेकिन भारतीय समाज में होने वाले सामाजिक उत्पीड़न के लिए मुख्यतः हमारे समाज-संस्कृति का पिछड़ा हुआ स्वरूप है। वैसे तो यह सर्वमान्य सत्य है कि सामाजिक घटनाऐं परस्पर संबधित होती है लेकिन कई बार यह सर्वमान्य सत्य हमें गलत नतीजों तक भी पहॅुचा सकता है। हमारे यहाँ वैश्वीकरण को लेकर विष्लेशण कम और लोकरंजकता ज्यादा दिखाई देती है। यह प्रवृत्ति प्रगतिशील  दायरों से लेकर स्वयंसेवी क्षेत्र तक मौजूद है। ऐसा लगता है कि विष्लेशण का अभाव इसके समर्थक और विरोधी दोनो को स्वीकार्य है। अक्सर वैश्वीकरण का विरोध, स्वदेशी  की रक्षा और विदेशी  के विरोध के रूप में फलीभूत होता है। इस बात से ऐसा लगता है कि जो भी स्वदेशी   है वो अच्छा है स्वदेशी पूँजीस्वदेशी संस्कृति। पूँजी चाहे स्वदेशी हो या विदेशी उसका मकसद श्रम का शोषण  करना और अपने मुनाफे में वृद्धि करना है। संस्कृति की थोड़ी चर्चा हम आगे करेंगे। 

स्वदेशीके आधार पर  वैश्वीकरण का विरोध करने की इस समझ का कारण कहीं ना कहीं हमारी इतिहास की समझ में निहित है। हम चन्द बातें  इतिहास के बारे में रखना चाहते हैं क्योंकि तभी हम वर्तमान के बारे में सही समझ तक पहुँच सकते  हैं। 

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 वैश्वीकरण की केन्द्रीय अर्न्तवस्तु पूँजी का वैश्वीकरणहै। आज दूनिया के किसी भी कोने में पूँजी की मुक्त आवाजाही के लिए देशों के बीच खड़ी की गई आर्थिक दीवारों को गिराया जा रहा है। लेकिन श्रम आज भी देश की सीमाओं में कैद है। मजदूर को दूसरे देश में श्रम करने जाने के लिए वीजा के सख्त नियमों से गुजरना पडता है। 

   हमारा समय पूँजी के वैश्वीकरण का समय है जो कि साम्राज्यवाद की बदली हुई रणनीति के रूप में सामने आया है। इसके यहाँ तक पहुँचने में इतिहास ने उतार-चड़ाव से भरा लम्बा सफर तय किया है। एक राजनीतिक प्रणाली के रूप में उपनिवेश  के युग का पटाक्षेप हो चुका है। ऐसे में आप यह सवाल कर सकते है कि फिर इराक क्या है? यह बात सही है कि इराक आज साम्राज्यवादी अमेरिका का उपनिवेश बना हुआ है। यह एक अपवाद स्वरूप है। उपनिवेश  का दुनिया की राजनीतिक व्यवस्था के रूप में कार्य करना और आज विशेष परिस्थितियों में किसी एक देश का उपनिवेश बनने में अतंर किया जाना चाहिए। साम्राज्यवाद ना तो उदार हुआ है और ना ही उसका चरित्र बदला है। यह पहले भी शोषण करता था और आज भी शोषण  करता है, बदली है तो सिर्फ़ शोषण  करने की रणनीति।  

