ग्लोबल वार्मिंग: पूंजीवाद की केन्द्रियता और वर्ग Global warming: The Centrality of Capitalism and Class


ग्लोबल वार्मिंगपूंजीवाद की केन्द्रियता और वर्ग 

 Global warming: The Centrality of Capitalism and Class


 नागराज 

 हालांकि यह स्वप्रमाणित सत्य जैसा है लेकिन इसे समुचित ढंग से नहीं समझा गया कि ग्लोबल वार्मिंग की समस्या ढाई सौ वर्ष पूर्व औद्योगिक पूंजीवाद के आरंभवृद्धि और विस्तार से कितनी गहराई से जुड़ी है। 18वीं सदी के पहले प्राचीन और मध्यकाल के समाज में ऊर्जा स्रोत के रूप में ज्यादातर लकड़ीबायोमासहवासूरजऔर जानवरों का गोबर आदि प्रयोग किया जाता था। पूर्व पूंजीवादी समाज की वृद्धि बहुत ही कम थी क्योंकि एक तो पारंपरिक स्रोतों से कम ऊर्जा मिलती थी और दूसरे आर्थिक तंत्र पर सामंती प्रभुत्व स्थापित था। 

    कोयले के खनन और अन्य आर्थिक गतिविधियों और बाद में कारखानों में तेल और गैस के प्रयोग से काफी ऊर्जा प्राप्त होने लगी। ऐसा नहीं है कि व्यापारपरिवहनखननसंसाधनों का दोहन और युद्ध 18वीं सदी से पहले नहीं हुए। नए एवं निर्मम आर्थिक तंत्र जिसे हम पूंजीवाद कहते के तहत ऊर्जा स्रोतों का सघन दोहन मानव इतिहास में वृहद पैमाने परबड़े भौगोलिक दायरे में अभूतपूर्व ढंग से तीव्रता और हिंसा के साथ हुआ।  ऊर्जा के लिए जैविक ईंधन के प्रयोग से कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन में वृद्धि हुई। यह उद्घाटित हो रहा है कि औद्योगिक क्रांति से पूर्ववर्ती आठ हजार वर्षों में वातावरण में कार्बन डाई आक्साइड की वृद्धि बहुत कम हुई,  बमुश्किल 20 पार्टस पर मिलियन (पीपीएम) (260 से 280पीपीएम) संभवतया यह मानव समाज के बनने और विस्तार लेने के क्रम में जंगलों के कटान के कारण हुआ। 

औद्योगिक क्रांति  के बाद से कार्बन उत्सर्जन में अचानक एक तिहाई से भी अधिक लगभग 389 पीपीएम की वृद्धि हुई।

20वीं सदी के मध्य तक उत्सर्जन का कारण कारों की संख्या में बढ़तनागरिक परिवहन और युद्ध में विमानों का इस्तेमालऔर स्टील के बजाय अल्यूमिनियम का प्रयोग था। जाहिर है यह सब अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन से जुड़ी हुई गतिविधियाँ हैं। द्धितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका के आर्थिक वृद्धि के कारण परिस्थितियां बदतर होती गयी (जोकि काले मजदूरोंचीनियों एवं युरोपीय प्रवासियों की पीढीयों  के दम पर हुआ था और जिसका लाभ द्धितीय  विश्वयुद्ध के बाद मजदूर वर्ग के छोटे से तबके में सिमट कर रह गया जब चार्ल्स  कीलिंग ने सबसे पहले वर्ष 1958 में वातावरण में कार्बन डाई आक्साइड की माप की तब पता चला कि यह 315 पीपीएम है। 1965 से 1975 के दषकीय अंतराल में पहली बार यह मात्रा एक पीपीएम प्रति वर्ष बढ़ी। 

