शिव राज या शकुनि राज ? स्त्रियों के हालात पर जारी श्वेतपत्र के निहितार्थ


सुभाष गाताड़े
               

गृहमंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2010 में अनुसूचित जनजातियों पर देश में हुए 5,885 मामलों में से 23.4प्रतिशत अर्थात 1,384सूबा मध्यप्रदेश में हुए। इस मामले में राजस्थान दूसरे नम्बर पर रहा जहां 22.4 प्रतिशत अर्थात 1319 मामले सामने आए। आंकड़ों के मुताबिक एक साल के अन्तराल में आदिवासियों पर अत्याचार में 8.5 फीसदी की बढ़ोत्तरी देखी गयी।

आदिवासियों पर अत्याचार के मामलों में सूबा मध्यप्रदेश के फिर एक बार सूर्खियों पर होने की प्रस्तुत ख़बर अख़बारों में प्रकाशित हुई ही थी, कि गोया इस बात को प्रमाणित करते हुए बेतुल से आदिवासी तबके की इमरती देवी की असामयिक मौत की ख़बर आयी। उसे मारनेवाले वही लोग थे,जिन्होंने कभी उसकी बड़ी बेटी का अपहरण किया था और यही सिलसिला उसकी छोटी बेटी के साथ भी दोहराना चाह रहे थे। किसी दिन जब वह सामान लाने बाहर निकली थी तब उन जालिमों ने उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया था।

इमरती ने हार नहीं मानी थी। उन अत्याचारियों के खिलाफ लिखी अपनी नामजद रिपोर्ट की कापी लेकर वह जगह जगह गयी थी। मगर किसी ने भी उस औरत की पुकार नहीं सुनी थी। और किसी अलसुबह अत्याचारी हथियारो से लैस उसके घर घुस आए थे,जहां उन्होंने रिपोर्ट वापस लेने के लिए उसे धमकाया था। और उसके मना करने पर उसे वहीं ढेर कर दिया था।

इमरती देवी की इस टाली जा सकनेवाली मौत ने इलाके में स्त्रियों, किशोरियों के लिए बदतर होते हालात की तरफ सभी का ध्यान आकर्षित किया है। बेतुल जिले में इमरती देवी के साथ हुई इस नाइन्साफी की घटना बरबस तीन साल पहले उसी जिले के दुलरिया गांव की उर्मिला की याद दिलाती है, जिसने भी जीते जी अपने अत्याचारियों की जबरदस्त मुखालिफत की थी। यदुवंशी बहुल उपरोक्त गांव के दलित परिवार में जनमी उर्मिला के संघर्ष का सिलसिला तभी शुरू हुआ था जब पंच के तौर पर चुने जाने के बाद उसने गांव के विकास के लिए आवण्टित धन में हो रहे भ्रष्टाचार पर उंगली रखी थी और इसकी सज़ा के तौर पर वर्ष 2001में सरपंच के बेटे कल्लू ने उसके साथ बलात्कार किया था। उर्मिला ने हार नहीं मानी इसलिये वर्ष 2003में उसके साथ उसी सिलसिले को उसी शख्स द्वारा दोहराया गया।

कई सारी दरखास्तें, कई आवेदन लेकिन सियासी बेरूखी और पुलिसिया सम्वेदनहीनता का आलम यह था कि अत्याचारी के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुई थी। अन्तत: पंच उर्मिला ने अपने ऊपर हुए अत्याचार में इन्साफ न होने की स्थिति में कलेक्टर के दतर के सामने ही अपनी जीवनलीला समाप्त की। उसके बाद ही उसके अत्याचारी पकड़े गए थे।

अप्रैल माह के प्रथम सप्ताह में मध्यप्रदेश के नागरिक संगठनों, युवा समूहों (नागरिक अधिकार मंच, युवा संवाद) द्वारा सूबे में स्त्रियों की स्थिति पर एक श्वेतपत्र का विमोचन हुआ,जिसने इस कड़वी हकीकत को फिर एक बार उजागर किया कि इमरती देवी की बेटी या उर्मिला के साथ जो हुआ,वह अपवाद नहीं था। उनके मुताबिक 'पिछले दो महिनों मे मध्यप्रदेश मे किशोरियों एवं महिलाओं के साथ अत्याचार की घटनाओं में अभूतपूर्व तेजी देखी गयी है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि प्रदेश में कानून का शासन नहीं है और प्रशासन आंखों पर पट्टी बांधे बैठा है। पिछले दो माह के दौरान हुए बेटमा रेप केस, देवालपुरा (लिम्बादापुर गांव) में मूक बधिर के साथ गैंगरेप, मुलतई में दलित छात्रों के साथ गैंग रेप, बैरसिया गैंगरेप, राजगढ़ में सामूहिक बलात्कार, छिंदवाड़ा में नाबालिग के साथ गैंग रेप, शिवपुरी (मैनपुरा गांव) में सामूहिक बलात्कार आदि जैसी बड़ी घटनाएं मध्यप्रदेश में महिलाओं एवं किशोरियों की असुरक्षित होती स्थिति को रेखांकित करती हैं।'

                 श्वेतपत्र में एकत्रित तथ्य बेहद विचलित करनेवाले हैं :

