क्या हम धर्मनिरपेक्ष हैं …?

फौजिया रियाज़ 

तो आखिरकार ना सलमान रुश्दी हिन्दुस्तान आ सके और ना ही उन्हें वीडिओ कॉन्फ़रेन्स के दौरान देखा-सुना जा सका. जीत मिली तलवार हाथ में लिये और जायमाज़ कंधे पर टांगे हुए जाहिलों को. सफ़ेद कुर्ता पहने और लाल बत्ती की गाड़ी में बठे मतलब-परस्तों को, और सिरदर्द गया खाकी वाले टेबल तोड़ते कामचोरों का. तो फिर नुकसान किसका हुआ, जब भी कोई लड़ाई, जंग या बहस होती है. तो कोई ना कोई तो हारता है, किसी ना किसी का तो नुकसान होता ही है. हां, तो घाटे में गये फिर हर बार की तरह हम, हम लोग.



सलमान रुश्दी का हिन्दुस्तान ना आना हमारी हार है. उस देश की, उस जनता की जो खुद को उदार कहती है. उस शासन पर लानत है जो एक लेखक को कुछ घंटों के लिए भी सुरक्षा नहीं दिला सकता. राजस्थान पुलिस यह कह कर अपना पल्ला झाड़ती रही कि रुश्दी की जान को खतरा है, उनके नाम की सुपारी दी गयी है. पुलिस इस लिये है कि दंबगों को काबू में करके तयशुदा कार्यक्रम चलता रहने में मदद करे या इसलिये कि गुंडों की धमकी के बारे में जानकारी देकर आपको डर कर घर बैठने के लिए कहे. जो सोचते हैं, फ़र्क नहीं पड़ता कोई रुश्दी आये या ना आये. या समझते हैं, क्या हुआ जो ‘इन्टरनेट’ के खुले मंच पर धर्म का बैनर हाथ में लिए, जनसमूह की आवाज़ को दबाने की चाल चली जा रही है. वो ये नहीं जानते, साथ खड़े शख्स का कटता गला देख कर चुप रहोगे तो तुम भी मरोगे.

अगर हिन्दुस्तान धर्मनिरपेक्ष देश है तो फिर जब यहां धार्मिक व्यक्ति को पूजा-पाठ करने, मंदिर-मस्जिद जाने, अज़ान देने, घंटी बजाने, ताज़िया या मुर्तियां निकाल कर सड़क जाम करने की अज़ादी है. तो एक नास्तिक व्यक्ति को अपने विचार रखने की आज़ादी क्युं नहीं होनी चाहिए. अगर कोई मज़हब नहीं मानता और फिर भी हर रोज़ मन्दिर की घंटियों की आवाज़ उसके कान में जाती है या सुबह-सुबह ना चाहते हुए भी उसे अज़ान सुननी पड़ती है. तब वो नहीं चिल्लाता कि मेरी भावनाएं आहत हो रही हैं, तो फिर मज़हब वाले ही क्युं इतनी छुई-मुई हैं. इस सहनशील देश में अगर किसी ने आपके धार्मिक ग्रंथ के बारे में कुछ कह दिया तो आपने दंगों की धमकी दे डाली, किसी ने आपके पूजनीय देवता की पैंटिंग बना दी तो आपने तलवारें निकाल लीं. किसी ने कहा ये मज़हब बेरहम है आपने इस मजाल पर उसकी गरदन काट ली. जैसे ही किसी ने चूं तक की आपने उसके खिलाफ़ फ़तवा जारी कर दिया. और फिर फ़तवा जारी करने के बाद भी चैन नहीं. जब आप सलमान रुश्दी के खिलाफ़ फ़तवा जारी कर ही चुके हैं तो आपका उनसे कोई मतलब तो रहा नहीं वो कहीं भी आये जायें, कुछ भी कहें, कुछ भी करें. अब वो आप के मज़हब के तो रहे नहीं जो उनके कुछ ‘गलत’ कह देने से आपकी नाक कट जाएगी. फिर भी देवबंद जैसी दकियानूसी सोच वाली संस्था इस मुल्क में बड़ी शान से अपनी मनमानी करती है. अगर कोई मज़हब को नहीं मानता तो क्या उसे इस मुल्क में अपनी मर्ज़ी से जीने का, सोचने का, रहने का अधिकार नहीं है. किसी धार्मिक ग्रंथ के खिलाफ़ बोलने से या किसी मुर्ति या पैग़म्बर की कपड़ों या बिना कपड़ों की तस्वीर बना देने से हज़ारों मुक़दमे दर्ज हो जाते हैं. यहां तक कि धार्मिक संवेदनाओं को ठेस पहुंची कह कर हमारे कोर्ट फ़ैसले भी सुना देते है.