उत्सर्जन और कार्बन डाई आक्साइड का स्तर पिछले 15वर्षों में बढ़ता गया। जिन क्षेत्रों में औद्योगिक पूंजीवाद का विस्तार प्रथम चरण में एवं सीमित था अब वहां भी स्थिति भीषण हो चुकी हैं। चीन इसका एक उदाहरण है। इसका स्पष्ट व्यवस्थागत कारण है। पूंजी की दृष्टि के तहत तुलनात्मक रूप से सस्ते ऊर्जा स्रोत (कोयलाऔर श्रम शक्ति  (विस्थापित चीनीके साथ चीन में उत्पादन का विस्तार हुआ। यदि कोई ग्लोबल वार्मिंग का केंद्रीय संबंध पूंजीवाद (वर्ग और उपभोगसे नहीं समझतामतलब उसने  समस्या की उचित व्याख्या नहीं की है और तब इससे निपटने में कोई उम्मीद नहीं बचती। 

हालिया आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2007 में दुनिया भर में 34 से 35 बिलियन टन कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जन हुआ। जिसमें 29 बिलियन टन जैविक ईंधन (कोयलातेल और गैसके जलने और 5 से 6 बिलियन टन जंगलों की कटान के कारण था। जैविक ईंधन की कुल खपत में 40 फीसदी सभी तरह के परिवहन में, 24 फीसदी उद्योगों में, 23 फीसदी कृषिसेवा और आवासीय क्षेत्र में (संयुक्तऔर 13 फीसदी रासायनिक उद्योगों के कच्चे माल के रूप में हुई। ऐसा नहीं है जो कुछ भी उत्सर्जित हो वह वातावरण में ही रहता है। लगभग आधी कार्बन डाई आक्साइड (वर्तमान में लगभग 17बिलियन टन कार्बन डाई आक्साइड प्रति वर्षपृथ्वी द्वारादो-तिहाई समुद्र और एक-तिहाई जंगल एवं घास के मैदान आदि के द्वारा    अवशोशित   होती है। चूंकि लगभग 8 बिलियन टन कार्बन डाई आक्साइड एक पीपीएम के बारबर होता है जिससे वातावरण में संतुलन बना रहता है। पहली बार हम 2 पीपीएम प्रति वर्ष से ज्यादा उत्सर्जित करने लगे हैंजबकि हमें इसमें अत्यावष्यक रूप से कटौती करनी चाहिए। 

प्रत्येक साल 17 बिलियन टन कार्बन डाई आक्साइड का पृथ्वी द्वारा  अवशोशित होना बेहद संगीन है और इससे कई नतीजे निकलते हैं। पहलायदि तापमान की वृद्धि कम करनी है तो हमें जल्द कुल उत्सर्जन 17 बिलियन टन या इससे कम करने की जरूरत होगी। दूसरामहासागरों द्वारा लंबे समय तक कार्बन डाई आक्साइड के अवषोषण से सागर अम्लीय हुए और महासागर की आहार श्रंखला में नीचे की प्रजातियां नष्ट हो रही हैं। जैसे की फाइटो प्लैंक्टन और मूंगा। तथा अन्य सागरीय प्रजातियों एवं मानव पर आंषिक प्रभाव पड़ रहे हैं। मौजूदा उत्सर्जन की दर 17 बिलियन टन सापेक्षिक होते हुए भी वांछनीय है।   

वर्ग और उपभोग की केन्द्रीयता 
The centrality of class and consumpation


यदि इन आंकडों को  दुनिया की जनसंख्या में समान रूप से बांटा जाए तो यह परिणाम मिलता है कि पृथ्वी का प्रत्येक व्यक्ति प्रति वर्ष मोटे तौर पर 2.5 टन कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन का हकदार  था। महासागरों के गर्म होने के कारण कार्बन डाई आक्साइड के अवषोषण की क्षमता दो टन प्रति व्यक्ति से कम हो रही है। एक व्यक्ति कितना कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जित करता है यह किसी के व्यक्तिगत या सामूहिक (परिवार या समुदायजीवनशेली  पर निर्भर करता है। मसलन कोई कितना उपभोग करता हैकिसी के पास कितने कमरेपंखेबिजलीबिजली के उपकरण और किस तरह के उपकरण हैंकोई परिवहन के लिए क्या इस्तेमाल करता है और कोई कितना प्रत्यक्ष या सम्मलित रूप से उत्सर्जन करता है। 
   

