भारतीय मीडिया संस्थानों के न्यूज़रूम में दलित


रॉबिन जैफ़री



साल 1992 में वे न के बराबर थे, और आज भी न के बराबर ही हैं – भारतीय मीडिया संस्थानों के न्यूज़रूम में दलित। लगभग 25 प्रतिशत भारतीयों (अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों) की जीवनकथाओं को जान पाना आसान नहीं – टीवी या अखबारों में उनका आना तो और भी मुश्किल है।

सिवाय तब, जब कथाएँ गंदगी या हिंसा के बारे में हों। अमेरिकी मीडिया में अफ्रीकी-अमेरिकी और हिस्पैनिक मुद्दों को कैसे पेश किया जाता है उसका सारांश एक विश्लेषक ने यूँ दिया था: अगर उन लोगों के बारे में आपकी जानकारी बस उतनी ही है जितनी आपने मीडिया से पाई है तो आपको लग सकता है कि ऐसे लोग “शायद ही कभी यात्राओं पर जातें हैं, खाते-पीते या शादी-विवाह करते हैं”।

अगर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग अखबारों और टीवी से लगभग पूरी तरह से नदारद हैं तो इससे क्या कोई आफ़त आ गई? बिलकुल आ गई। यह तीन कारणों से एक आफ़त या विपदा है।

पहला, इसका अर्थ यह हुआ कि संविधान के मानकों को पूरा नहीं किया जा रहा। संविधान “समता” और “बंधुत्व” की प्रतिज्ञा करता है। और अगर एक-चौथाई आबादी चौथे स्तंभ में नज़र नहीं आती तो “समता” में कुछ तो कमी है। और जो लोग हैं ही नहीं उनसे बंधुता तो हो नहीं सकती।

दूसरा, न्यूज़रूम में उचित मौजूदगी, और उससे आने वाली विविध कवरेज से उन लोगों का रोष कम होता है जिन्हें अबतक नज़रअंदाज़ किया गया या जो भेदभाव के शिकार रहे हैं। विपत्तियों और उपलब्धियों को उजागर करने के द्वारा भेदभाव से निपटा जा सकता है। और अगर सार्थक बदलाव नहीं आते तो रोष विनाशकारी रूप से फूटेगा जैसा कि पूर्वी भारत में माओवादी प्रभाव वाले क्षेत्रों में देखा जा सकता है। हाशिए पर के लोगों की सफलताओं और समस्याओं के बारे में अगर लगातार और गहराई में जाकर पत्रकारिता होती रहेगी तो समाधान भी मिलेंगे और अवरोध सेतुओं में बदलेंगे।

नज़रअंदाज़ तबका

तीसरा, ईमानदार मीडिया कर्मी, जो न्यूयॉर्क टाइम्स के पुराने टैग पर विश्वास करते हैं कि “छपने लायक सभी खबरें” खोज निकाली जाएँ, कभी भी ऐसा अखबार, पत्रिया का या बुलेटिन निकाल कर संतुष्ट नहीं हो सकते जो रोबोट की तरह एक-चौथाई आबादी को नज़रअंदाज़ करता है (सिवाय जब बात हिंसा या गंदगी की हो)। अधपके बालों वाले नगर संपादक (नगर संपादक हमेशा अधपके बालों वाले ही होते हैं) दिन खत्म होने पर अपने आत्मतुष्ट रिपोर्टरों से एक ही सवाल पूछते थे – “बॉयज़ एंड गर्ल्ज़, तो आज वास्तव में हुआ क्या था?” इस सवाल की हर न्यूज़रूम में पूछे जाने की ज़रूरत है।

मीडिया में दलित गैरमौजूदगी पर 1996 के बाद से थोड़ा-बहुत फ़ोकस किया जाता रहा है। उस समय द वाशिंगटन पोस्ट के संवाददाता केनेथ जे. कूपर, जो खुद अफ्रीकी-अमेरिकन हैं, नई दिल्ली में एक दलित मीडिया कर्मी को ढूँढ रहे थे। कूपर के हाथ असफलता ही लगी और उन्होंने इसके बारे में लिखा भी। कूपर की खोज को फिर बी. एन. उनियाल ने पायनियर में प्रचारित किया। “अचानक मुझे यह एहसास हुआ,” उनियाल ने लिखा, “कि पत्रकारिता में बिताए 30 सालों के दौरान मुझे एक भी ऐसा साथी पत्रकार नहीं मिला जो दलित हो। एक भी नहीं।”

एक भी एससी, एसटी नहीं

साल 2000 में जब मेरी किताब ‘इंडियाज़ न्यूज़पेपर रिवोलूशन’ आई तो हालात वैसे ही थे। हालात 2006 में भी वैसे ही थे जब कूपर-उनियाल जाँच की 10वीं वर्षगांठ पर किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 300 से अधिक मीडिया उच्चाधिकारियों (डिसीज़न मेकर) में एक भी एससी या एसटी नहीं देखा गया। और एक साल पहले तक भी हालात नहीं बदले थे जब एक तमिल पत्रकार, जें. बालसुब्रमण्यम, ने ‘इकनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ में एक व्यक्तिगत संस्मरण लिखा।  