 'आंकड़ों के मुताबिक 1 नवम्बर 2011 से 31 मार्च 2012 के दरमियान 103 महिलाएं सामूहिक बलात्कार का शिकार हुईं। औसतन हर तीन घंटे पर यहां बलात्कार होता है। बलात्कार एवं छेड़छाड़ के मामलों में मध्यप्रदेश पूरे मुल्क में -'अव्वल' नम्बर पर है, जहां बलात्कार 3135/14.1 फीसदी तथा छेड़छाड़ की 6646/16.4 फीसदी घटनाएं सामने आयीं। बच्चों के खिलाफ अपराध के मामले में भी यह सूबा बाकियों से अव्वल है। एक तरह से इमरती की बड़ी बेटी के किस्से को याद दिलाते हुए आंकड़े उजागर करते हैं कि 2004 से 2011 के बीच 35 हजार 395 लड़कियां लापता हुईं।'

निस्सन्देह राज्य में विपक्षी कांग्रेस की अपनी कमजोर स्थिति या प्रतिवाद के स्वरों एवं आन्दोलनों की धीमी पड़ती आवाज़ ने इन सभी पीड़ितों के लिए न्याय दिला पाने की संघर्ष दुष्कर मालूम पड़ रहा है। मगर इसने शिवराज सिंह चौहान सरकार की कथनी एवं करनी के बीच के अन्तराल को और गहरा कर दिया है। कमसे कम जागरूक तबके को स्पष्ट हो रहा है कि महिलाओं के भाई या बच्चियों के मामा कहलवाने से अब काम नहीं बननेवाला है। हिन्दुओं के मिथकों में वैसे भी कुछ मामाओं का जिक्र आता है, कंस मामा, शकुनि मामा। कहीं ऐसा न हो कि 'मामा शिवराज की नेतृत्व में जारी शासन-प्रशासन की खामियों को देखते हुए आम जनों को कंस मामा याद आने लग सकते हैं।

 वैसे एक दूसरे स्तर पर देखें तो शेष भारत में भी स्त्रियों की स्थिति कत्तई अच्छी नहीं कही जा सकती।

नवम्बर 2011 में नेशनल क्राइम्स रेकार्ड ब्युरो द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक विगत 40 सालों में महिलाओं के खिलाफ अत्याचारों की संख्या में 800 फीसदी इजाफा हुआ है, दूसरी तरफ इस दौरान दोषसिध्दी अर्थात अपराध साबित होने की दर लगभग एक तिहाई घटी है। उदाहरण के लिए वर्ष 2010 में बलात्कार की 22,171 घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज हुई जिसमें दोषसिध्दी दर महज 26.6 थी। स्त्रियों के साथ छेड़छाड़ (molestation) की 40,163 मामले जिसमें दोषसिध्दी दर 29.7 फीसदी तो प्रताडना (harassment) के 9,961 मामले जिनमें दोषसिध्दी दर 52 फीसदी।

यह भी देखने में आता है कि स्त्रियों के साथ अत्याचार के मामलों में इन्साफ से इन्कार बहुस्तरीय है, वह जांच के मामले में भी दिखता है,अदालती कार्रवाइयों में भी नज़र आता है। गौरतलब है कि इस मामले में एकमात्र अपवाद उत्तार पूर्व के राज्यों का संकुल है, जहां पर ऐसे मामलों में दोषसिध्दी दर शेष भारत से काफी अधिक दिखती है। पिछले दिनों अपने एक आलेख में (द हिन्दू, 11 मार्च 2012) प्रवीण स्वामी ने 'उत्तार पूर्व के इस अपवाद' की चर्चा की। उनके मुताबिक जहां नागालैण्ड में 73.7 फीसदी दोषियों को सज़ा मिली, वहीं अरूणाचल प्रदेश और सिक्किम में यह प्रतिशत 66.7 तो मेघालय में यही 44.4 फीसदी था। मिजोराम में तो अत्याचारियों के 96.6 फीसदी को सज़ा मिली। स्त्रियों पर अत्याचार होने की स्थिति में पुलिस के पास जानेवालों की तादाद में भी मिजोराम अव्वल था, जहां हर लाख निवासियों में 9.1 स्त्रियां पुलिस के पास पहुंची थी।


यह सवाल उठना लाजिमी है कि शेष भारत की तुलना में उत्तार पूर्व के इस अपवाद को कैसे समझा जाए ? स्त्रियों पर अत्याचारों के मामलों में आम तौर पर यही राय पेश की जाती है कि पुलिसकर्मियों की तादाद बढ़ायी जाए तथा फास्ट टे्रक अदालतें कायम हों, इन्हें तो करना ही चाहिए, मगर हम अगर नेशनल क्राइम्स रेकार्ड ब्युरो के आंकड़ों को खंगालें तो यह बात भी उजागर होती है कि समाज में स्त्रियों का दर्जा भी इसमें कारगर होता है। साक्षरता, पोषण तथा लिंगानुपात इन तीनों सूचकांकों को देखें तो उत्तार पूर्व शेष भारत के राज्यों से बेहतर स्थिति में दिखता है, जो इसी बात का परिचायक है कि वहां स्त्रियों का सामाजिक दर्जा सापेक्षत: उंचा है। इसका अर्थ यही है कि किसी स्त्री के साथ अत्याचार होने की स्थिति में आपराधिक न्याय प्रणाली पर पीड़िता या उसके आत्मीय जनों का ही नहीं बल्कि समाज का दबाव पड़ता है, जिसके कारण न्याय पाने की उम्मीद बेहतर होती है।

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