भारत सरकार की सचेतन योजनाओं का सीधा असर पिछले 20 वर्षों में देखा गया - मसलन् सस्ती हवाई यात्रासस्ती कारेंऊर्जा की ढेरों खपत करते शहरी मॉडल , अभिजात्य उपभोग की वस्तुओं के आसान आयातसस्ते और टिकाऊ सामान और बड़े पैमाने पर बैंकों में नौकरियांआईटी और अन्य उद्योगों और वित्तीय दुनिया में नौकरियों का विस्फोट हुआ। यद्यपि कल-कारखानों के मजदूरों का वेतन ठहर गया है (आनुपातिक उत्पादन लागत मूल्य की तुलना में कम) 1990 के दशक में अमीर और पूंजीपतियों की आय पर  व्यक्तिगत आयकर कम किए गए और ऊपरी तबके की आय अचानक बढ़ी।  इसकी वजह से खनिजऊर्जाकार्बनपानी और दूसरे अन्य आवष्यक संसाधनों की अभिजात्य खपत को बढ़ावा मिला। 

सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है। अर्जुन सेन गुप्ता आयोग की रिपोर्ट (असंगठित क्षेत्रों में कार्य की परिस्थिति और आजीविका की वृद्धि पर आधारितके अनुसार 836 मिलियन भारतीय बीस रूपए प्रतिदिन से कम का उपभोग करते हैं। जिनमें 82 फीसदी गरीब औरतें ,  दलितआदिवासीनिम्न पिछड़ा वर्ग और गरीब मुस्लिम हैं। उपभोग की दर के अनुसार प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 2 टन से काफी कम है।  जब लोग जनसंख्या को अत्यधिक उत्सर्जन और समाज में व्यवस्थागत बुराईयों का कारण बताते है तो वे इस तथ्य की अवहेलना करते हैं कि इस देष में बहुसंख्य निम्न वर्ग की कमाई और खपत का स्तर काफी कम है। इस प्रकार उनके द्वारा फैलायी जा रही गंदगीजल प्रदुषण या काबर्न उत्सर्जन स्वीकार्य मानकों से आवष्यक रूप से काफी कम है। 

परिणाम भुगतते गरीब भारतीय
Impacts are already hurting the poor in India


गरीब व्यक्ति जो पहले से ही कठिनाई में हैं वे जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर झेल रहे हैं। अमूमन लोग जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के बारे ऐसे बात करते हैं जैसे कि यह भविष्य में घटने वाली घटना हो। असल में पिछले 10-15 वर्षों में यह समस्या कई राज्यों और क्षेत्रों में फैलती गई है। लोगों ने अब यह स्वीकार करना शुरू  किया है कि 15 वर्ष पहले जो उन्होंने महसूस किया था उसका कारण जलवायू परिवर्तन था। 

जलवायू परिवर्तन का असर भिन्न-भिन्न क्षेत्रों और पारिस्थितिकी तंत्र पर हो रहा है। इससे शायद ही भारत या दुनिया में कोई क्षेत्र या राज्य अप्रभावित होगा। अधिकांश इलाकों में बरसात में महत्वपूर्ण बदलाव हुआ है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार संकेत हैं कि जुलाई में होने वाली वर्षा का स्तर सामान्य से कम हुआ है। और जाड़ों में होने वाली बरसात भी कम या अनियमित हुई है। कम समय में अत्यधिक बरसात हो रही है। पहले तीन महीने में जितनी बारिश होती थी अब उतनी 15 दिनों में हो जा रही है। जिससे मिट्टी की ऊपरी परत को क्षतिबाढ़ और गैर मानसूनी महीनों में पानी की आपूर्ति प्रभावित होती है। इस सबका आशय है कि खरीफ और रबी दोनों फसलों पर तो असर पड़ ही रहा हैसाथ ही अन्य महीनों के मध्य होने वाली अतिरिक्त फसलें भी प्रभावित हो रही हैं। भारत में जो किसान सिंचाई के लिए पूरी तरह से  बरसात के पानी पर निर्भर रहते हैं उनपर जलवायु परिवर्तन की गहरी मार पड़ी है। गौर करने लायक बात यह है कि कृषि में संलग्न तबका गरीबदलित तथा अति पिछड़ा वर्ग है। 

