संकटों के भँवर में फँसा पूँजीवाद


                सितंबर 01 याद रहा सितंबर 07 भूल गए

इंग्लैंड के युवाओं का आक्रोश दंगों के रूप में फूट रहा है तो ग्रीस, स्पेन, पुर्तगाल, आयरलैंड, इटली की सरकारें और अर्थव्यवस्थायें संकट के इस अंधड़ में अस्थिर हो रही हैं। खुद अमरीका को अपनी रोजमर्रा की अदायगियों के लायक पैसा जुटाने में दिक्कत हो रही है। डैमोक्रेट राष्ट्रपति ओबामा को रिपब्लिकन पार्टी के आगे घुटने टेककर ऐसी शर्तें कबूल करनी पड़ी हैं जिनकी वजह से खुद उनके शब्दों में च्च्अमरीका का घरेलू खर्च आइजनहावर के 1950 के जमाने के निम्रतम स्तर तक पहुंच जायेगा।
पंकज मेघ
अमरीकी मीडिया और उसके समूह गायकों ने 11 सितंबर के आतंकी हमले की 10वीं सालगिरह जिस शोकमग्र आक्रामकता से भरे वृंदगान के रूप में गाई, उसे लेकर खुद यूरोप के अनेक अखबारों ने याद दिलाया है कि इसमें कहीं उन लाखों (इस बीच अकेले ईराक में अमरीकी हमले से एक लाख नागरिकों की मौतें हुई है) निर्दोषों का भी जिक्र किया जाना चाहिए था, जो आतंक के खिलाफ युद्ध के बहाने हुई अमरीकी प्रतिहिंसा में बिना किसी कसूर के मारे गए।
यूं तो भारत नहीं तो कम से कम म0प्र0 के अखबारों को कहीं न कहीं भोपाल गैस कांड का उल्लेख करना चाहिए था। यहां अमरीकी कंपनी के अपराध का शिकार हुए लोगों की तादाद न्यूयॉर्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर टावर्स में मारे गए लोगों की तीन हजार की संख्या से कहीं अधिक है। कई अखबारों की राय में 11 सितंबर 2001 के बाद अमरीका अब पहले जैसा अविजयी, निश्चिंत, धनाढ्य, आत्ममुग्ध, बौराया अमरीका नहीं रहा। एक डरा हुआ, घबराया सा असुरक्षित अमरीका बनकर रह गया है।
11 सितंबर के इस कोरस में मीडिया ने उस असली व ज्यादा गहरे संकट का जिक्र तक नहीं किया, जिसके कारण सर्वशक्ति संपन्न अमरीका और उसके शक्तिशाली यूरोपीय क्षत्रप सूखे पत्तों की तरह कांप रहे हैं। क्या यह सिर्फ भूल से हुई अनदेखी या चूक थी? या आर्थिक विफलता के हाथी को श्रद्धांजलि के फूलों से ढांपने की बचकानी कोशिश? चार साल पहले 2007 में इसी सितंबर के महीने में अमरीका की बैंक, बीमा कंपनियां और बड़े उद्योग समूह भरभरा कर गिर पड़े थे। एक के बाद एक पिटे दिवालों की श्रंखला ने सिर्फ अमरीका ही नहीं पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को अब तक के सबसे जटिल व विराट आर्थिक संकट की भंवर में फंसा दिया था। यह संकट इस दौरान काबू में आना तो दूर अपने नए आयामों के साथ पूरे यूरोप पर मंडरा रहा है। शुतुरमुर्ग की तरह आंख मूंद लेने से खतरे नहीं टलते। मगर जिस तरह इस संकट के शुरू होने के एक वर्ष बाद तक अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आई एम एफ) ने ऐसे किसी संकट की संभावना तक से इन्कार करना जारी रखा था। अमरीकी वित्तमंत्री व अमरीकी संघीय बैंक के प्रमुख एक साल बाद तक सिर्फ च्च्थोड़ी सी समस्याओंज्ज् की बात कर रहे थे। ठीक उसी तरह सितंबर 2011 में भी, चार साल बाद भी, इनमें से कोई भी इस आर्थिक झमेले के बारे में मुंह खोलने को तैयार नहीं है।