   मतभेद साम्राज्यवाद के चरित्र को लेकर कम, उसकी कार्यप्रणाली को लेकर ज्यादा हैं। समस्या तब पैदा होती है जब साम्राज्यवाद को उपनिवेशवाद के साथ नाभिनालबद्ध माना जाता है। लेकिन जब हम इतिहास पर नजर दौड़ाते है तब पाते है कि साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की ये दो बड़ी परिघटनाएं अलग-अलग समय में स्वतन्त्र रूप से पैदा हुई। उपनिवेशों की स्थापना सबसे पहले 16वीं शताब्दी के प्रारम्भ में डच उपनिवेशों के साथ हुई। सन् 1756 तक आते-आते उपनिवेश वाद दुनिया की प्रमुख (Dominent) राजनीतिक हकीकत बन चूका था। जबकि औद्योगिक पूँजीवाद की शुरूआत 18वीं शताब्दी में होती है और 19वीं शताब्दी के अन्त तक आते-आते पूँजीवाद के एकाधिकार स्वरूप का जन्म होता है। पूँजीवाद के एकाधिकारी स्वरूप को साम्राज्यवाद के रूप में परिभाषित किया गया ह़ै। साम्राज्यवाद ने अपने तैयार माल को बेचने और  कच्चे माल के दोहन के लिए उपनिवेशों  की विधमान राजनीतिक प्रणाली को अपने हित में जोत लिया। पूरी दुनिया को साम्राज्यवादी देशों  ने आपस में बाँट  लिया। साम्राज्यवादीयों की उपनिवेशों पर कब्जे की होड़ के लिए मचायी गई तबाही को पूरी मानवता ने दो विश्व युद्धांे के रूप में देखा। उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद की मुख्य कार्यप्रणाली (Modusoprendi)  बना। साम्राज्यवाद ने उपनिवेशों  में पूँजीवादी सम्बन्धों की शुरूआत की लेकिन वह मुख्यतः उपनिवेशों  में पूँजीवादी विकास को रोकता था। कहने का मतलब यह है कि साम्राज्यवाद उपनिवेशों में उत्पादक शक्तियों के विकास को रोके हुए था।

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मानवता की मुक्ति का संघर्ष कभी धीमा तो कभी तेज अनवरत चलता रहता है। उपनिवेश के युग में यह संघर्ष राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों के रूप में सामने आया। उस समय राष्ट्रीय मुक्ति की दो संभावनाएं मौजूद थी। पहली, मजदूर वर्ग के नेतृत्व में उपनिवेश  का खात्मा, जो रास्ता समाजवाद के निर्माण की ओर जाता था । दूसरा, राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के नेतृत्व में राष्ट्रीय मुक्ति, जो रास्ता पूँजीवाद की स्थापना की ओर जाता था। अगर चीन का उदाहरण छोड़ दे, तो राष्ट्रीय मुक्ति का दूसरा रास्ता ही हक़ीकत साबित हुआ। अक्सर मतभेद दूसरी बात को लेकर शुरू होते हैं, हम तो मजदूर वर्ग के नेतृत्व में आजादी चाहते थे क्योंकि ऐसा नहीं हुआ, और तब इसका अर्थ यह निकाला जाता है कि 15 अगस्त 1947 को जो भी हुआ वह सब ड्रामा था। क्या यह सही बात है? क्या यह ब्रिटीश  हुकूमत के खिलाफ आजादी के लिए चले भारतीय जनता के संघर्ष को नकारना नहीं है। हमें लगता है कि सही सवाल यह है कि हम उपनिवेश  के रूप में तो आजाद हुए लेकिन पूंजी की गुलामी से मुक्ति के लिए देश के मेहनतकशों  की लड़ाई लड़ी जानी अभी बाकी है। 

   आज पूँजीवाद कमोबेश वैष्विक दुनिया की हक़ीकत बन चुका है। इस बदली हुई परिस्थिति में परिवर्तन की चाह रखने वालों को अपनी रणनीति में परिवर्तन करने की जरूरत है। राष्ट्रवाद का नारा जो औपनिवेशिक  समय में साम्राज्यवाद के खिलाफ एक कारगर रणनीति थी, अब वह अपनी धार खो चुका है। उपनिवेश  के युग में भारतीय पूँजीपति वर्ग को एक वर्ग के तौर पर अपने ही देश की राज्य व्यवस्था और अर्थव्यवस्था चलाने का अधिकार हासिल नहीं था। साम्राज्यवाद उपनिवेशों  में पूँजीवादी विकास को रोकता था। इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पूरे औपनिवेशिक  दौर के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर ऋणात्मक रही है। यही कारण था कि भारतीय पूँजीपति वर्ग राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई का हिस्सा बना और अपना नेतृत्व स्थापित करने में सफल साबित हुआ। आजादी हासिल करने के साथ ही पूँजीपति वर्ग का साम्राज्यवाद के साथ रणनीतिक विरोध समाप्त हो गया। अब वह साम्राज्यवादी पूँजी के साथ साझेदारी करता है। वह अपने देश में विदेशी  पूँजी को आमंत्रित करता है तो दूसरे देशों  में पूँजी का निवेश  भी।