बुंदेलखंड में कृषि की खस्ता हालत और सूखते जल स्रोतों के कारण कई हिस्सों से बड़े पैमाने पर लाखों लोगों का पलायन हुआ है। लोगखासकर छोटे किसान और खेतिहर मजदूर अपने पषुघरबार छोड़कर सूरतआगरागुडगांवदिल्ली और दूसरे षहरों में काम की तलाश  में निकल गए हैं। बुंदेलखंड की परिस्थितियों से एक चीज स्पष्ट है कि समाज के अन्य तबकों के मुकाबले गरीब औरतें जलवायु परिवर्तन के कारण भारी मुसीबत झेल रही हैं और यह स्थिति जारी रहने वाली है। 
हाल ही में हुई जन सुनवाई के दौरान हिमालयी राज्यों (जम्मू-कष्मीरउत्तराखंडहिमाचलसे आये लोगों ने यह बताया कि मध्य से उच्च स्थानों (6000 से 9000 फीटपर बर्फबारी कम हुई है। गर्म होती सर्दियाफलों  अन्य फसलों का उच्च स्थानों पर स्थानांतरणनए क्षेत्रों में मच्छरों का फैलावसुखती जलधाराएंबड़े ग्लेष्यिरों का पिघलना एवं छोटे ग्लेष्यिर का गायब होना आदि ने लोगों के जीवन में पानी के स्रोतोंकृषि और आजीविका पर गहरा प्रभाव ड़ाला है। 

तटीय क्षेत्रों (खास कर पूर्वी तटमें लोगों ने तुफानी प्रवाह की आवृत्ति में वृद्धि महसूस कीफलस्वरूप बाढ़ आई और खेत लवणीय हो गए। इन क्षेत्रों में मछलियां तटों से दूर चली गईं। वनीय स्थलों पर रहने वाले लोगों को भी प्रजातियों के उच्च क्षेत्रों में चले जानेजैव विविधता की क्षतिकीटों की संख्या में बेतहाषा वृद्धिजंगलों की आगकुछ औषधीय पौधों की कमी और जंगली प्रजातियों और घास के मैदानों की कमी आदि से कठिनाई हो रही है। 

ग्लोबल वार्मिंग का दबाव
The exigency of global warming 


ऊपर जिन प्रभावों की चर्चा की गई हैवे निष्चित ही बदतर होगें और साथ ही गरीबों को प्रभावित करेगें। वैज्ञानिकों के अनुसार वर्तमान प्रभाव 25 से 30 वर्ष पहले के कार्बन उत्सर्जन के कारण है। पिछले 30 साल के कार्बन उत्सर्जन के प्रभावों का असर होना अभी बाकी हैं।
औद्योगिक क्रांति से अब तक दुनिया 0.8 डिग्री सेल्सियस की दर से गर्म चुकी है। यह पूरी दुनिया की औसत दर है। दुनिया की कुछ जगहें ज्यादा तेजी से गर्म हो रही हैं जैसे आर्कटिक और मध्य हिमालय के क्षेत्र (इन दोनों विशाल क्षेत्रों में पहले ही भयंकर प्रभाव देखा गया है)

