जनपक्षधर सिनेमा की चुनौतियाँ और सम्भावनायें


स्वदेश सिन्हा


11वें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल प्रतिरोध के सिनेमा पर विशेष


हिन्दी सिनेमा ने 2013 में अपनी विकास यात्रा के 100 वर्ष पूरे कर लिये हैं। तब से अब तक इसने परिवतर्न के अनेक दौर देखे हैं। मूक फिल्मों से सवाक, श्वेत-श्याम से रंगीन तथा डिजिटल सिनेमा से मल्टीप्लैक्स सिनेमा हालों तक इसने लम्बा सफर तय किया है। बदलते हुए सामाजिक यथार्थ के साथ-साथ फिल्मों के कथ्य तथा अन्तर्वस्तु में भी भारी बदलाव आए हैं। अक्सर लोकप्रिय सिनेमा बनाम जनपक्षधर सिनेमा की बहसें चलती रहती हैं, परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के बहुसंख्यक आवाम के सुख-दुःख, उत्साह-विशाद, जय-पराजय का साक्षी यही लोकप्रिय सिनेमा रहा है। कला के सभी प्रारुपों-सिनेमा, रंगमंच, साहित्य, चित्रकला में से अगर किसी विधा ने जनसामान्य तथा समाज पर सबसे अधिक गहरा प्रभाव डाला है, तो वह सिनेमा ही है।

गर दो आँखें बारह हाथ, ‘जागृति, ‘अछूत कन्या, जैसी फिल्मों पर गांधीवाद का प्रभाव था तो राजकपूर की फिल्में बूट पालिस, ‘आवारा, ‘आग, ‘जागते रहो, ‘श्री 420’, आदि पर नेहरुवादी रोमानी समाजवाद का प्रभाव देखने को मिलता है। आजादी के बाद की गुरुदत्त की फिल्में कागज के फूल, ‘प्यासा, में समाज में धन के बढ़ते प्रभाव तथा 80 के दशक में बढ़ते युवा असन्तोष, आक्रोश को सलीम-जावेद की लोकप्रिय जोड़ी ने दीवार, ‘जंजीर, ‘शहंशाह, ‘शराबी, आदि ढेरों अमिताभ बच्चन की हिट फिल्मों में भुनाया, ‘यंग एंग्रीमैन अमिताभ की छवि युवकों का आदर्श बनीं। इन फिल्मों में नायकवाद, व्यक्तिवाद की जबरदस्त अभिव्यक्ति थी, जिसमें आम जनता निरीह है, एक ऐसा सुपरमैन जो सारी समस्याओं का हल खुद ही कर देता है। पूँजीवाद का यह दर्शन आमजन की ताकत को नकारता है। इंकलाब, क्रान्ति जैसी फिल्में भी आमजन के असली मुद्दों से ध्यान हटाकर अंधराष्ट्रवाद, ‘फासीवाद तथा नायकवाद का दर्शन दर्शकों को परोसती है। 80 के दशक की अनेक फिल्में जैसी प्रतिघात, ‘अंधा युद्ध, ‘अंधा कानून, का ट्रीटमेंट और ज्यादा हिंसक तथा क्रूर है, जो जनता में व्यवस्था के प्रति भयानक आतंक पैदा करता है। यह वही दौर था, जब राजनीति, समाज, साहित्य, सिनेमा सभी में नायक और खलनायक का भेद समाप्त हो गया था तथा खलनायक के सारे काम नायक ने सँभाल लिए थे। इसकी जबर्दस्त अभिव्यक्ति उस समय के सिनेमा में थी।
           