दूसरे विश्वयुद्ध के समय राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष मुख्य मुद्दा बना। साम्राज्यवादी ब्रिटेन का सूरज डूबने लगा। यही वो समय था जब अमेरिका एक प्रभुत्वशाली साम्राज्यवादी शक्ति  के रूप में उभरा। दुनिया के पैमाने पर अन-औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया लंबी चली है। नव-स्वाधीन हुए देशों  ने स्वतंत्र राष्ट्र-राज्यों  के रूप में  अपने को गुटनिरपेक्ष आंदोलन के रूप में संगठित किया ताकि वे अपनी राजनीतिक और आर्थिक हितों की रक्षा कर सके। भारत इसके प्रमुख नेता के रूप में उभर कर सामने आया। भारतीय राज्य ने आयात-निर्यात करों की ऊँची दीवारें खड़ी की ताकि पूँजीपति वर्ग के हितों की रक्षा की जा सके। 

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इन बदली हुई परिस्थितियों  में साम्राज्यवाद को एक नई रणनीति की जरूरत पड़ी जिसे हम पूँजी के वैष्वीकरण के रूप में जानते हैं। अब साम्राज्यवाद को पहली बार स्वतंत्र राष्ट्र-राज्यों की राजनीतिक प्रणाली के अन्दर कार्य करना था। इसके लिए साम्राज्यवाद के कार्यविधान में महत्वपूर्ण परिवर्तन की दरकार थी। जो साम्राज्यवाद औपनिवेशिक समय में उपनिवेशों  में पूँजीवादी विकास को रोकता था वही साम्राज्यवाद आज उपनिवेशों  के रूप में आजाद हुए देशों  में वैष्विक पूँजी के तन्त्र (System of Global Capital) के अधीन पूँजीवादी विकास की पैरोकारी (Promote) कर रहा है। क्योंकि पूँजीवाद का विकास जितना ज्यादा होगा साम्राज्यवादी देशों को अपना माल बेचकर मूनाफा कमाने के लिए उतना ही बडा बाजार उपलब्ध होगा। इसका मतलब यह नहीं है कि साम्राज्यवादी पूँजी सभी स्थानों पर पूँजीवादी विकास करने जा रही है। पूँजी वहीं जाती है जहाँ उसके मुनाफा कमाने की शर्ते पूरी होती हैं। वरना वो साहरा अफ्रीका के देशों  में भी जाती जहाँ कि गरीबी और भूखमरी की भयाहवता किसी से छुपी नहीं हैं। आज साम्राज्यवाद तीसरी दुनिया से मुख्यतः आर्थिक प्रक्रियाओं के द्वारा अधिशेष (Surplus) का दोहन करता है। यह बदली हुई रणनीति साम्राज्यवाद के भी हित में है और भारतीय पूँजीपति वर्ग को भी मुफ़ीद है। इसके लिए इन दोनों ने आपस में दोस्ती का हाथ मिलाया है। क्यूँकि इनके आपसी रणनीतिक विरोधों का कारण अब समाप्त हो चुका है। 

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90 के दशक में इतिहास के अन्त की घोषणा के साथ पूँजी को विश्वविजयी बनाने की वैष्वीकरण की यह प्रक्रिया जोर-षोर से शुरू  की गई। आर्थिक उदारीकरण, व्यापारीकरण व निजीकरण को सभी समस्याओं के समाधान के मूलमंत्र के रूप में प्रस्तुत किया गया। श्रमिक अधिकारों पर लगाम लगायी गयी। अर्थव्यवस्था के नए उभरते क्षेत्रों में श्रमिक अधिकार सिरे से नदारद थे। वैष्वीकरण की इस प्रक्रिया के तहत आयी तब्दीलियों और उसकी जटिलताओं को हम तीन  क्षेत्रांे के माध्यम से समझने की कोशिश करेंगे - अर्थषास्त्र, राजनीति तथा मीडिया।

आर्थिक क्षेत्र में -

(1) औद्यौगिक उत्पादन का लगभग विश्वव्यापी हो जाना यानि की आयात-निर्यात बन्धनों का लगभग 
     समाप्त हो जाना। 
(2) वित्तीय पूँजी का उत्पादक पूँजी पर वर्चस्व तथा इसके आवारा रूपका उद्भव।
(3) बाजार केन्द्रित आर्थिक नीतियों पर निर्विरोध सर्वसम्मति के उभरने को दावा।
(4) वैष्वीक पूँजी के लगातार राष्ट्र-राज्य की सीमाओं से स्वतन्त्र होते जाना। यहाँ तक की साम्राज्यवादी राष्ट्र-राज्य की सीमाओं से भी।