सिर्फ याद ताजा करने के लिए बता दें कि इस संकट की शुरूआत, जिनके बारे में सोचा तक नहीं जा सकता था उन महाकाय कंपनियों के दिवालिया हो जाने से हुई थी। बीयर स्टर्न, फ्रैडी मैक, फैनी मेई, लेहमान ब्रदर्स, सिटी बैंक जैसी कई कई देशों के इकट्ठा वार्षिक बजटों से ज्यादा बजट वाली कंपनियों का दिवाला पिट गया था। इन्हें बचाने के लिए अमरीकी सरकार ने अपने खजाने को उड़ेल कर रख दिया था। तुरत फुरत 160 अरब डॉलर इनके घाटे के समुद्र को पाटने के लिए डाले गए। कुछ ही महीने बाद अमरीकी प्रशासन 750 अरब डालर का बेल आउट पैकेज लेकर आया। अकेले ए आई जी नाम की निजी बीमा कंपनी के कोष में 350 अरब डालर उडेल दिए गए। मगर क्या कोई निर्णायक फर्क पड़ा? नहीं। उस वक्त खुद अमरीकी राष्ट्रपति ने इन कंपनियों के डायरेक्टरों के लालच को कोसा था और अफसोस जताया था कि बेल आउट पैकेज के पैसे से कंपनियों का पुनरोद्धार करने की बजाय इन डायरैक्टरों ने बोनस और बढ़े हुए भत्तो के नाम पर लाखों डालर खुद हड़प लिए।
मामला सिर्फ डायरैक्टरों (या पूंजीपतियों) के लालच या कुप्रबंध का नहीं था। समस्या खुद पूंजीवाद की थी। संकट व्यवस्थापकों की अदूरदर्शिता के कारण नहीं जन्मा था-इसे खुद व्यवस्था ने जन्म दिया था। लिहाजा अरबों खरबों डालर सरकारी पैसा (असल में जनता का पैसा) उड़ेलने के बाद भी तलहटी सूखी की सूखी रही, व्यवस्था का धरातल चटकता रहा, रोजगार और इंसानियत को निगल लेने वाला दलदल फैलता रहा।
इंग्लैंड के युवाओं का आक्रोश दंगों के रूप में फूट रहा है तो ग्रीस, स्पेन, पुर्तगाल, आयरलैंड, इटली की सरकारें और अर्थव्यवस्थायें संकट के इस अंधड़ में अस्थिर हो रही हैं। खुद अमरीका को अपनी रोजमर्रा की अदायगियों के लायक पैसा जुटाने में दिक्कत हो रही है। डैमोक्रेट राष्ट्रपति ओबामा को रिपब्लिकन पार्टी के आगे घुटने टेककर ऐसी शर्तें कबूल करनी पड़ी हैं जिनकी वजह से खुद उनके शब्दों में च्च्अमरीका का घरेलू खर्च आइजनहावर के 1950 के जमाने के निम्रतम स्तर तक पहुंच जायेगा।ज्ज्
जो निदान ढूंढे जा रहे हैं वे मौजूदा रोग से ज्यादा खतरनाक हैं। इस संकट से बाहर निकलने के ये कथित उपाय और कुछ नहीं, एक नए और ज्यादा बड़े संकट को न्यौता देना है। सिर्फ दो उदाहरणों (अमरीका व ग्रीस) से इसे समझा जा सकता है। हाल के भुगतान संकट से उबरने के लिए राष्ट्रपति ओबामा ने टी पार्टी गिरोह के एजेंडे पर चलने वाली रिपब्लिकन पार्टी के साथ जो सौदा किया है, उसके मुताबिक अगली 10 वर्षों में सरकारी खर्च (जन सुविधाओं के लिए किए जाने वाले खर्च) में करीब ढाई ट्रिलियन डॉलर (ढाई लाख करोड़ डालर) की कटौती की जायेगी। नौ सौ अरब डालर सीधे जनता के खर्च (सामाजिक सुरक्षा व मेडिकल सहायता) में से काटे जायेंगे। इसी के साथ अगले 10 वर्षों तक रईसों पर किसी भी तरह का टैक्स नहीं लगाया जायेगा। इसका अर्थ यह है कि इस घाटे की पूर्ति के लिए डेढ़ लाख करोड़ डालर और जुटाने होंगे। अब चूंकि रईसों पर टैक्स नहीं लगना है लिहाजा जनता से ही इन्हें वसूला जायेगा। दूबरे के लिए दो दो आषाढ़। यह भारी कटौतियां आर्थिक गतिविधियों का और संकुचन करेंगी। जरा सोचिए, जिस अमरीका में बेरोजगारी 9.2 प्रतिशत की ऊंचाई और विकास दर 1.3 प्रतिशत की नीचाई पर हो-वहां इस समाधान के क्या असर होने वाले हैं!!