ज के सिनेमा में मेहनतकश वर्ग का प्रतिनिधित्व लगभग समाप्त हो गया है। गरीब, मजलूम, दलित आदिवासी, असहाय लोगों की कहानियाँ फिल्मों से लगभग गायब हो गयी हैं। अब 1950-60 के दशकों में बनीं - धरती का लाल, ‘दो बीघा जमीन, ‘बूट पॉलिश, ‘प्यासा, ‘फुटपाथ, ‘दोस्ती’, ‘मदर इण्डिया, ‘सुजाता, ‘पैगाम, ‘दिल्ली दूर नहीं, ‘सीमा, ‘पतिता, ‘रोटी, ‘बन्दिनी, ‘काबुलीवाला, ‘मुन्ना, ‘शहर और सपना जैसी फिल्मों की अब कल्पना भी नहीं की सकती। इसी तरह 90 के दशक में समानान्तर सिनेमा आन्दोलन के दौरान बनीं अंकुर, ‘आक्रोश, ‘अर्द्धसत्य, ‘पार्टी, ‘मृगया, ‘आन्दोलन, ‘भुवन सोम, ‘सारा आकाश, ‘अल्बर्ट पिण्टो को गुस्सा क्यों आता है, ‘सलीम लंगड़े पे मत रो, ‘पार, ‘दामुल, ‘मंथन, ‘भूमिका, ‘सद्गति जैसी फिल्में भी नहीं बन रही हैं।

गान, ‘स्वदेश, ‘स्वराज, ‘दि लिटिल रिपब्लिक 2002’, ‘पिपली (लाइव)आदि कुछ अपवादस्वरूप गिनायी जा सकती हैं, लेकिन ये भी अभिजात्य तथा मध्यवर्ग पर ही केन्द्रित हैं। किसान और मजदूर इस दौर की राजनीति और अर्थव्यवस्था के हाशिए पर हैं, उसी का स्वाभाविक प्रतिबिम्बन हमें आज की हिन्दी फिल्मों मंे दिखाई देता है। प्रतिबिम्बन हमें आज की हिन्दी फिल्मों में दिखाई देता है।

उदारीकरण के दौर में नया सिनेमा

90 के दशक में अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के दौर के फलस्वरूप, जो एक नया उच्च वर्ग तथा मध्य वर्ग पैदा हुआ है, वह मूलतः ग्लोबल है। अपनी तमाम आधुनिकता के बावजूद वह मूल्यों में सामन्ती है। एक समय में बड़े-बड़े सिनेमाहालों के विभिन्न दर्जों में फिल्में देखने वाला मजदूर, किसान तथा निम्न मध्यवर्ग न केवल फिल्मों की कहानियों से गायब हो गया है, बल्कि वह अब तो सिनेमाहालों से भी नदारद है। मल्टीप्लैक्स सिनेमाघरों में 300 से 500 रुपये का टिकट खरीदकर महंगे कोल्ड डिंªक्स तथा कॉफी पीते हुए, पॉपकार्न खाते हुए यह उच्च वर्ग पुराने समय की मधुर गीतों से भरी लम्बी-लम्बी फिल्मों को नहीं देखना चाहता। उसे कुछ थ्रिल, रोमांच और नयापन चाहिए, उसी के लिए आज मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस. (2003), लगे रहो मुन्ना भाई (2006) जब वी मेड (2007), थ्री इडियट्स, तारे जमीं पर जैसी ढेरों फिल्में बनायी जा रही हैं। इनकी भाषा तथा सोच नयी है, परन्तु ये फिल्में किसी बदलाव का संकेत न देकर केवल मध्यवर्गीय भावनाओं की ही तुष्टि करती हैं। कॉरपोरेट, ‘फैशन, ‘अभिनेत्री, सत्या जैसी  आज की ढेरों फिल्में यथार्थवादी तो दिखती हैं, परन्तु ये भी आमजन के लिए नहीं हैं, तथा व्यवस्था आतंक को ही स्थापित करती हैं। इन फिल्मों को ही स्थापित करती हैं। इन फिल्मों के नाम, तकनीक, लोकेशन सभी विदेशी हैं, ये फिल्में हफ्ते भर मंे ही करोड़ों रुपये कमकार पदिदृश्य से गायब हो जाती हैं। यही आज के भूमण्डलीकरण के दौर की फिल्मों का समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र है।