राजनीति के क्षेत्र में:-

(1) सोवियत संघ की समाप्ति के बाद विष्व राजनीति के एक धुव्रीय होने के यानि कि अमेरिका का 
     पूँजीवादी विष्व प्रभुत्व।
(2) पूँजीवादी जनतन्त्र एवं बाजार केन्द्रित अभिशासन के एकमात्र राजनीतिक आर्दश  होने का दावा।

मीडिया के बारे में चन्द बाते हम आगे करेंगे। 

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वैष्वीकरण का विषय-विस्तार विशाल है इसकी प्रक्रिया के कई आयाम है और प्रत्येक आयाम के कई विशिष्ट  क्षेत्र है। जैसे आर्थिक आयाम में व्यापार कर, मुद्रा नीति, विभिन्न उद्योग समूह, वर्ग संरचना, रोजगार वृद्धि इत्यादि। प्रत्येक क्षेत्र में वर्गीकरण की संभावना है जैसे कृषि क्षेत्र में अनाज, तिलहन,दुग्ध उत्पाद,बागवानी, नकदी फसलें आदि।

   क्या यह मुमकिन है कि वैष्विकरण का असर हर आयाम में, हर क्षेत्र में, और हर क्षेत्र के प्रत्येक भाग में एक समान होगा? अगर नहीं तो जाहिर है कि वैष्वीकरण की संज्ञा से अलंकृत प्रत्येक परिघटना को एक ही जमात में डालकर इस पर एक ही राजनीतिक मत व्यक्त करना असम्भव है। इस तर्क की पुष्टि के लिए एक उदाहरण लेतें है। अर्थशास्त्रीयों का मानना है कि विश्व व्यापार संगठन (WTO) द्वारा की जा रही व्यवस्था का भारत के कृषि क्षेत्र पर जबरदस्त लेकिन मिला जुला असर पड़ेगा। अनाज व तिलहन के क्षेत्र में भारी नुकसान पहुँचने की सम्भावना है लेकिन बागवानी और मतस्य उद्योग को बेताहषा मुनाफा कमाने का मौका मिलेगा। यूरोप और अमेरिका के दुग्ध उद्योग को मिल रही बेतहाशा  सरकारी अनुदान (जो WTO के नियम के अनुसार अवैध है।) में अगर कटौती नही हुई तो हमारे दुग्ध उद्योग के लगभग तबाह होने की नौबत आ सकती है। जब एक ही क्षेत्र में इतनी विविधता हो तो इस पर एकमुष्त राजनीतिक राय तैयार करना कठिन काम है। ऐसी स्थिति में एक ही विचारधारा के लोगों में मतभेद उभर सकतें है। आखिर  अनाज उगाने वाले किसानों की हानि और बागबानी करने वालों के लाभ को किस राजनीतिक तराजू में तौला जाए? सवाल यहीं पर समाप्त नहीं होता है। वैष्वीकरण की प्रक्रिया का भारतीय उद्योगों पर कैसा प्रभाव पडेगा? इसके लिए हमें इसके उपक्षेत्रों पर ध्यान देना पडेगा आगे और भी आयाम बाकी है। जहाँ एक ओर पूंजीवादी  व्यवस्था के विरोध की केन्द्रीय रणनीति बनाने की जरुरत है वही दूसरी ओर संघर्ष को आगे बढाने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों को देखकर रणनीति बनाने की भी आवष्यकता है।

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 वैष्वीकरण की प्रक्रिया का सबसे मुखर स्वरूप है मीडिया। संचार क्रांति के परिणामस्वरूप पहली बार मानव इतिहास में यह परिस्थिति पैदा हुई है कि सारी दुनिया के लोग किसी घटना को एक क्षण में एक साथ ही देख सकें । वैष्विक गाँव की छवि को स्थापित करने में संचार क्रंाति ने केन्द्रिय भूमिका निभायी है।