कैनेथ कूपर, जो अब बॉस्टन में मीडिया सलाहकार और संपादक हैं, ने अपना विशिष्ट करियर, व्यवसायिक दृष्टि से सफल अफ्रीकी-अमेरिकी दैनिक, ‘सेंट लुईस अमेरिकन’ से आरंभ किया था। अगर पिछले (और वर्तमान) के अफ्रीकी-अमेरिकियों और आज के दलितों के हालात में समानता है तो फिर ‘ऐबनी’ या ‘ऐसेंस’ पत्रिकाओं या पुराने ‘सेंट लुईस अमेरिकन’ या ‘शिकागो डिफ़ेंडर’ जैसी कोई दलित-उन्मुख मीडिया क्यों नहीं है?

इसका जवाब एक हद तक तो यह है कि दलितों के पास वे सुविधाएँ नहीं है जो काले अमेरिका के पास 1920 के दशक में भी मौजूद थीं। सबसे महत्त्वपूर्ण था दुकानदारों और व्यवसायियों का काला मध्यवर्ग। वे लोग विज्ञापन खरीद सकते थे और पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में पूंजि लगा सकते थे। काला अमेरिका एक की भाषा, अँग्रेज़ी, में काम करता था और उसके पास कलीसियाओं (चर्च या गिरजे) और उनके पादरियों का एक नेटवर्क था जिसने उन्हें सम्माननीय नेता, शिक्षा और कनेक्शन प्रदान किए। मार्टिन लूथर किंग उन जैसे कई लोगों में से एक थे। काला अमेरिका अंदर से भी कम बँटा हुआ था – अफ्रीकी-अमेरिकियों में जाति समस्या नहीं था हालाँकि त्वचा की रंगत समस्या हो सकता था।

यदि आपके मन में यह चल रहा है कि “अच्छे पत्रकार, चाहे किसी भी जाति के हों, वस्तुनिष्ठ रिपोर्टिंग करते हैं” या “कोटे और आरक्षण आधुनिक भारत पर लानत है – केवल योग्या महत्त्वपूर्ण है” तो राष्ट्रवादी अनुभव पर गौर करें। ब्रितानी राज का विरोध करने वाले पुराने अभिजात वर्ग यह महसूस करता था कि ‘द सटेट्समन’ या ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त है? नहीं, वे ऐसा नहीं सोचते थे। और ‘द हिंदू’, ‘अमृता बाज़ार पत्रिका’, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’, ‘यंग इंडिया’ और कई दूसरे इसी का नतीजा थे। बाबासाहेब अंबेडकर ने बहुत अच्छे-से कहा, “अगर प्रेस हाथ में हो तो महान लोगों का उत्पादन आसान हो जाता है।”

मीडिया में दलित मौजूदगी हो इसके लिए क्या किया जा सकता है? दो सुझाव। कोई भी उत्तर नहीं है लेकिन गौर किए जाने लायक हैं।

दो सुझाव

सबसे पहले, एडिटर्स गिल्ड प्रतिबद्ध हो कि वह न्यूज़रूम में विविधता की वार्षिक जनगणना करेगी जैसी अमेरिकन सोसाइटी ऑफ़ न्यूज़ एडिटर्स (एएसएनई) ने 1978 में शुरू की। उस साल अमेरिकी न्यूज़रूम में “पीपल ऑफ़ कलर” (गैर-श्वेत लोग) की संख्या 4 प्रतिशत थी, हालाँकि वे अमेरिकी आबादी का 30 प्रतिशत थे। लक्ष्य था कि साल 2000 तक 20 प्रतिशत से अधिक लोगों तक पहुँचा जा सके। यह लक्ष्य वह पूरा नहीं कर सके। साल 2011 में, अमेरिकी न्यूज़रूम में “अल्पसंख्यकों” की संख्या 13 प्रतिशत थी, हालाँकि वे कुल आबादी का 36 प्रतिशत थे (इसमें अफ्रीकी-अमेरीकी, लातिन अमेरिकी, नेटिव अमेरिकी और एशियाई शामिल हैं)। एएसएनई की लक्ष्य तिथि 2020 तय की गई है।

भारत में इस तरह का लक्ष्य मुश्किल होगा। (याद रखें, लक्ष्य। “आरक्षण” या “कोटा” नहीं)। जाति बहुत ही संवेदनशील मामला है। लेकिन अगर प्रमुख संस्थान विविधता का वार्षिक ऑडिट – जिसमें औरतों और मुसलमानों से संबंधित आँकड़े भी हों – करवाने और उसे प्रकाशित करवाने में आगे आएँ तो इससे शरमिंदगी का एक भाव तो जागेगा ही। छोटे संस्थान महसूस करेंगे कि या तो वे भी इसका अनुसरण करें या फिर उपहास के पात्र बनें।