वार्मिंग की 0.8 डिग्री सेल्सियस की औसत वुद्धि दर में 0.6 डिग्री की औसत बढ़ोत्तरी को अनदेखा नहीं किया जा सकता। पृथ्वी के अधिकांश हिस्से पर महासागर हैं जिसे गर्म होने में समय लगेगा। अतः हम अपरिहार्य रूप से  1.4 डिग्री सेल्सियस तापमान  की उच्च अवस्था तक पहुचेगें। ग्लोबल वार्मिग से निपटना इस लिए अत्यावष्यक है क्योकि हम ग्लोबल वार्मिग के खतरनाक स्तर तक पहुच रहे हैं। यह पूरी तरह माना जा चुका है कि औद्योगिक क्रांति के बाद से यह स्तर 2 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला गया है। लेकिन कितने पीपीएम कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन पर स्थिति खतरनाक हो जाएगी इस बारे में अनिष्चितताएं बरकरार हैं। कोपनहेगन में छोटे द्वीप राष्ट्रों का मत है कि हमें सुरक्षा की दृष्टि से तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस की बजाय 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना  चाहिए। दुनिया के शीर्ष  मौसम वैज्ञानिक जेम्स हैसन (गोदार्द इंस्टीट्यूट,नासापिछले वर्ष प्रकाषित शोध  पत्र में पहले ही कह चुके हैं कि कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन की वर्तमान 389 पीपीएम की दर खतरनाक है। इसे 350 पीपीएम तक लाना चाहिए।  

खतरा सिर्फ प्रत्यक्ष उत्सर्जन से नहीं है। गर्मी से पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव  रहे हैं। आर्कटिक क्षेत्र की बर्फ का पिघलना ग्लोबल वार्मिग में सकारात्मक योगदान दे रहा है। आर्कटिक क्षेत्र की बर्फ का पिघलना हमारे लिए एक बड़े आईने के समान है। बर्फ के सिमटते क्षेत्रफल के कारण ज्यादा से ज्यादा गर्माहट गहरे पानी द्वारा अवषोषित की जा रही है। आर्कटिक क्षेत्र की बर्फ अब उन ऐसे हिस्सों से भी पिघल रही है जहाँ पिछले हिम युग से बर्फ जमी हुई थी। करोड़ों टन मीथेन गैस इस बर्फीली सतह के नीचे मौजूद हैं। वर्ष 2005 में सबसे पहले रूसी वैज्ञानिकों ने बताय कि पिघलते हुए टुण्ड्रा प्रदेश से मीथेन का रिसाव हो रहा है। अगर सौ वर्ष की अवधि में गणना की जाए तो मीथेन गैस कार्बन डाई आक्साइड की अपेक्षा 23 गुना ज्यादा गर्मी पैदा करती है। अन्य उदाहरणों से स्पष्ट है है कि सागर की कि कार्बन डाई आक्साइड की अवषोषण क्षमता कम हुई हैइसमें ठहराव आया हैखासतौर पर दक्षिणी सागरीय क्षेत्रों में गर्म होते पानी की वजह से अवषोषण क्षमता घट रही है। कार्बन डाई आक्साइड जितना कम सागर द्वारा अवषोषित होगा उतना ही अधिक वायुमण्डल में रहेगा जो कि आगे और वार्मिग का कारण बनेगा। 

यदि इनमें से कोई भी बड़ा पारिस्थितिकीय असर एक खास बिंदु को पार कर जाए या ज्यादा सघन हो जाए तो यह मानव द्वारा नियंत्रित करने की क्षमता के पार हो जायेगा।  हम भयावह स्थितियों के करीब हैं और इससे निपटना अत्यंत जरूरी है। जलवायु का इतिहास बताता है कि मौसम का बदलाव निर्विघ्न एवं एक रेखीय नहीं होता है। ये अकस्मात् या विषम हो सकते हैं  

राष्ट्र-राज्यों की अविष्वसनीयता   

ग्लोबल वार्मिग के मुद्दे पर जिस तत्परता की जरूरत है दुर्भाग्य से कोपेनहेगन में  तो भारत सरकार में दिखी और  ही दूसरे देषों की सरकारों में। मुख्य समस्या यह है कि ये सभी राष्ट्र-राज्य अपने -अपने आंतरिक  अभिजात्य वर्ग और कार्पोरेटों के हितों को ही आगे बढ़ा रहे हैंजबकि यह समस्या काफी बड़ी है जिसकी जड़े इस पूंजीवादी तंत्र में है  जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है। 