लगभग दीवालिया हो जाने की कगार पर जा पहुंचे ग्रीस को आई एम एफ ने कुल 110 अरब डालर का बेल आउट पैकेज देने की जो कीमत वसूली है उसे देखकर निर्मम से निर्मम सूदखोर शरमा जाये। इस पैकेज के मुताबिक फिलहाल ग्रीस को 17 अरब डालर मिलेंगे। जिसकी एवज में उसे अपने खर्च में 14 अरब डालर की कटौती करनी पड़ेगी, 14 अरब डालर के नए टैक्स (रईसों पर नहीं) लगाने होंगे और अगली 4 वर्षों में सरकारी संपत्ति बेचकर 50 अरीब डालर जुटाने होंगे। यह कड़वी जानलेवा खुराक उस ग्रीस को दी जा रही है जहां कुल 110 लाख की आबादी है और इसमें से 855,719 बेरोजगार हैं।
अमरीका और यूरोप में इस संकट से उबरने के समाधान जिस नुस्खे पर आधारित हैं वह सार्वजनिक खर्च में कटौती, वेतन जाम, वेतन में कटौतियां, रिटायरमेंट की उम्र बढ़ाने पर टिका है। इसका मतलब है जनता की खरीदने की ताकत का और सिकुडऩा, रोजगार का घटना। नए रोजगार पैदा न हो और आर्थिक अस्थिरता के चलते निजी निवेशों का ठहर जाना। इस तरह यह चौबे जी का छब्बै बनने के लिए निकलना है और निर्वेदी होकर लौट आना।
कोई और समझे या न समझे इस अवश्यंभावी तूफान की भयानकता को पूंजीपतियों का एक हिस्सा जरूर समझ रहा है। यही वजह है कि दुनिया के सबसे रईस व्यक्ति वारेन बफेट ने खुद अपने सहित रईसों से ज्यादा टैक्स वसूलने की पेशकश करके एक नई ध्यान बंटाऊ बहस छेड़ दी है। फ्रांस के निजी उद्योगों के महासंघ के अध्यक्ष लेवी सहित फ्रांस के 16 सबसे धनी व्यक्तियों ने संयुक्त हस्ताक्षर के साथ इसी तरह की अपील जारी की है। जर्मनी के 50 सबसे धनाढ्य लोगों और इटली में फैरारी कंपनी के मुखिया ने इस पेशकश की हिमायत की है। यह खैरात ऐसे ही नहीं बंट रही है। इसके पीछे एक बड़ा कारण है। आर्थिक अस्थिरता के चलते चूंकि निजी निवेश रूका हुआ सा है इसलिए बाजार में जान डालने का एक ही रास्ता सरकारी निवेश बढ़ाये जाने का बचता है। सरकारी निवेश की फायर ब्रिगेड में अपने टैक्सों की दो दो बाल्टियां डालकर चंद पूंजीपति इस फैलती आग को बुझाने या काबू में रखने का मंसूबा साध रहे हैं। मगर क्या इससे समस्या सुलझेगी?
भारत के पूंजीपति इस दिखावटी आहुति के लिए भी तैयार नहीं हैं? जी डी पी के अनुपात में दुनिया में सबसे कम प्रत्यक्ष कर भारत में है। बमुश्किल 3 फीसदी लोग इन्कम टैक्स रिटर्न फाइल करते हैं। इनमें से भी बहुतेरे वेतन भोगी कर्मचारी हैं। भारतीय कारपोरेट घराने जो आबादी का 0.1 प्रतिशत भी नहीं है 20 प्रतिशत राष्ट्रीय आमदनी पर कब्जा किए बैठे हैं।
आधी से ज्यादा देश की आबादी की कुल आमदनी से ज्यादा उनकी आमदनी है। इन पर टैक्स कितना है? एक बड़ी कंपनी का एम डी या मालिक वेतन भत्तों के रूप में यदि 30 करोड़ रूपये लेता है तो डिविडेंड्स के रूप में उसकी आमदनी एक हजार करोड़ रूपये होती है। डिविडेंड्स की आय पर कोई टैक्स नहीं है। लिहाजा 1030 करोड़ रूपये की आमदनी के बाद इस भद्र पुरूष को मात्र 10 करोड़ रूपये (0.01 प्रतिशत) ही टैक्स चुकाना पड़ता है। यह भी कागजी हिसाब किताब है। असल में तो इसकी भी चोरी होती है। तकरीबन ढाई लाख करोड़ रूपयों की टैक्स अदायगियां दाबे बैठा है भारतीय कारपोरेट कुनबा। इसके अलावा किसी न किसी बहाने कुल 5 लाख करोड़ रूपये की टैक्स रियायतें अलग हैं। इसमें काला धन और जोड़ दीजिए और फिर अंदाजा लगाइये कि कितना पैसा हुआ?
जड़ की बीमारी की दवा पत्तों और कोंपलों में तलाशने से काम नहीं चलने वाला। सदिच्छाओं और सद्वचनों का कलमा पढऩे से जिबह करने वाली छुरी फूल में नहीं बदलती। जनता की बात अलग रही, पूंजीवाद के पास खुद अपनी हिफाजत करने का कोई समाधान नहीं है।
यही वजह है कि अमरीकोन्मुखी मीडिया को 11 सितंबर 2001 तो याद रहता है, सितंबर 2007 को भूलना ही उसे श्रेयकर लगता है।
 http://www.lokjatan.com से साभार 

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