भारत के पिरामिड के तल में रहने वाले लोगों में एक मध्यवर्ग धीरे-धीरे बढ़ रहा है। तल के सबसे करीब रहने वाले लोग, जिनमें से अधिकांश दलित हैं, उन्हें ऐसे पत्र-पत्रिकाओं की ज़रूरत है जो दुनिया को उनके नज़रिए से देखते हैं – नीचे से ऊपर की ओर, न कि ऊपर से नीचे की ओर। इस पिरामिड के तल वाले मध्यवर्ग को एक फ़र्स्ट-क्लास पत्र-पत्रिका की ज़रूरत है – एक ‘ऐबनी’ या ‘ऐसंस’ की, काले अमेरिका की दो ग्लॉसी पत्रिकाओं जो उनकी उपलब्धियों और उत्पीड़नों की खबरें देती हैं।

क्लासी और हट के

अच्छी गुणवत्ता वाले चिकने कागज़ पर छपी एक स्लिक मैगज़ीन (अँग्रेज़ी और हिंदी में), जो नीचे के नज़रिए से देखती हो, हाशिए पर के मुद्दों को इस तरह से कवर करेगी कि हाशिए पर के लोग उस पर गौर करेंगे। और उसकी पत्रकारिता इतनी शानदार होगी कि बाकी के लोग भी उसे उसके क्लासीपन और फ़र्क के लिए पढ़ना चाहेंगे। अपने छोटे बजट में, दलित केंद्रित प्रकाशक नवयान किताबों के व्यवसाय में ऐसा ही कुछ पहले से कर रहे हैं।

ऐसे प्रकाशन को एक ट्रस्ट को चलाना होगा, जिसमें कुछ पूंजि दलित मध्यवर्ग से ही आएगी। लेकिन ट्रस्ट का कोश हर पृष्ठभूमि के शुभचिंतकों के दान से और सरकार के एक बार के योगदान से बनेगा। एक सौ करोड़ की धनराशि यथार्थवादी लक्ष्य होगा (20 मिलियन डॉलर), यह औसत मूल्य को दो-तीन युद्ध टैंकों या 2जी स्पैक्ट्रम के बहुत छोटे-से हिस्से के बराबर ही है।

टीवी का क्या? जब 1967 में मैं पहली बार भारत आया, उससे करीब डेढ़ साल पहले तक मैं पश्चिमी कनाडा में एक छोटे-से शहर के अखबार के लिए रोज़ाना का टीवी कॉलम लिखता था। मैंने अमेरिका और कनाडा का टीवी खूब देखा। टीवी पर कोई काला व्यक्ति नज़र नहीं आता था। जब मैं 1970 में वापस उत्तरी अमेरिका आया तो, अफ्रीकी-अमेरिकी हास्यकलाकार फ़्लिप विलसन एक लोकप्रिय टीवी शो कर रहे थे। कुछ नाटकीय घट चुका था। अड़तीस साल बाद अमेरिका ने एक काले राष्ट्रपति को चुन लिया।

क्या किसी प्रमुख भारतीय टीवी चैनल पर कोई दलित किसी कार्यक्रम को एंकर कर रहा है या नियमित रूप से कैमरे पर आ रहा है? मेरे जान-पहचान के लोग बताते हैं कि नहीं। जब ऐसा होगा तो यह बहुत बड़ा मौका होगा – और जो व्यक्ति इस अवरोध को पार करेगा उसके लिए बहुत ही बड़ा बोझ भी होगा।

भारत में “समता” और “बंधुता” प्राप्त करना अफ्रीकी-अमेरिकियों के मुकाबले मुश्किल होगा। यहाँ अधिक विभाजन हैं, संसाधन कम हैं और विशाल असमानताएँ हैं। लेकिन जबतक टीवी स्क्रीन और मुद्रित पन्नों पर विविधता नज़र नहीं आती, संविधान का वादा अधूरा ही रहेगा, विचारहीन पूर्वाग्रह बने रहेंगे और सुलगती नाराज़गी बढ़ती जाएगी। मीडिया में विविधता राष्ट्रीय आत्महित के साथ-साथ न्याय का भी मामला है।

[रॉबिन जैफ़री इंस्टिट्यूट ऑफ़ साउथ एशियन स्टडीज़ एंड एशिया रिसर्च इंस्टिट्यूट नैशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर में विज़िटिंग रिसर्च प्रोफ़ैसर हैं। यह लेख नई दिल्ली में 31 मार्च 2012 को उनके द्वारा दिए राजेंद्र माथुर मैमोरियल लेक्चर पर आधारित है। यह मूलतः द हिंदू (9 अप्रैल 2012) में प्रकाशित हुआ  था  ]

  http://www.forwardpress.in से साभार 

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