पिछले कुछ महीनों में राष्ट्र-राज्यों का अडि़यल रूख रहा है। यूरोपीय संघ की प्रतिबद्धता कमजोर हुई है। संयुक्त राज्य की ओर से अस्थायी रूप से 1990 के स्तर से ( 2005 के हिसाब से 17 प्रतिषत कटौती ) चार फीसदी कटौती का प्रस्ताव हास्यास्पद है। इतनी कम कटौती के प्रस्ताव का भी वहां के अभिजात्य राजनीतिज्ञ विरोध कर रहे हैं। चीनी सरकार ने उत्सर्जन की सघनता में 40 फीसदी की कटौती की घोषणा की है। लेकिन अर्थव्यवस्था में तेजी के साथ ही उत्सर्जन भी बढ़ेगा। लेकिन अमेरिका को पीछे छोड़कर चीन दुनिया का सबसे बड़ा उत्सर्जक बन गया है। भारत सरकार की ओर से जयराम रमेश  ने संसद में 2020 तक 20 से 25 फीसदी कटौती की बात कही है जो काफी कम है। सरकार वृद्धि और विकास के नाम पर पीछे नहीं हट रही है जबकि यह स्पष्ट है कि विकास  की इन नीतियों का मुख्य फायदा केवल उच्च मध्य वर्ग और अभिजात्य वर्ग को ही मिलता है। इस जटिल और महत्वपूर्ण समस्या के लिहाज से हमें कोपनहेगन में कुछ खास नहीं मिला। यह कुछ ऐसा है जैसे मृत्यु के कालक्रम की भविष्यवाणी कर दी गई। 

क्या किया जाना चाहिए

इतनी जटिलऐतिहासिक एवं वैष्विक समस्या से निपटने के लिए दिया गया कोई भी सुझाव अधूरा और आजमाइश भर हो सकता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि विभिन्न स्तरों पर तत्परता से आगे बढ़ने की जरूरत है। उत्सर्जन में कटौती के दोनों पहलू - वैयक्तिक स्तर पर खपत और समग्र सार्वजनिक नीति परस्पर जुड़े हुए हैं। वैयक्तिक (उच्च मध्य वर्ग और उच्च वर्गस्तर पर उपभोग और उत्सर्जन में कमी का महत्व कहीं ज्यादा है जबकि ऐसा माना नहीं गया है। लेकिन वे खुद इसे नहीं करेंगे। इसके लिए उनको उपभोग में कटौती के लिए बाध्य किए जाने की जरूरत है। हमें ऐसा करते करने के लिए समता को केन्द्र में रखना होगा। गरीब ज्यादा उत्सर्जन के हकदार हैं। ये तब संभव है जब अमीर कम उपभोग करें। 
हालांकि सरकारें ऐसा नहीं करेंगीलेकिन बीस वर्षों से जारी असमान आर्थिक नीतियां बदली जा सकती है। अपव्यय और अभिजात्य जीवन षैली के बारे में उचित दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। जलवायु परिवर्तनभूजल स्तर में कमी और पूंजीवाद से पनपे अन्य पारिस्थितिकीय खतरों से साफ है कि अभिजात्य वर्ग अति कर चुका है। 
सरकार पर इस बात के लिए दबाव डालने की जरूरत है कि वह हवासौर ऊर्जा और बायो मास से चलने वाली छोटी तकनीक को स्थाई और विकेंद्रीकृत रूप में निष्चित ही गांवों और कस्बों तक पहुंचाए। तकनीक और ऊर्जंा स्रोतों को गरीब व्यक्ति की मूलभूत आवष्यकताओं से जोड़ने की जरूरत है। 