दुनिया भर में कभी किसी काफ़िर ने ऐसा कोई मुक़दमा नहीं किया कि फ़लां ग्रंथ पर प्रतिबंध लगाओ उसमें लिखा है काफ़िरों को आग में जलाया जायेगा. ना ही कभी ऐसा हुआ, किसी नास्तिक ने एफ़.आई.आर की हो कि होली में मुझ पर रंग डाला गया या दिवाली, क्रिस्मस या ईद की पार्टी के नाम पर मुझसे ऑफ़िस, कॉलेज या स्कूल में ’कम्पलसरी डोनेशन’ वसूला गया. अगर एक धार्मिक व्यक्ति अपने दिल की बात कह सकता है तो एक नास्तिक का भी शब्दों पर उतना ही अधिकार है. हमारा मुल्क किताबों पर रोक लगाने में तो महारथी हो ही चुका है. लेखकों, आर्टिस्टों को बेइज़्ज़त करने में भी हमने विदेशों में खूब नाम कमाया है, अब हममें इतनी भी सहनशीलता नहीं बची कि किसी लेखक को कम से कम सुन सकें. उस सरकार का क्या अर्थ जो अपने ‘पी.आई.ओ होल्डर’ लेखक को सुरक्षा के साथ एक आयोजन का हिस्सा न बनने दे सके. ऐसी सरकार या पुलिस पर हमें भरोसा क्युं होना चाहिए जो देवबंद नामी संस्था से डर जाए. ये सरकार कटपुतली है जो सही-गलत का फ़ैसला नहीं कर सकती. यह एक विशेष धार्मिक संस्था को इतनी शय देती है कि वो संस्था किसी के कानूनी अधिकार को छीन ले. और फिर यही सरकार धर्मनिरपेक्षता को अपनी ‘यू.एस.पी’ भी कहती है.

मुम्बई पुलिस के सूत्रों की खबर से ये बात सामने आयी है कि राजस्थान पुलिस ने सलमान रुश्दी को झूठ कह कर आने से रोका. हालांकि राज्य सरकार अपने इस दावे पर कि रुश्दी की जान को खतरा था अभी भी अड़ी हुई है. अगर ये बात सही है तब भी केंद्र सरकार, राज्य सरकार और पुलिस रुश्दी को सुरक्षा देने की ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते. क्रिकेटरों और फ़िल्मी सितारों को आये दिन जान से मारने की धमकी मिलती रहती है. ऐसे में इन सिलेब्रिटीज़ को ’ज़ेड’ सुरक्षा उपलब्द कराने में ग़ज़ब की तेज़ी दिखाई जाती है. उन्हें स्टेडियम में जाने या शूटिंग करने से रोका नहीं जाता है.

ये वो मुल्क है जो खुद को कलात्मक समझता है, पर अपने कैनवास के हीरो हुसैन को इज़्ज़त ना दे सका. ये वो मुल्क है जो कहता है हमारा ह्रदय विशाल है लेकिन पड़ोसी मुल्क की शरणार्थी लेखिका को रहने के लिये थोड़ी ज़मीन ना दे सका. ये वही मुल्क है जहां गुरुदावारे के तहखानों में कटारें, मन्दिर के आहाते में लठबाज़ और मस्जिद के कुतबों में नफ़रत की बू मिलती है. क्या हमें इसी हिन्दुस्तान पर गर्व है. क्या हम आने वाली पुश्तों को यही मुल्क सौंपना चाहते हैं

amfauziya.blogspot.in से साभार 

1 comment:

  1. लेखिका को बधाई बहुत अच्छा लिखती है बस एक बात का अफ़सोस है पढ़ती नहीं हैं! लिखने से पहले पढ़ना चाहिए था शैतानिक वेर्सेज़ को! बस ख़बरों से उठा लिया और समझ बना ली! मैं साफ़ किये देता हूँ की मैं कोई फासिस्ट या इस्लामिस्ट नहीं हूँ ना ही सेकुलरिस्ट मैं बड़े साफ़ सुथरे तौर पर ठोक बजा के जनवादी हूँ! सामाजिक व्यवस्थाएं नंगाकरण से नहीं बदला करती किसी का अपमान किये बिना ही बदलती हैं! मजेदार बात है की सलमान रुश्दी ने कुरान की कोई बात नहीं की है शैतानिक वेर्सेज़ में और जो बात की है वहां से जिब्राइल मुहम्मद और अन्य लोगों का नाम निकल कर रुश्दी उनकी माँ और बहन जैसे रिश्तेदारों का नाम रख दूँ तो वो खुद ही तिलमिला जायेंगे :) उनके वाक्यों को सार्वजानिक तौर पर बोलते हुए कई जगह बीप का प्रयोग करना पड़ेगा! सरकार शौचालय बनाने को पैसा देती है मगर दूसरों की ज़मीं पर नहीं और दुसरे की रसोई में तो कतई नहीं! आपको जो करना है अपनी परिधि में कीजिये! कुरआन के विरुद्ध अरुण शौरी खूब लिखते हैं इस्लाम के आलोचकों में मरियम नमाज़ी हौजान मुहम्मद जैसी मार्क्सवादी-नारीवादी अरब महिलायें पिछले दो दशक से खूब सक्रिय लेखन कर रही हैं! फतवा उनके खिलाफ नहीं जारी हो रहा है उनको आने से कोई नहीं रोक रहा है! ठीक वैसे ही एम् ऍफ़ हुसैन जो पेंटिंग बना रहे थे उसमे कुछ गलत नहीं गलती नामांकरण में थी और गलती भी नहीं सोची समझी साज़िश आखिर ऐसे लोग बाजारू हैं वो बाज़ार में बिकने के लिए विवाद पैदा करते हैं! क़तर में रहते हुए एकाध मुस्लिम विरोधी पेंटिंग बना देते तो उनकी कलात्मकता को मान लेता वैसे ही रुश्दी यु एस और यु के के विषय में कुछ वैसा लिख देते जैसे मिड डे चिल्ड्रेन में या शैतानिक वेर्सेज़ में लिखा तो मैं उनकी लेखनी की शक्ति की दाद देता और कहता बंद डरता नहीं मगर ऐसा नहीं हुआ एक बयाँ भी नहीं फुटा कभी इनके मुंह से! हुसैन बड़े नारीवादी बने फिरते रहे हिंदुस्तान में क़तर में क्यों लकवा मार गया उनके नारीवाद को क्या वहां औरतें बड़ी आज़ाद हैं! या इन्द्रा गाँधी की कहानी को रसिया कहानी बनाने वाले या शैतानिक वेर्सेज़ नाम से फतांसी नावेल लिखने वाले रुश्दी को किलिंटन की रसिया कहानी क्यों नहीं सूझी या फिर इसा का असली बाप कौन था क्यों नहीं खोजने की कोशिश की किसी फतांसी या वास्तविक नावेल में!
    साम्प्रदायिकता और कट्टरवाद एक मुद्दा तो है मगर इनसे बढ़के एक खतरनाक मुद्दा है तथाकथित बुद्धिजीवियों का पैसा बनाने का जनून! कट्टरवादी संघठन तो खतरनाक हैं मगर उनके विरोध में अँधा होकर पैसा बनाने वालों की होड़ में दौड़ लगाने वालों का समर्थन करना ज़रूरी नहीं! ज्यादा बेहतर है की वास्तविक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित रखा जाए!
    और हाँ हम धर्मनिरपेक्ष हैं इसी लिए उनको आने से रोका गया और हुसैन को विदेश भेजा गया

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