शहर के सीमान्त


-जावेद अनीस

मतौर पर शहर उम्मीदों के केन्द्र माने जाते है लेकिन भारत के ज्यादातर शहर अपने एक बड़ी जनसंख्या के लिए मजबूरी, अभाव और नाउम्मीदी के नये टापू ही साबित हो रहे हैं। 
 विकास के रथ पर लम्बी छलांगे लगा रहे भारत के शहरों के चमचमाते चहरों के पीछे अभावों की ऐसी अंधेरी दुनिया बस्ती है जो दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है। इस अंधेरी दुनिया में बसने वाली आबादी शहर की रीढ़ होती है जो अपने श्रम से शहर की अर्थव्यवस्था में बहुमूल्य योगदान देती है लेकिन शहर का खाया पिया वर्ग और सरकारी तंत्र इन लोगों को बोझ मानता है और इसे नित्य नये नये तरीकों से छुपाने या भगाने के यत्न में लगा रहता है। 

 लेकिन शहरों के अभावग्रस्तों की दुनिया इतनी बड़ी और गहरी है कि छुपाने ,भगाने या पेबेंद लगाने के तमाम कवायदों के बावजुद इसका ग्राफ लगातार बढ़ता ही जा रहा है। इसका कारण बहुत साफ है, कृषि पर बहुसंख्यक भारतीयों की निर्भरता, उनके लिए कृषि के विकल्प का अभाव, गांव मे सूखे की लगातार स्थिति, खेती के लगातार बिगडते हालात, खेती को प्रोत्साहित करने वाली सुदृढ़ योजनाओं का अभाव, सीमित रोजगार और शहरों में बढ़ते काम के अवसरों के कारण एक बड़ी तादाद होती है जिसके पास दो ही विकल्प होता है, शहरों की तरफ अंधी दौड़ या आत्महत्या।

 शहरों की इन झुग्गीयों में रहने वाले लोगों में ज्यादातर दलित, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक तथा आर्थिक रुप से कमजोर वर्ग ही शामिल है।  अमूमन यही आबादी शहरों का असंगठित क्षेत्र  भी कहलाती है। भारतीय अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में देश की सकल नगरीय श्रम शक्ति का एक बहुत बड़ा भाग बसा हुआ है। ये श्रम शक्ति असंगठित औधोगिक श्रमिकों के अलावा निर्माण श्रमिक, छोटे दुकानदार, सब्जी-खाने का सामान बेचने वाले, अखबार बेचने वाले, धोबी, फेरी वाले, सफाई करने वाले,घरेलू कामगार इत्यादि की भी बड़ी संख्या है जिन्हें असंगठित क्षेत्र में गिना जाता है। असंगठित क्षेत्र का यही कामगार वर्ग शहर की झुग्गीयों में रहता है जो परम्परागत रुप से आर्थिक और सामाजिक रुप से कमजोर तबके से ही हैं। 

   अभाव और भूखमरी की मार बच्चों पर सबसे ज्यादा पड़ती है। आवश्यक  भोजन नही मिलने की वजह से बड़ों का शरीर तो फिर भी कम प्रभावित होता है लेकिन बच्चों पर इसका असर तुरंत पड़ता है जिसका असर लम्बे समय तक रहता है। सबसे पहले तो गर्भवती महिलाओं को जरुरी पोषण नही मिल पाने के कारण उनके बच्चे तय मानक से कम वजन के होते ही है, तो जन्म के बाद अभाव और गरीबी उन्हें भरपेट भोजन भी नसीब नही होने देती है। नतीजा कुपोषण होता है। जिसकी मार या तो दुखद रुप से जान ही ले लेती है या इसका असर ताजिंदगी दिखता है। 

 अगर ये माना जाये कि किसी भी व्यक्ति की उत्पादकता में उसके बचपन के पोषण का महत्वपूर्ण योगदान होता है। तो यहे भी मानना पड़ेगा कि देश /प्रदेश  में जो बच्चे भूखमरी और कुपोषण के शिकार है उसका प्रभाव देश और समाज की उत्पादकता पर भी पड़ेगा। वर्तमान ही भविष्य बनता है और हमारे इस वर्तमान का खामयाजा अगली पीढ़ी को भुगतना ही पड़ेगा। 

 राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ सर्वेक्षण के मुताबिक भारत के 3 साल से कम उम्र के 46 प्रतिषत बच्चे कुपोषण के शिकार है। मध्यप्रदेश में 60 प्रतिषत बच्चे कुपोषण से ग्रस्त है। वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि ऐसे बच्चों को बीमारीयों से जान गंवाने का खतरा सामान्य बच्चों से 8 गुना ज्यादा होता है।

 कुपोषण और शिशु मृत्यु दर में म.प्र. पहले पायदान पर है। फरवरी 2010 में मध्यप्रदेश के लोक स्वास्थ मंत्री ने प्रदेश की सबसे बड़ी पंचायत विधानसभा में स्वीकार किया था कि राज्य में 60 फीसदी बच्चे कुपोषण से ग्रस्त है। उन्होनें स्वीकार किया था कि राज्य में 5 वर्ष तक के आयु वर्ग के प्रति एक हजार में से करीब 70 बच्चे कुपोषण की वजह से मौत का शिकार हो जाते है। 
 आंकड़े बताते है कि प्रदेश में कुपोषण के सर्वयापीकरण का आलम ये है कि 2005 से 2009 के बीच राज्य के 50 में से 48 जिलो में 1लाख 30हजार 2सौ 33 बच्चे मौत के काल में समा गये। 