यद्यपि कार्बन उत्सर्जन में कटौती एक समस्या बन चुकी है। 1990 के शुरूआती दौर में रूस और पूर्वी यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएं (उन देषों में गरीब औरतों और कामगारों पर कुप्रभाव डालते हुएढह गईं। उनका कार्बनडाई आक्साइड उत्सर्जन 37 फीसदी कम हुआ। अब हम यह मांग कर रहे हैं कि औद्योगिक दुनिया उत्सर्जन में वर्ष 2020 तक कम से कम 50 फीसदी और 2050 तक 90 फीसदी कटौती करे। लेकिन रोजगार और सामाजिक सुरक्षा पर इसका क्या असर होगाकिस तरह के आर्थिक  और सामाजिक प्रबंध हो ताकि उत्सर्जन में भी कटौती हो तथा नौकरियों और आजीविका भी संरक्षित हो सके?

उत्सर्जन में कटौती के बावजूदइसके प्रभावों से समांजस्य बिठाना एवं निपटना काफी कठिन है। पहले से ही कठिन समस्या और कठिन हो रही है। इसलिए आवष्यक है कि स्थिति का अनुमान लगाकर इससे निपटने के लिए तैयार रहने की जरूरत है। इसके लिए ऐसी जनसंस्थाओं की जरूरत है जो अपने क्षेत्रों में कृषिजलआजीविका आदि मूल क्षेत्रों पर प्रभावों के बारे में सर्वे करे। कैसे छोटे किसाननिर्धन औरतें और अन्य लोग बदलाव से समांजस्य बिठा रहे हैंमहत्वपूर्ण यह है कि क्या सफल है। सफल तरीकों की जानकारी दूर तक ले जानी चाहिए। सरकार की अब तक लापरवाहअसंवेदनषील और अपरिपक्व प्रतिक्रिया में यह तत्परता दिखनी चाहिए। 

मैं यह कतई नहीं सोचता हूँ कि हम वार्मिग के खतरनाक स्तर को टाल सकते है। यह ऐसा खतरनाक भविष्य है जिसके बारे में विचार करना चाहिए। उदाहरणस्वरूप ख्याति प्राप्त जर्नल नेचर के एक लेख में  चार डिग्री दुनिया (जो 2070 तक हो सकती हैके बारे में लिखा है ‘‘अमेजनसहारा-सहेल-अरब क्षेत्रभारत और उत्तर आॅस्ट्रेलिया एक ऐसे तापमान का अनुभव कर सकते हैं जिसके लिए आज की जलवायु में स्थानिक अनुरूपता नहीं है। दूसरे शब्दों मेंइन क्षेत्रों में तापमान आज के किसी भी क्षेत्र की औसत तापमान की तुलना में ज्यादा हो जाएगा।‘‘ (नेचर रिपोर्टक्लामेट चेंज 3 दिसंबर 2009)

निष्कर्षतः ग्लोबल वार्मिंग शायद पूंजीवाद द्वारा उत्पन्न हुई सबसे बड़ी मानव केंद्रित पारिस्थितिकीय त्रासदी है। तकनीकक्षमताऔर पूंजीचालित अर्थव्यवस्था से इस समस्या को सुलझाने की उम्मीद करना बेवकूफी है। यह अपराधी से समाधान मांगने जैसा है। ग्लोबल वार्मिंग (पूंजीवाद द्वारा उत्पन्न मानव केंद्रित पारिस्थितिक त्रासदीने समानतास्थाई विकास की बहस को आगे बढ़ाया है।  मानव केंद्रित विष्व दृष्टि की सीमाओं को उजागर किया है। साथ ही इसमें विस्थापनखननबांधयुद्ध और समान पहुच के आंदोलनों को एकजुट करने की क्षमता है। उत्सर्जन में कटौती और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से न्यायसंगत ढंग से उसी सोषलिस्ट तरीके से निपटा जा सकता है जिसने 20वीं सदी की गलतियों से सबक लिया है। भविष्य की पीढि़यों और अन्य प्रजातियों को ध्यान में रखते हुए दूर-दृष्टि की आवष्यकता है।

No comments: