विवाह कानून सुधार का स्त्री पक्ष


अलका आर्य



समान नागरिक संहिता के निर्माण की मांग 1930 के दशक में उठाई गई और बीएन राव की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई, जिसने 1944 में हिंदू कोड से संबंधित मसविदा सरकार को सौप दिया मगर कोई कार्रवाई नहीं की गई आजादी के बाद अंबेडकर की अध्यक्षता वाली समिति ने हिंदू कोड बिल में विवाह की आयु सीमा बढ़ाने, औरतों को तलाक का अधिकार देने के साथ दहेज को स्त्रीधन मानने के सुझाव दिए

तलाक भी तत्काल व तलाक के बाद भी पति की संपत्ति पर होगा हक सरीखे शीषर्क अखबारों में पढ़ने को मिले और यह संदेश गया कि मंत्रिमंडल ने जिस विवाह कानून (संशोधन) विधेयक -2010 को मंजूरी दी है, उससे रेडिकल बदलाव आ सकता है। क्या वास्तव में ऐसा होगा, इस पर सार्वजनिक बहस की जरूरत है। बिल अभी संसद में पाद्य नहीं हुआ है। इस मौके का इस्तेमाल कैसे किया जाए, राष्ट्रीय महिला आयोग व महिला संगठनों को सोचना है। 

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने हिंदू विवाह कानून में संशोधन को मंजूरी दी है और विवाह कानून (संशोधन) विधेयक-2010 के मुताबिक हिंदुओं में तलाक लेने की कानूनी प्रक्रिया अब आसान हो जाएगी। इसमें वैवाहिक संबंधों के पूरी तरह टूटने को भी तलाक लेने के आधारों में शामिल किया गया है। पत्नी को यह अधिकार भी दिया गया है कि वह बेहद बिगड़ चुके दांपत्य जीवन का हवाला देकर तलाक मांग सकती है, इस पर पुरुष विरोध नहीं कर सकेगा। जबकि महिलाओं को विरोध करने का हक होगा। संशोधन के बाद जजों के लिए तलाक का फैसला देने से पहले 6-18 महीने की पुनर्विचार अवधि की बाध्यता खत्म हो जाएगी। इस मुद्दे को अदालत पर छोड़ दिया गया है। सुनवाई के दौरान यदि जज को लगता है कि शादी बचाना मुश्किल है तो वह तलाक का फैसला तुरंत सुना सकता है। शादी के बाद खरीदी गई पति की संपत्ति में पत्नी का हिस्सा तय होगा। उनका हिस्सा कितना होगा, यह मामलों के आधार पर अदालतें तय करेंगी। विवाह कानून (संशोधन) विधेयक-2010 दो साल पहले राज्यसभा में पेश हुआ था। 

फिर इसे कानून एवं कार्मिक संबंधी संसद की स्थायी समिति के पास भेजा गया और स्थायी समिति की सिफारिशों के आधार पर विधेयक का मसौदा फिर से तैयार किया गया। ध्यान देने वाला पहलू यह है कि विधि आयोग ने बेहद बिगड़ चुके वैवाहिक संबंधों के आधार पर तलाक मिलने की सिफारिश अपनी रिपोर्ट में तो की थी मगर ऐसे सूरते हाल में महिलाओं की पति की संपत्ति में हिस्सेदारी की बात नहीं की थी। राष्ट्रीय महिला आयोग व महिला संगठनों ने यह मुद्दा उठाया और संसद की स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में महिलाओं को यह हक दिलाने की सरकार से सिफारिश भी की है। महिला संगठनों की मांग के मुताबिक तलाक के बाद वैवाहिक संपत्ति में बंटवारा बराबर का होना चाहिए मगर मंत्रिमंडल ने जिस संशोधन विधेयक को मंजूरी दी है, उसमें यह हिस्सेदारी मामलों के आधार पर अदालतें तय करेंगी।

 इधर योजना आयोग का वीमेंस एजेंसी एंड एंपावरमेंट नामक वर्किंग ग्रुप ’वैवाहिक संपत्ति का अधिकार‘ संबंधी एक ऐसा समग्र कानून चाहता है,जिसमें पति-पत्नी के बीच अलगाव होने या परित्याग की सूरत में दोनों के बीच वैवाहिक संपत्ति का बंटबारा बराबर हो। एक ऐसा कानून बने जिसके तहत विवाह के बाद पति और पत्नी जो भी संपत्ति चाहे, वह चल हो या अचल हासिल करें, उस पर दोनों का समान अधिकार हो। वह जयदाद साझा होगी। इस कानून के दायरे में सिर्फ वैवाहिक जोड़े ही नहीं बल्कि लिव इन रिलेशनशिप भी शामिल है और यह सभी तरह के समुदायों पर भी लागू होगा। वीमेंस एजेंसी एंड एंपावरमेंट नामक पैनल की नजर में पारिवारिक कानूनों की समीक्षा होनी चाहिए और कानून में स्त्री को पति के समान भागीदार वाली पहचान मिलनी चाहिए व घर को बनाने में उसके योगदान, सहयोग की प्रशंसा की जानी चाहिए।