 मध्यप्रदेश  में ग्रामीण  क्षेत्रों में कुपोषण की स्थिति जगजाहिर है लेकिन प्रदेश  के शहरों की स्थिति भी कुछ अलग नही है। नागरिक अधिकार मंच द्वारा किये गए एक अध्यन में यह स्थिति स्पस्ट रूप से सामने आती है मंच द्वारा  जनवरी -फरवरी २०११ में मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल शहर  के ११ बसाहटों  5 साल से कम उम्र के बच्चों के स्वास्थ की स्थिति जानने के लिए एक अध्यन किया गया। जिसके तहत  भोपाल शहर के 11 बस्तीयों का चुनाव किया जहाँ 255 बच्चों का वजन लिया गया
 वजन किये गये 5 साल तक के बच्चों के कुल 255 बच्चों में 129 बच्चे सामान्य पाये गये। जबकि 126 बच्चे कुपोषित है। इन 126 बच्चों में 51 बच्चे अतिकुपोषण के शिकार  है। यानी तौल किये गये बच्चों में से लगभग  आधे बच्चे कुपोषित/अतिकुपोषित हैं। इन  कुपोषित/अतिकुपोषित  में ज्यादातर बच्चे दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और पिछड़ा वर्ग से हैं। 
 यह चिंताजनक स्थिति  उस भोपाल की है जो प्रदेश  की राजधानी है जहॉ ये माना जाता है कि प्रदेश  के दूसरे हिस्सों के मुकाबले राजधानी में जीवन जीने के बुनियादी सुविधाओं की स्थिति बेहतर होगी  लेकिन उपरोक्त आंकड़े कुछ ओर ही कहानी बया करते हैं। 

 कुपोषण दूर करने के लिए सरकार  समेकित बाल विकास परियोजनाऐं चला रही है ! आई.सी.डी.एस. के तहत  6 मुख्य सेवाऐं प्रदान की जाती हैं जिसमें पूरक पोषण आहार,स्वास्थ्य जांच,प्रथमिक स्वास्थ्य की देखभाल/परामर्श सेवायें,टीकाकरण/रोग प्रतिरक्षण ,पोषण एवं स्वास्थ्य शिक्षा,स्कूल पूर्व अनौपचारिक शिक्षा शामिल हैं 
 इन उददेशयों  को पूरा करने के लिए प्रत्येक आंगनबाड़ी केन्द्र में एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और एक सहायिका की नियुक्ति की जाती है जिन्हें मानदेय के रुप में क्रमश 2500 और 1200रु दिया जाता है। आंगनबाड़ी कार्यकर्ता को उपरोक्त कामों के अलावा 18 से 20 रजिस्टर भी मेन्टेन करना होता है। 
उपरोक्त उददेशयों   और सेवाओं की इसे पूरा करने के लिए लगाये गये श्रम शक्ति से तुलना करने पर यह अंदाजा लगाना मुश्किल नही होना चाहिए कि समग्र बाल विकास का सपना जमीनी स्तर पर कितना बदहाल है। 

 दरअसल पोषण आहार वितरण केन्द्र के रुप में भी आंगनबाड़ी केन्द्र फिस्सड़ी ही साबित हो रहे है। इसकी वजह दी जाने वाली पोषण आहार की गुणवत्ता का बदतर होना है। एक पूरक पोषण आहार के लिए शासन द्वारा प्रतिदिन 4 से 6 रु दिया जाता है। ऐसे में माताओं और आंगनबाड़ी कार्यकताओं का यह कहना सही है कि पोषण आहार की गुणवत्ता इतनी खराब होती है कि इसे जानवरों को भी नही खिलाया जा सकता है। 
 लेकिन अगर हम समेकित समग्र बाल विकास योजनाओं को ठोस रुप से लागू कराने में सफल हो जाये तो क्या देश - प्रदेश  के बच्चों की कुपोषण से मुक्ति सम्भव है ? निश्चित रूप से यह समस्या का मुकमल हल के लिए नाकाफी हैं !

 कुपोषण का सीधा संबंध बेरोजगारी,गरीबी,जीवन जीने के लिए जरुरी बुनियादी जरुरतों के अभाव से होता है। इसलिए तात्कालिक रुप से भले ही समेकित समग्र बाल विकास जैसी योजनाओं को प्राथमिकता दी जाये लेकिन यह इसका कोई मुक्कमल हल नही है। इसके लिए इन बच्चों के परिवारों की बेरोजगारी एवं गरीब को दूर करने तथा सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिए आवष्यक संसाधनों तक पहुच होना जरुरी है। 
 क्या देश के दुसरे शहरों की स्थिति इससे बेहतर होगी ?


नागरिक अधिकार मंच द्वारा जारी पूरे रिपोर्ट के लिए इस लिंक पर जायें:-
http://nagrikadhikarmanch.blogspot.com/2011/04/blog-post_03.html

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