जनपक्षधर सिनेमा और उसकी चुनौतियाँ

ज डिजिटल तकनीक ने फिल्मों को बनाना तथा दिखाना सस्ता और आसान कर दिया है। अपने देश के तथा दुनिया भर के फासीवादी तथा अतिवादी समूह अपनी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए फिल्मों तथा सोशल मीडिया का जमकर प्रयोग कर रहे हैं। वे जनपक्षधर लोग भी जो सच्चे अर्थों में सामाजिक परिवर्तन के संघर्षों में लगे हैं, इसका उपयोग कुशलता से कर सकते हैं।

प्रसिद्ध जनपक्षधर फिल्मकार आनन्द पटवर्धन अपने एक लेख गोरिल्ला सिनेमा (1990)’ में लिखा था कि चिली के वामपंथी राष्ट्रपति आलेन्दे का सी.आई.ए. समर्थित सैनिकों द्वारा तख्ता पलटने, उनकी तथा उनके सैकड़ों समर्थकों के हत्याकाण्ड फिल्मांकन कुछ वामपंथी निर्देशकों के हत्याकांड का फिल्मांकन कुछ वामपंथी निर्देशकों ने किया, फिल्म की रीलों का बहुत ही मुश्किल से चिली के बाहर लाया गया, तभी सारी दुनिया को वहाँ की सच्चाई का पता लगा। इस प्रयास में फिल्म से जुड़े अनेक लोग मारे भी गये, परन्तु आज एक छोटे से पेन ड्राइव में ढेरों फिल्मों को लोड करके कहीं भी भेजा जा सकता है। एक अच्छे मोबाइल फोन कैमरे से भी एक छोटी-मोटी फिल्म बनायी जा सकती है। आज के दौर में ढेरों जनपक्षधर फिल्मकार सीमित संसाधनों के बल पर मजदूर-किसानों पर, आदिवासियों की प्राकृतिक सम्पदा की लूट पर, बड़े-बड़े बांध बनाने, परमाणु बिजली घरों के निर्माण के कारण, विस्थापित हुए लोगों आदि के संघर्षों पर डॉक्यूमेंट्री तथा कथा-प्रधान फिल्में भी बना रहे हैं।


नेक छोटे-बड़े शहरों में अनेक कठिनाइयों के बावजूद फिल्म फेस्टिवल हो रहे हैं तथा नये-नये युवा फिल्मकार भी निकल रहे हैं। आज एक बार फिर सिनेमा एक बड़ी ताकत बनकर उभरा है। इप्टा ने अपने उत्कर्ष काल में अनेक जनपक्षधर फिल्मों का निर्माण किया था। आज के दौर में स्थितियाँ उससे भिन्न हैं, अभी भी सांस्कृतिक संगठनों तथा जनपक्षधर निर्देशकों के लिए आमजन का सिनेमा बनाना एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। आज एक ओर दलितों, स्त्रियों, शोषित-दमित तबकों के आन्दोलन खड़े हो रहे हैं तथा इनके दमन के लिए फासीवादी ताकतें भी नये-नये रूपों में उभर रही हैं। इस दौर में ऐसी फिल्मों का निर्माण आवश्यक है, जो इन आन्दोलनों को अपने में समाहित कर सके तथा प्रतिगामी ताकतों व व्यवसायिक सिनेमा को सही मायने में टक्कर दे सकें। आज क्षेत्रीय भाषाओं में भी फिल्म निर्माण की जरूरत है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि साहित्य, कला, रंगमंच सिनेमा जैसे माध्यमों में मनोरंजन, जनपक्षधरता  तथा कला तीनों का संगम होना चाहिए। आज बहुत से प्रयोगधर्मी जनपक्षधर युवा फिल्म निर्देशक इस दिशा में प्रयासरत हैं। यह हमें आशान्वित करता है कि शीघ्र ही नया सिनेमा सही अर्थों में सर्वहारा-सौन्दर्यशास्त्र की एक मिसाल बनकर उभरेगा।

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