 संपत्ति किसने खरीदी, इस तथ्य पर विचार किए बिना वैवाहिक संपत्ति पर पति और पत्नी दोनों का साझा अधिकार होना चाहिए। यूं तो विवाह नामक संस्था की एक कड़वी हकीकत यह है कि विवाह के बाद पति और पत्नी कहने को दुख-सुख के बराबर के भागीदार है मगर सच यह है कि दोनों की आर्थिक हैसियत एक सी नहीं होती, आर्थिक विषमता बनी रहती है और यह विषमता औरत के सामाजिक दज पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है। गौरतलब है कि नारीवादियों ने गैरबराबरी के पहिए पर टिकी इस विवाह संस्था में सुधार की मांग का मुद्दा पुरजोर तरीके से उठाया। समान नागरिक संहिता के निर्माण की मांग 1930 के दशक में उठाई गई और बीएन राव की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई, जिसने 1944 में हिंदू कोड से संबंधित मसविदा सरकार को सौप दिया मगर कोई कार्रवाई नहीं की गई।

 आजादी के बाद तत्कालीन कानून मंत्री बीआर अंबेडकर की अध्यक्षता वाली समिति ने हिंदू कोड बिल में विवाह की आयु सीमा बढ़ाने,औरतों को तलाक का अधिकार देने, मुआवजा तथा विरासत के अधिकार के साथ दहेज को स्त्रीधन मानने के सुझाव दिए। हिंदू विवाह कानून 1955 में लागू हुआ और 2003 तक इसमें कई संशोधन भी किए जा चुके है। पितृ सत्तात्मक / पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था विवाह नामक संस्था में पत्नी को पति के बराबर आर्थिक अधिकार देने से रोकती है। औरतों के प्रति ऐसी सामाजिक जड़ता की कीमत उन्हें ही सबसे अधिक चुकानी पड़ती है। दहेज के नाम पर औरतों से उनका संपत्ति में अधिकार छीन लिया गया। यह एक तरह की स्त्री विरोधी साजिश ही है। अंग्रेजी शासन के दौरान भूमि बंदोबस्त अभियान व संपत्ति संबंधी कानूनों में बहुत से स्त्री विरोधी फेरबदल किए गए। प्रमुख बदलाव मातृवंशी परिवारों को पितृवंशी संपत्ति वितरण प्रणाली की ओर धकेलना और परंपरागत सामूहिक पारिवारिक संपत्ति को निजी संपत्ति में बदल दिया जाना था। दहेज,प्रति 1000 बालकों पर 914 बालिकाओं का आंकड़ा समाज में उनकी कमजोर स्थिति को दर्शाता है। महिलाओं के नाम पर कितनी कम संपत्ति होती है, यह तथ्य जगजाहिर है। 

योजना आयोग के विशेषज्ञों का भी मानना है कि औरत को मालिकाना हक देने से इनकार करना भी देश में महिलाओं के हीन दज का एक प्रमुख कारण है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना का एक फोकस महिलाओं को मालिकाना हक दिलाने के लिए प्रोत्साहित करने के वास्ते कई इनसंेटिव की घोषणा वाला प्रस्ताव भी था। बेशक देश के विभिन्न राज्यों में औरत के नाम पर मकान खरीदते वक्त स्टांप डूटी में कुछ रियायत देने वाला प्रावधान भी है मगर यहां सवाल सारी वैवाहिक संपत्ति में पत्नी को पति के समान अधिकार दिलाने का है। यह अधिकार दो पहिए वाले वाहन में भी बराबर का होगा तो कार में भी। वाशिंग मशीन, टीवी, फ्रिज, मकान, गहने या हर वह संपत्ति जो विवाह के बाद खरीदी गई है, वह साझा संपत्ति के नाम से वर्गीकृत होगी। योजना आयोग व महिला संगठनों की बराबर की हिस्सेदारी वाली मांग पर भारतीय समाज की प्रतिक्रिया क्या होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। 

इस संदर्भ में पूर्व महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी की वह टिप्पणी याद आती है,जो उन्होंने घरेलू हिंसा महिला संरक्षण कानून पारित होने के बाद की थी कि एक भी मर्द ने उन्हें यह कानून बनने के बाद बधाई नहीं दी। आर्थिक सुरक्षा महिलाओं खासकर उन महिलाओं की जिंदगी पर जो गरीब, परित्यक्ता, एकल है, एक अलग असर छोड़ती है। अपने समाज में आज भी यह धारणा मजबूत है कि शादी होने के बाद लड़की पराई हो जाती है। मायके में वह मेहमान बनकर रह जाती है। पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी में उसे बेशक कानूनन हक हासिल हो गया हो मगर इसका इस्तेमाल कितनी महिलाएं करती है? सामाजिक ताने-बाने की जकड़न व अपने हकों को मांगने वाली जागरूकता की कमी बड़ी बाधाएं है। आर्थिक सुरक्षा महिलाओं की तकलीफों को कम करती है। बजट सत्र के ब््रोक का लाभ राष्ट्रीय महिला आयोग व महिला संगठनों को उठाना चाहिए।

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