90 के दशक में उदारीकरण के साथ ही मीड़िया का भी उदारीकरण शुरू  हुआ। इसका सबसे ज्यादा असर टी.वी. पर पड़ा। बहुराष्ट्रीय कम्पनीयां प्रसारक, निर्माता और प्रायोजक बनकर भारत में आयी। उस समय चारों ओर भारतीय संस्कृति की रक्षा का शोर मचने लगा। भारतीय जनता के गुमराह और पतित होने की चिंता सताने लगी। स्टार टी़.वी. के बेवॉच और फैश न टी.वी. की अष्लीलता से आतंकित सांस्कृतिक रक्षकों ने भारतीय संस्कृति खतरे में है, का नारा बुलंद किया। यह कुछ ऐसा ही था जैसा कि भारत की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के तबाह हो जाने की चिंता का पैदा होना। आज पूँजीवाद ने मनुष्य के शरीर को माल बनाकर बाजार में ला खड़ा किया है। उसके खतरे से इंकार नही किया जा सकता, लेकिन इस टीवी उपग्रह क्रांति का मकसद देशी सांस्कृतिक बाजार का गठन करना है। जिसको रामायण के टीवी धारावाहिक ने प्रमाणित किया। जिसकी बदौलत हिंदुत्व की आक्रमक लहर की पृष्ठभूमि तैयार हुई। विदेशी  कार्यक्रमों का प्रभाव विचारणीय विषय अवष्य है लेकिन यह रामायण जैसे आमूलचूल परिवर्तन लाने वाले देशी  कार्यक्रमों के आगे गौड़ ही कहलायेगा। आज भी हमारे देषी सांस्कृतिक उत्पादांे का असर कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। 

फैशन टीवी से खौफ खा रहे लोगों को यदि सांमती तथा गैर-जनतान्त्रिक मूल्यों  को फैलाने वाले कहानी घर-घर की और सास भी कभी बहू थी तथा समाज में अतार्किकता फैलाने वाले ढेरों धार्मिक चैनलों और धारावाहिकांे की चिंता अगर नहीं सताती तो यह वैष्वीकरण की भ्रामक धारणाआंे का ही कारनामा है। पूँजी का उद्देष्य लाभ कमाना होता है और उसके लिए बाजार पर कब्जा करना जरूरी है। इस उद्देष्य तक पहुँचने के लिए वो हर कारगर तकनीक अपनायेंगे, चाहे वो भारतीय हो या विदेशी , उन्हें हर संस्कृति से उतना ही प्यार है जितना की वो उसको लाभ पहुँचा सके हम संस्कृति के बारे में अपनी बात को यही विराम देते हैं। 

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पूँजी के वैष्वीकरण के इस दौर में एक ओर तो समृद्धि के टापू ऊँचे होते जा रहे है वहीं दूसरी ओर इन टापूओं के चारों ओर शोषण और गैर बराबरी का समुद्र फैलता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा हाल ही में प्रकाषित रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया में आज भी 85 करोड़ 50 लाख ऐसे बदनसीब लोग है जो भूखे पेट सोने को मजबूर है। भारत के प्रधानमंत्री 10 प्रतिशत विकास दर प्राप्त करने का दावा कर रहे हैं लेकिन भारत की 80 प्रतिशत आबादी के पास ना तो कोई सामाजिक सुरक्षा है ना ही स्वास्थ्य, शिक्षा , साफ पानी की कोई व्यवस्था है, वे अपनी जिंदगी बीस रूपया प्रतिदिन से भी कम पर गुजारने को मजबूर हैं। भारतीय कृषि में गहराते जा रहे संकट के कारण हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं। इस विषम परिस्थिति में भूमंडलीकरण पर एक ऐसा राजनीतिक मत तैयार करने की जरूरत है जो व्यापक भी हो और दो टूक भी। वैष्वीकरण जैसी सर्वव्याप्त प्रक्रिया पर अर्थपूर्ण राय बनाने के लिए इसकी विषय वस्तु को छोटे-छोटे संदर्भ क्षेत्रों में बॉटना अनिवार्य है। मसला यहीं समाप्त नहीं होता। आगे बढ़ने के लिए राजनीति के केन्द्रिय प्रष्न का सामना करना होगा कि हम विभिन्न क्षेत्र, उपक्षेत्र में भूमंडलीकरण के परिणामों के प्रति जो राजनीतिक रूख अपनातें हैं उसका आधार क्या है? हम किसके नाम की राजनीति कर रहे हैं? वैष्वीकरण का विरोध या समर्थन हम किन आदर्षों और किन सामाजिक तबकों के परिपेक्ष्य में कर रहे हैं? इन सारे सवालों पर संघर्ष की सही रणनीति विकसित करने की जरूरत है तथा साथ ही भविष्य के समाज का नया  नक्शा भी तैयार करना आवष्यक है। 

(प्रस्तूत आलेख युवा संवाद द्धारा आयोजित  चिंतन शिविर ‘‘हमारा समय, हमारा सरोकार ’’ में प्रस्तूत किया गया  था )

1 comment:

  1. बहुत दिनो के बाद कोई बडिया लेख पढने को मिला।

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